प्रश्न- प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के विभिन्न स्रोतों का वर्णन करें।
प्राचीन भारतीय इतिहास के विविध स्रोत हैं। यद्यपि प्राचीन भारतीयों में इतिहास- लेखन की वैसी श्रृंखलाबद्ध परम्परा नहीं थी, जैसा हम प्राचीन यूनान या रोम में पाते हैं, तथापि प्राचीन भारत में विभिन्न विषयों से सम्बद्ध अनेक ऐसे ग्रंथ की रचना हुई, जो प्राचीन इतिहास की जानकारी उपलब्ध कराते हैं। इन ग्रंथों की विषयवस्तु, धर्म, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन और प्रशासनिक व्यवस्था आदि नीतिशास्त्र से संबद्ध है। अनेक काव्यों, महाकाव्यों और नाटकों की भी रचना प्राचीन भारत में हुई, जो तत्कालीन अवस्था की जानकारी प्रदान करते हैं। साहित्यिक स्रोतों के अतिरिक्त पुरातात्विक साधनों से भी हमें प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है।
प्राचीन भारत के प्राप्य साधनों को सुविधा के लिए दो भागों में बाँटा जा सकता है— साहित्य और पुरातात्त्विक । साहित्यिक साधन के भी भेद हैं-धार्मिक तथा लौकिक । धार्मिक साहित्य को ब्राह्मण और अब्राह्मण ग्रंथ में बाँट सकते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मण ग्रंथ के भी दो भेद हैं— श्रुति और स्मृति |
साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)
1. वेद : आर्यों का प्राचीनतम ग्रंथ वेद है। वेद चार है— ऋग, साम, यजु तथा अथर्वेद । चारों में इतिहास की सामग्री मिलती है। पर ऋग्वेद इसमें अधिक महत्वपूर्ण है। यह सबसे पुराना है। इससे आर्यों की प्राचीनतम स्थिति का पता चलता है। वैदिक ग्रंथों तथा संहिताओं की गद्य-टीकाओं को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है । इनके द्वारा प्राचीन राजाओं के राज्याभिषेक एवं उनके नाम का ज्ञान प्राप्त होता है । ब्राह्मणों में एतरेय प्रमुख है। इतिहास का सुप्रसिद्ध राजा परीक्षित तथा उससे काफी बाद तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान मिलता है। उपनिषद भी कई हैं। उसमें बिम्बिसार के पूर्व तक के इतिहास के साथ-साथ प्राचीन आर्यों के आध्यात्मिक विकास का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है।
2. वेदांग : कालान्तर में वैदिक अध्ययन के निमित्त विशिष्ट विद्याओं की शाखाओं का जन्म हुआ जो वेदांग के नाम से विख्यात हैं। वेदांग छ: हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । इनसे प्राचीन धर्म समाज का पता चलता है।
3. रामायण एवं महाभारत : वैदिक साहित्य के पश्चात् भारतीय इतिहास के दो स्तम्भ – रामायण एवं महाभारत का आविर्भाव होता है। रामायण से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारत के अध्ययन से ही आर्यों तथा यवनों एवं शकों के संघर्ष का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारत के रचयिता व्यास हैं। किन्तु बाद में इसके तीन संस्कार हुए – जय, भारत, महाभारत। महाभारत पुराने जमाने के धर्म, राजनीति एवं समाज पर प्रकाश डालता है । पर इसमें तिथिक्रमानुसार इतिहास का सर्वथा अभाव है और कल्पित कथा रहने से भी इतिहास निकालना कठिन हो जाता है । फिर भी यह मानना होगा कि दोनों महाकाव्य तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का निश्चय ही ज्ञान देते हैं। इसमें आर्य एवं द्रविड़ संस्कृतियों के समन्वय का भी ज्ञान प्राप्त होता है।
