शकों की उत्पत्ति एवं भारतीय इतिहास में उनके योगदान का वर्णन कीजिए।PDF DOWNLOAD

शक लोग घूमक्कड़ जाति के थे जो मध्य एशिया में निवास करते थे। ई. पू. द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चीन की एक शक्तिशाली जाति यू-ची द्वारा वहाँ से भगा दिये गये। वहाँ से इन लोगों ने यवनों और पार्थियनों के राज्य में प्रवेश किया। यहाँ के अधिकांश भागों को इन्होंने जीत लिया। धीरे-धीरे शकों की संख्या बढ़ गई तो ये फिर कई शाखाओं में विभाजित हो गये। इनमें कुछ हिन्दूकुश आदि की पहाड़ियों को पार करके उत्तर-पश्चिमी भारत में आकर बस गये। कुछ शकों ने पार्थियन शासकों के यहाँ नौकरी कर ली और ‘क्षत्रप’ य ‘वायसराय’ की उपाधि धारण की। यह उपाधि उन्हें इतनी अधिक पसंद थी कि स्वतंत्र शासक होने के बाद भी वे इस उपाधि को धारण करते रहे। आगे चलकर उत्तर पश्चिम भारत में उन्होंने अनेक स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की। रामायण और महाभारत में यवनों के साथ इनका उल्लेख आता है। चीनी प्रमाणों से भी उनके भारत आगमन की पुष्टि होती है। 

इतिहासकारों के अनुसार शक मध्य एशिया के रहने वाले थे। यू-ची जाति ने उन्हें दक्षिण की ओर बढ़ने के लिए विवश किया। फिर अफगानिस्तान और बलूचिस्तान से हटकर सिन्धु नदी की निचली घाटी में आकर बस गये। यहाँ से उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार किया और यवनों के राज्यों को जीते हुए पंजाब तक पहुँच गये। 

पश्चिमी क्षत्रप (Western Kshatrapas ) : पश्चिमी क्षत्रप अनेक स्थानों के क्षत्रपों से प्रसिद्ध थे। इस वंश के दो प्रसिद्ध शासक भूमक और महपान थे। वे अपने को क्षहरात क्षत्रप कहते थे। भूमक के सिक्कों पर उसकी उपाधि क्षत्रप’ मिलती है। उसने सौराष्ट्र (गुजरात) पर अधिकार कर लिया था। उसके सिक्कों पर सिंह शीर्ष और धर्मचक्र अंकित है, जो . उसका सम्बन्ध शक-क्षत्रपों से जोड़ते हैं। 

नहपान (Nahapan) : इस वंश का प्रसिद्ध शासक नहपान था। उसके अभिलेखों में 41 से 46 तक तिथियाँ हैं। अधिकांश विद्वानों का विचार है कि वे तिथियाँ शक् सम्वत् में है। इस आधार पर नहपान की तिथि 119 ई. से 124 ई. तक है। नहपान ने अपने सिक्कों में अपने को ‘राजा’ लिखा है। उसके आरम्भिक सिक्कों में उसकी उपाधि ‘राजा’ है। वर्ष 46 के अभिलेख में उसकी उपाधि ‘महाक्षत्रप’ है। उसके अभिलेखों में उसके साम्राज्य विस्तार पर भी प्रकाश डाला गया है। उसके गोवर्धन, नामात, कापूर प्रभास, भृगु, कच्छ, दशपुर, शर्पारक, पुष्कर आदि जिले शामिल थे। इस आधार पर उसका राज्य उत्तर में अजमेर और राजपूताना तक विस्तृत था । उसके राज्य में काठियावाड़, दक्षिण गुजरात, पश्चिम मालवा, उत्तरी कोंकण, नासिक और पूना जिले शामिल थे। 

नहपान शक्तिशाली शासक था। उसने सातवाहनों से महाराष्ट्र छीन लिया था। बाद में गौतमीपुत्र शातकर्णी नहपान को हराकर फिर उसके सिक्कों पर अपना नाम अंकित करवाया। ‘पेरिप्लस’ में भी नहपान का उल्लेख आता है। उसके अनुसार भद्दीन का बन्दरगाह उसके अधिकार में था। पेरिप्लस में उसकी राजधानी भिन्नगर बतायी गयी है। इसकी पहचान नहीं हो सकी है। यहाँ बहुत अधिक कपास पैदा होती है, जो भड़ौच के बन्दरगाह से बाहर भेजी जाती थी। नहपान बहुत ठाट-बाट से रहता था। उसके लिए विदेशों से चाँदी के बहुमूल्य बर्तन, गाने वाले लड़के, रनिवास के लिए सुन्दर कुमारियाँ, अच्छी शराब, बारीक कपड़ा और श्रेष्ठ औषधियाँ लाई जाती थी। नहपान सहरात वंश का अन्तिम शासक था। 

उज्जैन के क्षेत्रप (The Kshatrap of Ujjain): इस वंश का संस्थापक चष्टन था। उसने अपने अभिलेखों में शक सम्वत् का प्रयोग किया है। अभिलेखों के आधार पर इस वंश ने 130 ई. से 388 ई. तक शासन किया। संभवतः 388 ई. में ही चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जयिनी के शकों को समाप्त कर दिया। कुछ विद्वानों का कहना है कि चप्टन ने ही शक् संवत् शुरू किया था । 

