प्रश्न- मध्य-पाषाणकालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिये।
पुरातत्ववेत्ताओं के मतानुसार पूर्व – पाषाणकाल तथा नव पाषाणकाल के बीच एक संक्रमणकाल भी था, जिसे प्राय: ‘मध्य- पाषाणकाल’ कहते हैं। इस काल के औजार बहुत ही छोटे हैं। इसलिए इन्हें प्राय: ‘लघु-पाषाण’, ‘अणु-पाषाण’ (Microliths), ‘लघु औजार’ आदि नामों से पुकारा जाता है।
मध्य पाषाणकालीन संस्कृति के केन्द्र : मध्य पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष अनेक स्थानों पर मिले हैं। पश्चिम में पेशावर के निकट जमालगढ़ी में मध्य पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। इसके अतिरिक्त राजस्थान में बाड़मेर जिले के तिलवाड़ा, पंचपंद्रा नदी घाटी, सोजत, भीलवाड़ा के बागौर और झालावाड़ में, गुजरात में अवाज, बलसाना, हिरपुर, लंघनाज, पावागढ़, जेतपुर, रोजदी, डोकरा, नाला, मोहम्मदपुरा, महादेविया आदि में, मध्यप्रदेश में जावद, नीमच, उज्जैन, इन्दौर, मोरटक्का, रामगढ़, आमला, आदमगढ़, पुजापुरा, भोलपाल, भीमबेटका, रायसेन एवं रामपुरा आदि में मध्यपाषाणकाल की सामग्री मिली है।
इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में सराय नाहरराय, कुरहा, मोरहाना पहाड़ और लेखहिया में, महाराष्ट्र में होगद्वीप, कासू शोआल, जनयीरा, दामलगो, जालगढ़, यरांगल, काँदिविली, धूलिया, पूणे, महाबलेश्वर तथा सह्याद्रि पर्वतमाला में, बिहार में सिंहभूम और नागपुर पठार क्षेत्र में, उड़ीसा के मयूरभंज, केऊंझर और सुन्दरगढ़ में, बंगाल में वीरभानपुर में, मेघालय के शैवालगिरि में, दक्षिण में कृष्णा और भीमा नदी के बीच शोरापुर दोआब, कर्नाटक में संगनकल्लू, गोदावरी के मुहाने पर, आन्ध्रपदेश के कर्नूल जिले में, चितूर जिले के रेनीगुटा में तथा तमिलनाडु के तिरुवेलवेली में अनेक स्थानों पर अवशेष मिले हैं।
उपर्युक्त स्थलों में तिनेवली, आन्ध्र, गुजरात, काठियावाड़, मध्यप्रदेश, कच्छ तथा पंजाब अधिक उल्लेखनीय हैं। कर्नाटक में ब्रह्मगिरि में लघु औजार पृथ्वी के छोटा नागपुर, भीतर लगभग 2 मीटर नीचे मिले हैं। गुजरात में लंघनाज और हरिपुर की खुदाइयों में लघु औजार, बर्तन, पशुओं की हड्डियों के खण्ड और सात मानव अस्थिपंजर मिले हैं। मेश्मो नदी के तट पर स्थिर अमरमुख और कर्चला में छोटे औजारों के बनाने के कारखानों का पता चला है। माही नदी की घाटी में भी लघु औजार प्राप्त हुए हैं। वरोडा में विश्वामित्री नदी के तट पर भी लघु औजारों का एक भण्डार मिला हैं ।
होशंगाबाद के आदमगढ़ से लगभग 25 हजार लघु-पाषाण औजार प्राप्त हुए उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर से लघु- पाषाण औजारों के अतिरिक्त 17 मानव अस्थिपंजर मिले हैं। हैं। प्रतापगढ़ जिले के सराय नाहराय में बड़ी संख्या में लघु-पाषाण औजार, हड्डियों के औजार, 8 गर्त चूल्हे और 14 मानव अस्थिपंजर मिले हैं। महरहा (इलाहाबाद) में भी लघु-पाषाण औज़ार, हथौड़े, शवाधान और गर्त चूल्हे प्राप्त हुए हैं।
मध्य पाषाणकालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ
मध्य-पाषाणकालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-