4. पुराण एवं स्मृतियाँ : इसके बाद पुराण आते हैं। इसकी संख्या 18 है। रचना का श्रेय सूतलेलहर्षण अथवा उसके पुत्र उपश्रवा को दिया गया है। इसमें साधारणतया पाँच विषय के बारे में लिखा गया है-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मनवन्तर तथा वंशानुचरित्रा इतिहास के लिए आखिरी का ही विशेष महत्व है। पुराणों में नंद, मौर्य, शुंग, कण्व, आध तथा गुप्तवंशों की वंशावलियाँ प्राप्त होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों में प्राचीनकाल से लेकर गुप्तकाल तक का इतिहास मिलता है। स्मृतियों का भी इतिहास के लिए काफी महत्व है । जैसे – मनु, विष्णु, नारद, वृहस्पति आदि स्मृतियाँ तत्कालीन समाज एवं धर्म का अच्छा बोध कराती है। दूसरी शताब्दी से 7वीं शताब्दी में जो विभिन्न सामाजिक और धार्मिक उथल- पुथल हुए उसका सम्पूर्ण ज्ञान इसमें जमा है।
5. अब्राह्मण साहित्य : साहित्यिक सामग्री का दूसरा महत्वपूर्ण अंग अब्राह्मण साहित्य है। जैन ग्रंथ तो पूर्णतया धार्मिक है। इनसे भी भारतीय इतिहास की सामग्री मिलती है। बौद्धों ने भी अपार साहित्य की रचना की है। इसमें सूत, विजय अभिधम्मा, त्रिपिटक का काफी महत्व है। इसमें बौद्ध संघों के संगठन के पूर्ण विवरण और उस समय की राजनीतिक दशाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है । बौद्ध ग्रंथों में जातक का दूसरा स्थान है। इसकी संख्या 549 है। इसमें तीसरी सदी ई०पू० की सभ्यता के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। ये मौर्य वंश के इतिहास के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं। मिलिन्दपन्हों एक अन्य पालि ग्रंथ है। इससे उस समय की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं व्यापारिक दशा पर प्रकाश पड़ता है। इसी प्रकार ‘दिव्यदान’ से अशोक एव उसके उत्तराधिकारियों के विषय में बहुत अधिक जानकारी प्राप्त होती है।
6. लौकिक साहित्य : धार्मिक साहित्य के अलावे लौकिक साहित्य से भी इतिहास का काफी ज्ञान होता है। कई ऐतिहासिक ग्रंथ है जिनमें राजाओं और उनके शासन का वर्णन मिलता है। “राजतरंगिनी” को यदि भारतवर्ष का प्रथम महाग्रंथ कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। इसकी रचना 1149 ई० में हुई थी। काश्मीर के सभी राजाओं का वर्णन “राजतंरिगनी” में क्रमानुसार दिया गया है।
7. अर्द्ध- ऐतिहासिक ग्रंथ : कुछ अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रंथ भी है जिनका प्रकट उद्देश्य इतिहास तो नहीं है किन्तु उनकी रचना – शैली ऐतिहासिक होने के कारण उनमें ऐतिहासिक घटनाओं की झलक मिलती है। इनमें पाणिनी का ” अष्टाध्यायी” है तो एक ब्राह्मण ग्रंथ होते हुए भी मौर्यों के पहले और बाद की राजनीतिक दशा पर प्रकाश डालता है। “मुद्राराक्षस’ नाटक में विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के गद्दी पर बैठने के संघर्षों, कठिनाईयों और उसके दण्ड- विधान की कठोरता पर अच्छा प्रकाश डालता है।
8. जीवनियाँ : जीवनियों से भी काफी इतिहास मिलता है। यों तो उनको लिखने का असली उद्देश्य था आश्रयदाता राजाओं का गुणगान करना फिर भी उससे ऐतिहासिक सामग्री मिली है । वाणभट्ट का लिखा हुआ “हर्षचरित’ हर्ष के प्रारम्भिक जीवन एवं दिग्विजयों का वर्णन है। आनन्दमय का “बल्लाल चरित्र” सेन वंश का इतिहास प्रकाशित करता है। इसी प्रकार “पृथ्वीराज चरित’ के रचयिता चन्दवरदाई, कुमारपाल के रचयिता जयसिंह आदि ने भी इतिहास को कुछ सामग्री दी है। कुछ ग्रंथ रचे गए थे आत्मसंतोष के लिए किन्तु उनसे इतिहास निखर उठा । इन ग्रंथों में हर्ष के तीन नाटक-नागानन्द, रत्नवाली एवं प्रियदर्शिका का कालिदास के कई नाटकों का अध्ययन कर सकते हैं । इनसे इतिहास का अच्छा परिचय मिलता है।
