पल्लव कौन थे ? पल्लव शासन पद्धति का वर्णन करते हुए कला, धर्म एवं साहित्य के विकास का वर्णन करें ।PDF DOWNLOAD

पल्लव कौन थे : पल्लव कौन थे और उनका मूल क्या था, इस संबंध में इतिहासज्ञों में मत – भिन्नता है। डॉ० वी० स्मिथ उसको पार्थियन कहते हैं । वेनकटया महोदय ने स्मिथ साहब के इस विचार का अनुमोदन किया है। लेकिन इस संबंध में डॉ० राइन का विचार कुछ दूसरा ही है। उनका कथन है कि पल्लव -नरेशों का समीकरण पल्लवों के साथ किया जाना चाहिए । लेकिन आधुनिक इतिहासकार उपर्युक्त तथ्यों को एकदम नहीं मानते और कहते हैं कि पल्लव लोग विदेशी थे। उनका दूसरा विचार यह है कि “पल्लव चोल नागों की सम्मिलित प्रसृति है ।” इस विषय पर डॉ० कृष्ण स्वामी आयंगर का यह विचार है कि उन्हे संगम साहित्य में तोण्डयैर कहा गया है। वे लोग आन्ध्र सातवाहनों के मण्डीलीय नृपति थे। एक दूसरे विद्वान डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल ने पल्लवों को वाकाटकों की शाखा और बुद्धजीवी ब्राह्मण स्वीकार किया है। पल्लवों का अपने को द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा की संतान मानना आदि बातों की जायसवाल साहब के मत से पुष्टि हो जाती है। अतः स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि पल्लव ब्राह्मण थे अथवा क्षत्रिय । शुरु में ये लोग ब्राह्मण थे, परन्तु युद्धों में भाग लेते रहने से क्षत्रिय भी कहला सकते हैं। कुछ भी हो, पल्लव लोग विदेशी नहीं थे। 

पल्लवों की शासन पद्धति : सुदूर दक्षिण में पल्लवों का राज्य था जो लगभग सात शताब्दियों तक कायम रहा । इस लम्बी अवधि में उन्होंने शासन, राजनीति कला, धर्म और साहित्य तथा संस्कृति के क्षेत्र में पूर्णरूपेण उन्नति की । उनकी शासन पद्धति के निम्नलिखित तत्व अत्यधिक प्रमुख थे : 

1. राजा : पल्लव शासन का केन्द्र राजा होता था। राज्य का प्रधान राजा था। राजा धर्मराज भी कहलाता था। वह सर्वाधिक सम्पन्न होता था । 

2. राजा के सहायक : राजा अपने शासन कार्यों में मंत्रियों से सहायता लेता था । उसके मंत्रियों को रहस्यादिकता भी कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए प्रांतीय गवर्नर तथा अन्य अमात्यगण थे। इन मंत्रियों को स्नानागार, अरण्यों और उद्यानों – स्नानागारों से संबंधित कार्यो को सौंपा जाता था। राजा का व्यक्तिगत सचिव (Private secretary) भी होता था, जो राजा की आज्ञाओं को कागज पर लिखता था । 

3. कर्मचारीगण : मौर्य और गुप्त शासन प्रणाली की भाँति पल्लवों के शासन में भी नागरिक और सैन्य अधिकारियों का एक वर्ग था। अतः पल्लव शासन पद्धति में शासन कार्य के लिए निम्नलिखित कर्मचारी मुख्य थे राजा, राजकुमारों, रहिकों (जिलाधीशों), प्रधान सदस्यों (चुंगी अफसर), स्थानीय अधिकारियों, विविध ग्रामों के स्वामी, मंत्रियों, रक्षकों, भूमिको (वन के अफसरों, दूतिकों और योद्धाओं ) इत्यादि । इनके अतिरिक्त स्नान की सुविधा देने वाले कर्मचारी को तीर्थक कहा जाता था । वेयक सेना का अधिकारी होता था । 

ग्राम शासन : ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम की एक सभा होती थी जो गाँवों का प्रबंध करती थी । पल्लवों के ग्राम शासन के अंतर्गत सभा, उद्यान, मंदिर तालाब एवं सार्वजनिक दान का भी प्रबंध करती थी । पल्लव – शासन काल में भूमि और सिंचाई की व्यवस्था बड़ी अच्छी थी। गाँवों की सीमाएँ निर्धारित थी । उपजाऊ जमीन और परती जमीन की माप का विवरण अलग-अलग रखा जाता था। ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी । कर की व्यवस्था सुन्दर थी। गाँव की जनता से 18 तरह के कर लिए जाते थे। जो शासन प्रबंध और प्रजा की भलाई में प्रबंध से मिलती जुलती है। इस संबंध में कृष्णास्वामी आयंगर का भी यही मत है। 

