‘स्वतंत्रता और समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं।’ स्पष्ट करें। 

स्वतंत्रता और समानता प्रजातंत्र के दो मूल आधार स्तम्भ हैं। स्वतंत्रता समाज- कल्याण के हित में व्यक्ति का वह मर्यादित अधिकार है जिसके अभाव में वह अपने जीवन का सर्वमुखी विकास नहीं कर सकता। अर्थात् समाजहित में अपने को नियंत्रित करते हुए अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करना ही स्वतंत्रता है। समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से है जिसके कारण सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हो सके और उस असमानता का अंत हो जिसका मूल कारण सामाजिक वैषम्य है।

स्वतंत्रता एवं समानता के संबंध में एक मूल प्रश्न यह सामने आता है कि स्वतंत्रता लोग एवं समानता में क्या संबंध है ? इस प्रश्न पर राजनीतिज्ञों के बीच मतैक्य नहीं है। कुछ स्वतंत्रता एवं समानता को परस्पर विरोधी मानते हैं, तो कुछ एक दूसरे का पूरक मानते हैं।

स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी है : स्वतंत्रता और समानता को परस्पर विरोधी मानने वालों में लॉर्ड एक्टन एवं डी. टॉकविले के नाम उल्लेखनीय हैं। इन विचारकों की राय है कि जहाँ स्वतंत्रता है, वहाँ समानता नहीं रह सकती है तथा जहाँ समानता हैं, वहाँ स्वतंत्रता नहीं रह सकती। ऐसे विचारक उदाहरणस्वरूप यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि असमानता तो हमें प्रकृति से मिली हुई है। सभी मनुष्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक आदि दृष्टियों से असमान है। कोई छोटा है तो कोई बड़ा, कोई बुद्धिमान है तो कोई मूर्ख, कोई मोटा है तो कोई पतला, कोई परिश्रमी है तो कोई आलसी । ऐसी परिस्थिति में यदि जीवन की दौड़ में सबों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाय तो अधिक बुद्धिमान, शक्तिशाली तथा परिश्रमी व्यक्ति मूर्ख, निर्बल एवं आलसी व्यक्तियों से आगे निकल जायेंगे। ऐसी दशा में समाज में समानता नहीं रह पायेगी तथा उनके जीवन नितांत असमान हो जायेंगे। उनके मुताबिक समानता की स्थापना तभी संभव है जब सरकार शक्ति के आधार पर व्यक्तियों की स्वतंत्रता को सीमित कर सबको समान कर दे। परन्तु इस प्रकार समान करने की प्रक्रिया से व्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। इसीलिए एक्टन ने कहा कि “समानता की उत्कट अभिलाषा ने स्वतंत्रता की अभिलाषा को नष्ट कर दिया है।” तात्पर्य यह कि स्वतंत्रता एवं समानता परस्पर विरोधी हैं। स्वतंत्रता को सीमित करके सबको समान बनाया जा सकता है तथा यदि सबको स्वतंत्र छोड़ दिया जाय तो सभी असमान हो जायेंगे। 

समानता और स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं : उपर्युक्त वर्णित धारणा के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी विचारक हैं जिनके अनुसार समानता स्वतंत्रता का आधार है तथा दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। समानता के अभाव में स्वतंत्रता की स्थापना नहीं हो सकती तथा स्वतंत्रता के अभाव में समानता सार्थक नहीं हो सकती । उदाहरणस्वरूप, आर्थिक समानता के अभाव में सभी प्रकार की स्वतंत्रताएँ व्यर्थ तथा सारहीन है। इसी प्रकार, यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबंध लगाये गये, तो उसका व्यवहार समान नहीं हो पायेगा । लास्की के अनुसार, “स्वतंत्रता और समानता एक दूसरे के विरोधी नहीं, अपितु वे एक-दूसरे के पूरक हैं।” 

समीक्षा : स्वतंत्रता एवं समानता के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा के आधार पर हम कह सकते हैं कि स्वतंत्रता और समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। स्वतंत्रता एवं समानता का गलत अर्थ लगाने से उनके संबंध में भ्रांतियाँ उत्पन्न होती हैं। प्रथम श्रेणी के विद्वान स्वतंत्रता का अर्थ ‘नियंत्रण का अभाव’ से लगाते हैं, जो ‘सर्वथा 

भ्रममूलक है। नियंत्रण के अभाव में स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, दुराचार एवं स्वेच्छाचारिता का रूप ले लेता है। स्वतंत्रता जीवन की ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबंध हो, विशेषाधिकारों का नितांत अभाव हो तथा व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त हो। इसी तरह बहुत से विद्वान प्राकृतिक समानता की दुहाई देकर हर क्षेत्र में समानता का गीत गाते हैं। परन्तु समानता का वास्तविक अर्थ प्राकृतिक समानता नहीं, बल्कि मनुष्यकृत असमानता को दूर करना है। समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिनके अंतर्गत व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हो और इस प्रकार उस असमानता का अंत हो सके जिसका मूल सामाजिक वैषम्य है। 

तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता और समानता दोनों का उद्देश्य मानवीय व्यक्तित्व उच्चतम विकास है। दोनों एक-दूसरे के सहायक हैं, परस्पर विरोधी नहीं । ऐसे राज्य में जिसमें समानता नहीं है, स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती। यदि राजनीतिक समानता नहीं होगी तो स्वतंत्रता व्यर्थ हो जायेगी क्योंकि शासन का एक बहुत बड़ा भाग शासन में हाथ बटाने से. वंचित रह जायेगा। यदि नागरिक समानता नहीं होगी तो व्यक्ति नागरिक अयोग्यताओं से पीड़ित होगा, उन्हें स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं होगी। यदि सामाजिक समानता न होगी तो स्वतंत्रता कुछ ही लोगों का विशेषाधिकार हो जायेगी। यदि आर्थिक समानता न होगी तो धन कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित हो जायेगा और वही वर्ग स्वतंत्रता का लाभ उठा सकेगा। 

एक्टन के शब्दों में “विरोधाभास यह है कि समानता और स्वतंत्रता, जो कि परस्पर विरोधी विचार के रूप में प्रारम्भ होते हैं, विश्लेषण करने पर एक-दूसरे के लिए आवश्यक हो जाते हैं। सत्य यह है कि समानता के अर्थ की उचित व्याख्या स्वतंत्रता के संदर्भ में ही की जा सकती है।” वस्तुतः स्वतंत्रता और समानता मानव-जीवन-सरिता के दो तट हैं, ये मानव- कल्याण रूपी रथं के दो पहिए हैं। सत्य एवं शिव का जो अभिन्न संबंध हैं, वही मानवीय जीवन में स्वतंत्रता एवं समानता का है। 


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