1. औजार और हथियार : मध्य पाषाणकाल के औजार बहुत छोटे आकार के हैं। ये 1/2 से 3/4 ” तक के होते थे और किसी हैण्डिल में फिट करके प्रयुक्त किये जाते थे। अत्यधिक छोटे होने के कारण ये औजार ‘लघु-पाषाण उपकरण’ ‘माइक्रोलिथ ‘ (Microlith) के नाम से पुकारे जाते हैं। डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय लिखते हैं कि उपलब्ध ‘माइक्रोलिथ’ उपकरणों में फलक (Blade ), नुकीले हथियार (Point), खुरचने वलो औजार (Scraper), उत्तकीर्णक (Engraver), त्रिभुज (Triangle), अर्द्धचन्द्र (Crescent ), समलम्ब (Trapeze) विशेष उल्लेखनीय हैं। ये सब जैस्पर, फ्लिण्ट, एगेट, चर्ट, कोर्नलिअन, क्वार्टज और कल्सेडोनी आदि से बनाये जाते थे । परन्तु इन माइक्रोलिथ के काल के विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है । ब्रूसफूट महोदय इन्हें उत्तर-पाषाणकाल के साथ सम्बद्ध करते हैं। डिटेरा, टाड, गार्डन आदि विद्वान इन्हें प्रोटो- निओलिथिक कोटि में रखते हैं । वास्तव में ये माइक्रोलिथ मध्य-पाषाणकाल के नहीं हैं, परन्तु मध्य- पाषाणकाल के बाद भी उनकी परम्परा चलती रही। इसीलिए उनका काल निर्धारण करना बड़ा कठिन है।
2. औजारों के प्रयोजन : इन औजारों के निम्नलिखित प्रयोजन थे-
(i) स्क्रेपर : इनका प्रयोग खाल को खुरचने के लिए किया जाता था।
(ii) डिस्क : ये मार करने के काम आते थे।
(iii) ब्लेड : इनसे तीरों की पैनी नोंक बनाई जाती थी ।
(iv) प्वाइन्ट : ये विभिन्न वस्तओं में छेद करने के काम आते थे।
(v) कोर ब्लेड : ये काटने के काम आते थे।
(vi) लूनेट : लूनेट भी काटने के काम आते थे।
(vii) हार्पून हेड : यह हड्डी अथवा लकड़ी की दरार में गाड़ दिया जाता था।
3. निवास स्थान : समस्त साक्ष्यों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि भारतवर्ष के मध्य-पाषाणकालीन लोग छोटी-छोटी पहाड़ियों पर रहते थे । बेलन घाटी तथा भीमबेटका की पहाड़ियों में शैलाश्रय (Rock – Shelters) मिले हैं जिनमें मनुष्य रहते थे।
4. भोजन : इस युग के लोग कृषि कर्म और पशु-पालन से अनभिज्ञ थे। इन लोगों का प्रमुख उद्यम आखेट था। ये लोग गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, मछली, घड़ियाल आदि से परिचित थे। आखेट में मारे गए पशु-पक्षियों का माँस तथा नदियों और झीलों के तटों पर पकड़ी गई मछलियों तथा वन से प्राप्त फल-फूल और कन्द-मूल उनकी उदरपूर्ति के साधन थे। चूल्हों की प्राप्ति से ज्ञात होता है कि इस युग के लोग मांस को पकाकर खाते थे।
5: धार्मिक क्रियाएँ : मध्य पाषाणकाल में मनुष्य ने शवों को दफनाना शुरू कर दिया था। उत्खनन में अनेक अस्थिपंजर मिले हैं। इनमें से कुछ के सिर पूर्व की ओर तथा कुछ के पश्चिम की ओर हैं। अस्थिपंजरों के साथ अनेक प्रकार की पाषाण – सामग्री भी मिली है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि मध्य पाषाणकालीन मनुष्य ने दफन से संबंध रखने वाली किसी अनुष्ठानमूलक विशिष्ट पद्धति का विकास कर लिया होगा। यह भी संभव है कि इस काल के मनुष्य में लोकोत्तर जीवन के विषय में भी किसी प्रकार की भावना का बीजारोपण हुआ हो। अनेक स्थलों पर मानव अस्थिपंजर के साथ कुत्ते के अस्थिपंजर भी प्राप्त हुए हैं। सम्भव है कि मनुष्य के इस प्राचीन साथी का भी कुछ धार्मिक महत्व रहा हो ।
