प्रश्न – ‘सकारात्मक कार्रवाई’ से आपका क्या तात्पर्य है ? भारत में सकारात्मक कार्रवाई पर आधारित व्यवस्था की चर्चा कीजिए ।
सकारात्मक कार्रवाई वंचित समुदायों के सशक्तिकरण के लिए एक रणनीति है । यह समुदाय वर्तमान में पीड़ित और ऐतिहासिक रूप से एक संस्कृति के अंदर भेदभाव से ग्रस्त रहे हैं। प्रायः यह समुदाय उत्पीड़न या बंधन जैसे ऐतिहासिक कारणों से समाज की मूलधारा से नहीं जुड़ पाए थे। सकारात्मक कार्रवाई की अवधारणा का विचार सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका में 1961 में लाया गया था जिसमें यह प्रावधान निर्धारित किया गया कि आवेदक कार्यरत को सरकारी कर्मचारी बनते समय रंग, पंथ, राष्ट्रीय मूल आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। सामान्य शब्दों में समाज के वंचित समुदाय को बढ़ावा देने के लिए और समाज की मूलधारा में लाने के लिए सकारात्मक कार्रवाई का प्रावधान लाया गया। सकारात्मक कार्रवाई उन नियमों और कानूनों को परिलक्षित करती है, जो भेदभाव का अंत और समान अवसरों को बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। सकारात्मक कार्रवाई सकारात्मक भेदभाव से संचालित होती है, जिसमें वंचित समुदायों को विशेषाधिकार और अवसर प्रदान किए जाते हैं।
भारत में सकारात्मक कार्रवाई :
(i) उल्टा भेदभाव : भारत में सकारात्मक कार्रवाई पर आधारित व्यवस्था अपनाने के पश्चात् जनसंख्या का उच्च वर्ग (उच्च जातियाँ) अपने आपको भेदभाव से ग्रस्त अनुभव करने लगी हैं क्योंकि भारत में सरकारी नौकरियों और पदों का आवंटन कोटा प्रणाली या आरक्षण पर आधारित है। भारत में आरक्षण प्रणाली पहले केवल एक या दो दशकों के लिए अपनाई गई थी, परंतु इसके पश्चात् इसे सामाजिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार निरंतर आगे बढ़ाया गया। लेकिन समकालीन समय में परिस्थितियाँ परिवर्तित हो गई हैं, क्योंकि अब उच्च जातियाँ एवं प्रभुत्वशाली जातियाँ पटेल, मराठा और जाटों के द्वारा भी आरक्षण की माँग होने लगी है। उच्च जातियों से संबंधित व्यक्ति, छात्र और प्रतिभागी अकादमिक क्षेत्र में अपने आपको हारा हुआ पाता है। इसीलिए उसे सरकारी नौकरियों के नुकसान और नौकरियों की अनुपलब्धता का डर है जिसे भारत में उल्टा भेदभाव की संज्ञा दी जाती है।
(ii) प्रतिभा पलायन : भारत में पहचान की राजनीति के कारण आरक्षण और कोटा आधारित प्रणाली के तहत नौकरी और शिक्षा चयन में मेरिट की तुलना में जाति को आधार बनाया जाता है। इसलिए बुद्धिजीवियों को विदेश में जाकर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है जिससे भारत इस बुद्धिजीवी वर्ग का लाभ राष्ट्र के लिए नहीं उठा पाता है। इसके लिए आरक्षण प्रणाली को खत्म करने की बजाय उसमें सुधार की आवश्यकता है ताकि समाज के मेरिट वर्गों को उसका लाभ प्राप्त हो सके।
(iii) संविधान के विरुद्ध : यदि संविधान जाति, रंग और पंथ के बाद भी सभी को समान अधिकार देने के लिए समाज के वंचित वर्गों को योग्यता में कुछ छूट प्रदान करता है, तो वह समाज को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने के प्रति एक महत्त्वपूर्ण कदम है। हालाँकि कई देशों में सकारात्मक कार्यवाही को इसलिए निषेध माना गया है क्योंकि यह सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती हैं। परंतु भारत में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय – अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति एवं पिछड़े वर्ग के साथ-साथ आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था है। यह संविधान के विरुद्ध में न होकर बल्कि भारतीय संविधान को और अधिक लोकतांत्रिक एवं प्रासंगिक बनाती है जबकि दूसरी ओर भारतीय समाज और संस्कृति को समानता के सिद्धांत के और समीप ले जा रही है।