प्रश्न – न्याय स्वतन्त्रता तथा समानता में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित कीजिए ।
स्वतंत्रता और समानता दोनों का लक्ष्य एक न्यायपूर्ण स्थिति को प्राप्त करना है और इस दृष्टि से स्वतंत्रता और समानता को न्याय का महत्त्वपूर्ण अंग समझा जाता है। वैसे तो, स्वतंत्रता और समानता एक-दूसरे के पूरक हैं, लेकिन किसी विशेष स्थिति में इन दोनों के बीच टकराव उत्पन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए, ‘नागरिक स्वतंत्रता’ और ‘आर्थिक स्वतंत्रता’ के बीच जब टकराव की स्थिति उत्पन्न होगी, तब ऐसी स्थिति में संघर्ष के समाधान का कार्य न्याय की अवधारणा के आधार पर ही किया जाता है। अर्नेस्ट बार्कर ने लिखा है, “न्याय ही वह अंतिम सिद्धांत है जो स्वतंत्रता व समानता तथा इन दोनों के विविध दावों के बीच तालमेल उत्पन्न करता है।” स्वतंत्रता, समानता और न्याय के परस्पर संबंध का चित्रण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-
स्वतंत्रता और न्याय (Liberty and Justice) : व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। स्वतंत्रता का लक्ष्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और समाज के सामूहिक हित की साधना होता है। अतः व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के बीच आमतौर से कोई टकराव नहीं होता, लेकिन व्यवहार में कुछ परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जब समाज के सामूहिक हित में व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना पड़े। युद्धकाल या संकट की स्थिति में सरकार दुश्मन देश के विदेशियों या अपने देश के ऐसे नागरिकों को, जिनसे अपराध की आशंका हो, बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद कर देती है। प्रशासन द्वारा किए गए ऐसे कार्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरूद्ध हैं। ऐसी स्थिति में न्याय की माँग यह है कि व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से कम-से-कम समय के लिए वंचित किया जाए और जैसे ही संकट समाप्त हो, स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंध हटा दिए जाएँ। राष्ट्रीय संकट के अलावा अन्य स्थितियों में भी नागरिक शक्तियों को सीमित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में न्याय की माँग है कि राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अपेक्षा सामूहिक हितों को अधिक महत्त्व दे। न्याय की माँग है कि स्वतंत्रता समाज के किसी एक वर्ग या कुछ विशेष व्यक्तियों को नहीं, वरन समस्त मानव समुदायों को प्राप्त हो । न्याय का सिद्धांत स्वतंत्रता को व्यापक बनाने पर बल देता है और इस दृष्टि से स्वतंत्रता पर प्रतिबंध न्यायसंगत है।
समानता और न्याय (Equality and Justice ) : न्याय का सिद्धांत समानता के सिद्धांत की भी पूरक है और इस बात की यह माँग करता है कि समानता के सिद्धांत को न्यायसंगत रूप में लागू किया जाना चाहिए। समानता की माँग है कि सभी नागरिकों को बराबर-बराबर अधिकार प्राप्त हों और उनके कर्तव्य भी एक जैसे हों। उदाहरण के लिए, राज्य को अपने सभी नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में समान सुविधाएँ देनी चाहिए। अतः न्याय की माँग है कि सदियों से सताए गए लोगों के विकास के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान करने पर ही वे समानता का उपभोग कर सकते हैं। इस रूप में न्याय का सिद्धांत वास्तविक अर्थ में समानता की प्राप्ति का मार्ग बताता है।
न्याय : स्वतंत्रता और समानता की प्राप्ति का साधन : स्वतंत्रता और समानता आज के जीवन के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं। इन्हें अपनाना आवश्यक है। लेकिन, व्यवहार में स्वतंत्रता और समानता के बीच टकराव की स्थिति खड़ी हो सकती है। श्रमिकों द्वारा अधिक मजदूरी की माँग करते हुए हड़ताल, पूँजीपतियों द्वारा की गई उद्योगों की तालेबंदी, प्रशासन द्वारा लागू की गई निवारक निरोध कानून की व्यवस्था और दलित वर्गों को उनके विकास के लिए दी गई विशेष सुविधाएँ ऐसी ही स्थितियाँ हैं। न्याय का सिद्धांत इस बात की माँग करता है कि ऐसी प्रत्येक स्थिति में संपूर्ण समाज के हित को ही सर्वोपरि समझा जाए। स्वतंत्रता और समानता के प्रसंग मेँ उत्पन्न होनेवाली ऐसी दुविधापूर्ण समस्याओं का समाधान न्याय के सिद्धांत के आधार पर ही संभव है। प्रो० अर्नेस्ट बार्कर ने लिखा है, “न्याय का सिद्धांत न सिर्फ व्यक्ति व व्यक्ति के बीच ही समन्वय पैदा करता है, बल्कि विभिन्न सिद्धांतों के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने का भी साधान है। ”