चष्टन के पश्चात् उसका पुत्र जयदामन् शासक बना था। इसके काल में गौतमी पुत्र शातकर्णी ने अवन्ति को अपने अधीन कर लिया था । जयदामन् महाक्षत्रप नहीं बन पाया था । जयदामन् के बाद उसका पुत्र रुद्रदामन शासक बना। 

रूद्रदामन प्रथम (Rudradaman I) (130-150 ई.): रूद्रदामन् या रूद्रदामा शकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध था । इसका साम्राज्य बहुत अधिक विस्तृत था। जूना नगर अभिलेख के अनुसार उसके साम्राज्य पूर्वी और पश्चिमी मालवा, महेश्वर, द्वारका, सौराष्ट्र, साबरमती के तट का प्रदेश, मारवाड़, कच्छ, उत्तरी कोंकण आदि प्रदेश उसके राज्य में शामिल थे। निश्चित ही उसे सातवाहनों से संघर्ष करना पड़ा। उसने अपने समकालीन शासक शातकर्णी को पराजित किया। 

रूद्रदामा की रूचि प्रशासनिक कार्यों में भी थी । उसने अपने शासनकाल में चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा निर्मित सुदर्शन की झील की मरम्मत करवाई। उसके प्रदेश राज्यपालों के अधीन होते थे। सौराष्ट्र में एक पल्लव अमात्य सुविशाख था। उसने दो प्रकार के मंत्रियों की नियुक्ति की । सलाह देने वाले मंत्रियों को ‘मति सचिव’ और कार्यपालिका के मन्त्रियों को ‘कर्म सचिव’ कहा जाता था। उसने अपनी प्रजा पर कोई बेकार कर नहीं लगाया था। वह अपनी जनता से बलि, भाग और शुल्क नामक कर वसूल करता था । वह प्रजा के हित की ओर बहुत अधिक ध्यान रखता था । 

रूद्रदामन स्वयं विद्वान व्यक्ति भी था । वह व्याकरण, राजनीति, संगीत, तर्कशास्त्र का ज्ञाता था। जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में लिखा है । इससे स्पष्ट है कि उस काल में संस्कृत की बहुत अधिक उन्नति हुई। 

रूद्रदामन के पश्चात् उसका पुत्र दमधसद राजा बना। इसके बाद जीवदामन् शासक बना था। अन्तिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था जिसने 390 ई. तक शासन किया । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसकी हत्या कर दी और शक साम्राज्य को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया। 

शक- शासन का महत्व ( Significance of the Saka Rule) : शकों ने भारत के विभिन्न भागों पर बहुत अधिक समय तक राज्य किया । अन्य विदेशी आक्रमणकारियों के ही समान शकों ने भी भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को प्रभावित किया। पहले उन्हीं से टक्कर लेने के कारण इस देश में विक्रमादित्यों की एक परंपरा चली। एक ओर वे सातवाहनों से राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धावश लड़ते थे दूसरी ओर संस्कृत भाषा को समृद्ध करते थे। शक धीरे-धीरे भारतीय समाज में समाविष्ट हो गए। उन्हें भी ‘द्वितीय क्षत्रिय’ का दर्जा दिया गया। उन्होंने भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया । शकों का धीरे-धीरे पूर्णतः भारतीयकरण हो गया। उन लोगों ने भारतीय नाम अपना लिए जैसे, जयदामन, रुद्रदामन, रुद्रसेन इत्यादि । सातवाहनों और इक्ष्वाकुओं से उन्होंने वैवाहिक संबंध स्थापित किए। वर्णाश्रम व्यवस्था को भी उन्होंने अपनाया। शक ब्राह्मण मग ब्राह्मण के नाम से विख्यात हुए। शकों ने बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म तीनों को प्रश्रय दिया । नासिक अभिलेख में बौद्धों, ब्राह्मणों एवं जैनों को दान दिए जाने का उल्लेख है। शिव और नाग की पूजा तथा सूर्य की पूजा को भी प्रोत्सा दिया गया। पुराणों में प्रथम भारतीय सूर्य मंदिर के निर्माण का संबंध सिंध या शकद्वीप से दिखाया गया है। शकों ने भारत में नए फैशन के वस्त्र-पगड़ी, लंबे कीट और मोड़ों के प्रचलन को बढ़ाया। शकों ने ज्योतिष विज्ञान को भी बढ़ावा दिया। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, “रावन ज्योतिष का यह भारतोन्मुख संक्रमण शक शासन के मध्याह में पहली और तीसरी ई. सदियों के बीच हुआ। उज्जयिनी उस काल की ग्रीनविच बनी और वहीं नक्षत्रविद्या और गणित का केन्द्र स्थापित हुआ।” इनके समय में संस्कृत भाषा की प्रगति हुई । रुद्रदामन का अभिलेख संस्कृत गद्य का एक अनूठा नमूना पेश करता है। शकों ने संस्कृत नाटक और संगीत को भी बढ़ावा दिया। शकों ने भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन किए। शकों ने क्षत्रपीय व्यवस्था भी लागू की। इस व्यवस्था के अनुसार राज्य को विभिन्न क्षत्रपियों (भागों) में विभक्त कर उनपर शासक के रूप में क्षत्रप बहाल किए गए। इस पद पर राजवंश के व्यक्तियों या सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। राजा स्वयं महाक्षत्रप कहा जाता था। 



About The Author

Spread the love

Leave a Comment

error: Content is protected !!