9. विदेशियों की देन : भारतीय इतिहास की सामग्रियों को जुटाने में विदेशी यात्रियों, धर्म की खोज में घूमने वाले विद्यार्थियों और इतिहासकारों का भी काफी सहयोग रहा है। सिकन्दर के पहले स्काईलास, हेरोडोटस तथा थेसियस आदि कई यूनानी लेखकों के विवरण हैं जिनमें भारतवर्ष, उसके रीति-रिवाज, रहन-सहन वगैरह का प्रनुर उल्लेख किया गया है। सिकन्दर के बाद मेगास्थनीज आदि कई यूनानी राजदूत आये और उन्होंने उस जमाने के
समाज और राजनीति पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है। चीनियों में पहला इतिहासकार शुभासीन था जिसने भारत के इतिहास पर कुछ प्रकाश डाला है। फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग आदि तो भारत में बौद्ध धर्म के ज्ञान प्राप्ति के लिए आये थे, किन्तु इनका वर्णन यहाँ की शासन व्यवस्था पर और साहित्य के विकास पर अच्छा प्रकाश डालता है। मुसलमान भी इस होड़ में पीछे न रहे। मुस्लिम लेखकों में सर्वश्रेष्ठ था – अलबेरूनी, जिसके समान भारतीय सभ्यता, संस्कृति और कला – कौशल में रूचि रखने वाला शायद कोई दूसरा विदेशी नहीं था। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में अलबेरूनी ने जितना लिख दिया है उसका शतांश भी प्रमाणिक ढंग से राजनीति पर यदि कुछ लिखा गया होता तो उस पुस्तक का स्थान आज भारतीय इतिहास के अन्य ग्रंथों से कहीं ऊँचा होता ।
पुरातात्विक सामग्री (Archaeological Sources) : साहित्यिक सामग्री की भाँति पुरातात्विक सामग्री को भी तीन भागों में बाँटा जा सकता है—अभिलेख, स्मारक और मुद्राएँ।
(A) अभिलेख (Inscriptions ) : जहाँ हर प्रकार के साधन शिथिल पड़ जाते हैं वहाँ इन अभिलेखों के द्वारा ही कुछ इतिहास जाना जा सकता है। प्राचीन भारत के शिलाओं, धातुओं, गुफाओं आदि पर जो लिख दिया है वह अमिट है। किन्तु दुर्भाग्यवश अशोक से पहले का कोई अभिलेख प्राप्त नहीं होता है। अशोक के बाद से तो इसका बाहुल्य देखते हैं। इसके दो भाग हैं- देशी तथा विदेशी अभिलेख ।
(i) देशी अभिलेख : भारत के देशी अभिलेखों का आरम्भ अशोक काल में होता है। जनता जनार्दन को कष्टों से मुक्त करने के लिए, सुन्दर मार्ग पर लाने के लिए तथा राजा और प्रजा के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए सम्पूर्ण राज्य के कोने-कोने को स्तम्भों तथा शिलाओं का जाल बिछा दिया गया, जिससे अशोककालीन सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। इसी प्रकार समुद्रगुप्त की प्रशस्तियों से उसके दिग्विजयों का वर्णन मिला है। हाथीगुफा का अभिलेख खरला राजाओं पर पूर्ण प्रकाश डालता है।
(ii) विदेशी अभिलेख : असंख्य देशी अभिलेखों के अलावे कुछ विदेशी अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं। जो हमारे इतिहास पर प्रचुर प्रकाश डालते हैं। इनमें एशिया माईनर के ‘बोगजकोई’ के लेख हैं जिसमें वैदिक देवताओं का उल्लेख किया गया है। आर्यों के आक्रमण का बोध इस अभिलेख से होता है। पोर्सिपोलस और ईरान के अभिलेखों से भारत और ईरान के पारस्परिक सम्बन्धों का बोध होता है।
(B) स्मारक : प्राचीन स्मारक जो आज धरती के नीचे उत्खनन में प्राप्त किये गये हैं, तथा जो धरती पर आज भी खड़े मिलते हैं, इनसे इतिहास पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। इसका जीता-जागता उदाहरण विभिन्न प्रकार के नये भवन, राज प्रसाद, सार्वजनिक हॉल, विहार, मठ, चैत्य, स्तुप, समाधि, मूर्ति, चित्रकारी आदि असंख्य वस्तुओं से मिलता है जो अपने मूलरूप में या भग्नावशेष रूप में पिछले इतिहास को प्रकाशित करते हैं। इनकी संख्या भी दो है— देशी स्मारक और विदेशी स्मारक ।