6. कन्दरा कला ( Rock Art) : वर्षा ओर वायु के सामूहिक प्रभाव से अनेक पर्वतमालाएँ अनेक स्थलों पर कट गई हैं और उनके बीच कन्दरायें बन गई हैं। प्राचीन मनुष्य इन्हीं कन्दराओं में रहते थे। अनेक कन्दराओं में तत्कालीन युग के मनुष्यों द्वारा अंकित किए गए चित्र उपलब्ध हुए हैं। विन्ध्याचल की पहाड़ियों में भीमबेटका में कन्दरा-चित्रकला का सबसे बड़ा भण्डार मिला है। यहाँ की लगभग 500 गुफाओं में तत्कालीन युग के लोगों अंकित किये गये हजारों चित्र प्राप्त हुए हैं।
भीमबेटका की चित्रकला की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें मानव जीवन के प्रा सभी पक्षों को चित्रित किया गया है। इनमें शिकार के पूर्व का नृत्य, मनोरंजन के नृत्य गर्भवती महिला, गर्भवती गाय, गेंडे का शिकार, मुखौटों में नृत्य, मुखौटों में शिकार आदि से संबंधित चित्र उल्लेखनीय हैं।
अलमोड़ा के समीप दलबन्द की गुफाओं में भी अनेक चित्र प्राप्त हुए हैं। प्रो. नेमीशरण मित्तल ने लिखा है कि “दलबन्द के शैलचित्रों में पक्षियों और वनस्पति के चित्रण के साथ ही एक चित्र ऐसा है जिसमें दो वयस्क और दो बालक पाँव-से-पाँव और हाथ से हाथ मिलाये आगे-पीछे कतार में चलते हैं। ” प्रो. मित्तल के मतानुसार यह चित्र परिवार की एकता और सुबद्धता का प्रतीक है, दोनों वयस्क पति-पत्नी हैं और दो बालक उनकी संतान हैं।
यहाँ से एक अन्य चित्र भी मिला है जिसमें एक ऐसे मनुष्य का चित्रण किया गया है जिसके बायें हाथ में एक अर्द्ध-गोलाकार आकृति है जिसे सूर्य, चन्द्र अथवा ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना जा सकता है । उसका दूसरा हाथ कुहनी तक पृथ्वी के समानान्तर और उसके बाद कुहनी से उसके सिर की ओर मुड़ा हुआ है तथा सिर बायीं ओर को थोड़ा सा सामने झुका है। प्रो. मित्तल के मतानुसार यह चित्र प्रस्तर – कालीन मानव की विश्व-कल्पना का प्रतीक है तथा रहस्यात्मकता का आभास देता है।
इसके अतिरिक्त होशंगाबाद, पंचमढ़ी, सिंघनपुर, कबरा पहाड़, सोनघाटी, मानिकपुर आदि स्थलों की गुफाओं में भी अनेक शैलचित्र मिलें हैं, परन्तु ये पूर्वेतिहासिक प्रतीत नहीं होते। कुछ विद्वान इन चित्रों को प्रतिहासिक मानते हैं, परन्तु यह मत न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता ।
Tag : मध्य पाषाणकालीन संस्कृति, मध्य पाषाणकालीन काल, मध्य पाषाणकालीन काल की प्रमुख विशेषताएँ, मध्य पाषाणकालीन काल भारत में, मध्य पाषाणकालीन काल के औज़ार, मध्य पाषाणकालीन संस्कृति की खोज, मध्य पाषाणकालीन काल का महत्व, मध्य पाषाणकालीन काल का मानव जीवन, मध्य पाषाणकालीन समाज, मध्य पाषाणकालीन धर्म, मध्य पाषाणकालीन कला, मध्य पाषाणकालीन गुफा चित्र, मध्य पाषाणकालीन काल का आवास, मध्य पाषाणकालीन खानाबदोश जीवन, मध्य पाषाणकालीन काल की सामाजिक संरचना, मध्य पाषाणकालीन काल में परिवार, मध्य पाषाणकालीन काल की आर्थिक गतिविधियाँ, मध्य पाषाणकालीन काल की कृषि, मध्य पाषाणकालीन काल का पशुपालन, मध्य पाषाणकालीन काल में शिकार, मध्य पाषाणकालीन काल में मछली पकड़ना, मध्य पाषाणकालीन काल में संग्रह, मध्य पाषाणकालीन स्थल, भीमबेटका गुफा चित्र, मध्य पाषाणकालीन स्थल राजस्थान, मध्य पाषाणकालीन स्थल मध्य प्रदेश, मध्य पाषाणकालीन स्थल उत्तर प्रदेश, मध्य पाषाणकालीन स्थल बिहार, मध्य पाषाणकालीन स्थल झारखंड, मध्य पाषाणकालीन स्थल दक्षिण भारत, मध्य पाषाणकालीन काल की जलवायु, मध्य पाषाणकालीन काल का पर्यावरण, मध्य पाषाणकालीन संस्कृति का विकास, मध्य पाषाणकालीन काल का संक्रमण काल, मध्य पाषाणकालीन काल के उपकरण, मध्य पाषाणकालीन उपकरणों का महत्व