साहित्य की उन्नति : साहित्य के दृष्टिकोण से पल्लव शासन महत्वपूर्ण था, क्योंकि इस युग में साहित्य के क्षेत्र में काफी उन्नति हुई थी। संस्कृत को राजभाषा का पद प्राप्त थ। उसके अधिकतर अभिलेख संस्कृत में ही लिखे गए थे। पल्लव राजाओं के समय आलवार तथा आदियार आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। उनकी राजधानी काँची प्राचीन काल से ही विद्या संस्कृति का केन्द्र थी। बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग बौद्धिक तथा आध्यात्मिक चिन्तन के लिए- काँची में आया था। मयूर वर्मन ने भी यही आकर अपना बौद्धिक अध्ययन तथा मनन समाप्त किया था। पल्लव राजा विद्वानों का खूब आदर करते तथा साहित्यकारों तथा कवियों को वे तहेदिल से मदद करते थे। सिंह विपष्णु ने अपने राजभाषा में महाकवि भारवी को बुलाया था। नरसिंह वर्मन द्वितीय के समय अलंकार शास्त्री दंडिन उसके दरबार में रहा करते थे। महेन्द्र वर्मन प्रथम ने स्वयं “मत्तविलास प्रहसन ” की रचना की थी। भास और शूद्रक के नाटक पल्लव दरबार में संक्षिप्त किये थे। अंतः उस युग में साहित्य की काफी प्रगति हुई थी। 

धार्मिक दशा : पल्लव वंश के प्रायः सभी राजा शैव थे। लेकिन बौद्ध धर्म का भी खूब प्रचार था। चीनी यात्री हेनसांग जो नरसिंह वर्मन प्रथम के शासन काल में काँची आया था, उसने लिखा है कि काँची में संघारामों की संख्या लगभग एक हजार थी, जिसमें 10,000- भिक्षु निवास करते थे। यह सभी भिक्षुक महायान सम्प्रदाय के स्थायी शाखा के अनुयायी थे। उसने काँची के 80 देव मंदिरों का भी उल्लेख किया था । दिगम्बर जैनियों की संख्या खूब थी। अतः उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पल्लव शासकों ने सहिष्णुता का पालन किया था। लेकिन शैव धर्म के प्रचार से जैन धर्म का पतन हो गया था। 

आर्थिक दशा : हेनसांग ने लिखा है कि वहाँ की भूमि खूब उपजाऊ थी । वहाँ के लोग खूब मेहनती थे। खेतों में अधिक अनाज उपजता था। वहाँ के लोग अनेक तरह के फल-फूल को उगाते थे। उष्ण जलवायु के वजह से वहाँ के लोग साहसी थे । सत्यप्रियता तथा ईमानदारी से उन्हें प्रेम था। 

कला की उन्नति : पल्लव युग में वास्तुकला का खूब उन्नति हुई थी । तामिल देश के पाषाण काल का प्रयोग पल्लव काल से ही शुरू हुआ था। सर्वप्रथम त्रिचनापल्ली के दरी मंदिर, महाबलीपुरम के रथ मंदिर आदि उसी समय की उपलब्ध कलाएँ हैं। पल्लव काल की वस्तुकला की निम्नलिखित चार शैलियाँ मिलती हैं : (i) महामल्ल शैली, (ii) महेन्द्र वर्मन शैली, (iii) राजसिंह शैली, (iv) अपराजिता शैली। 

पहले कला में काष्ठ का प्रयोग होता था। बाद में अन्य वस्तुओं का भी प्रयोग होने लगा। कैलाशनाथ मंदिर पत्थर और चूने के द्वारा बनवाया गया था । महेन्द्रवर्मन ने ब्रह्मा, विष्णु ओर महेश का एक मंदिर बिना ईंट, चूने, लोहे और लकड़ी के बनवाया था। कैलाशनाथ मन्दिर की दीवारों को लक्षण चित्रों से अलंकृत किया गया था। पल्लवकालीन मन्दिरों की यह एक विशेषता थी कि उनमें राजाओं और रानियों की भी मूर्तियाँ रहती थी । नन्दी वर्मन द्वितीय ने काँची में मुक्तेश्वर मंदिर बनवाया । अतः इस तरह से हम देखते हैं कि पल्लव नरेशों को कला से विशेष रूचि थी। 

निष्कर्षतः यहाँ के सभी राजा वास्तु कला, संगीत कला, नृत्य कला, राज्य साहित्य तथा धर्म में विशेष प्रेम रखते थे। फलस्वरूप यहाँ की संस्कृति उन्नत थी। 


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