(i) देशी स्मारक : मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाइयों ने हमारे सामने हजारों वर्ष पीछे का इतिहास उपस्थित कर इतिहास में एक नया परिच्छेद जोड़ दिया है। इसी तरह दक्षिण में अंगदी, लक्ष्मणेश्वर, वनवासी, पतंदकाल, चित्तलदुर्ग आदि खुदाईयों से जो सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं उनसे भारत का धार्मिक इतिहास बहुत कुछ आभाषित होता है। खुदाईयों के अतिरिक्त धरती पर अनेक मंदिर एवं मूर्तियाँ आदि पड़ी हुई हैं जो प्राचीन स्मारक के रूप में यहाँ की धार्मिक प्रवृत्तियों, कला-कौशल एवं वाणिज्य-व्यवसाय पर प्रकाश डालती है। झाँसी का देवगढ़ मंदिर, नालन्दा में बुद्ध की मूर्ति कला स्पष्ट रूप से इतिहास के रिक्त अंग की पूर्ति करते हैं।
(ii) विदेशी स्मारक : विदेशी स्मारकों से भी प्राचीन भारत के इतिहास पर प्रकाश डालता है। जावा में डीडापठार का शिव मंदिर, कानों पर्वत पर एक भग्न वैष्णव मंदिर आदि ये सभी प्राचीन विदेशी स्मारक भारतीय संस्कृति एवं धर्म के प्रसार के द्योतक हैं।
(C) मुद्राएँ (Numismatics) : प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में मुद्राओं अथवा सिक्कों से भी बड़ी सहायता मिलती है। वास्तव में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी तक के इतिहास की जानकारी के मुख्य स्रोत सिक्के ही हैं। हिन्द-यूनानी शासकों के बारे में भी हमें मुद्राओं से जानकारी मिलती है। गुप्तकालीन सिक्कों से गुप्त शासकों की शासन व्यवस्था, उनके वैयक्तिक गुणों एवं उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों की जानकारी मिलती है।
(D) मुहरें : सिन्धु क्षेत्र से अनेक मुहरे प्राप्त हुई हैं जो तत्कालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। अधिकांश मुहरों पर किसी न किसी पशु की आकृति एवं उनकी लिपि में लेख मिलते हैं। एक मुहर पर पशुपति शिव की मूर्ति उत्कीर्ण हैं। इससे ज्ञात होता है कि सैन्धव लोग शिव की पूजा करते थे। बसाढ़ (प्राचीन वैशाली) से अनेक मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुई है जिनसे ज्ञात होता है कि उस समय ‘श्रेणी’ (व्यापारिक संगठन) अस्तित्व में थी ।
(E) कलाकृतियाँ : प्राचीन काल की अनेक मूर्तियाँ भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन कला, धर्म, संस्कृति, वेशभूषा, आभूषणों आदि के बारे में जानकारी मिलती है । सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त शिव की मूर्तियों से यह अनुमान लगाया जाता है कि सैन्धव लोग शिव की उपासना करते थे। गुप्त काल की वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध धर्म की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जिनसे तत्कालीन मूर्ति कला की उत्कृष्टता पर प्रकाश पड़ता है। इनसे यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में लोगों में धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं की भी जानकारी मिलती है। अजन्ता एवं बाघ की गुफाओं में निर्मित भित्ति चित्रों से समकालीन कला एवं संस्कृति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
(F) मिट्टी के बर्तन, आभूषण एवं उपकरण : भारत के विभिन्न क्षेत्रों में खुदाई में मिट्टी के बर्तन, पाषाण एवं धातु उपकरण, आभूषण आदि प्राप्त हुए हैं। इनके अध्ययन से उस युग की कला पर प्रकाश पड़ता है । सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त ताम्र और कांस्य के सुन्दर बर्तन तत्कालीन कला का बोध कराते हैं। इनसे तत्कालीन कला और संस्कृति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।