न्याय के कानूनी, राजनीतिक एवं सामाजिक पहलू का वर्णन करें। 

न्याय एक ऐसी जटिल अवधारणा है जिसके कई पक्ष अथवा क्षेत्र हैं, जो आपस में घनिष्टत: सम्बंधित हैं। न्याय के मुख्य पहलू हैं-कानूनी, राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक पहलू। न्याय के इन पहलुओं में कानूनी पहलू अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

न्याय का कानूनी क्षेत्र अथवा पहलू 

(Legal dimensions of Justice) 

कानून न्याय की स्थापना का एक साधन है अत: न्याय और कानून एक दूसरे के घनिष्टतः सम्बद्ध हैं। कानून का उद्देश्य ही है न्याय की स्थापना । सालमण्ड के अनुसार “कानून राज्य द्वारा मान्यताप्राप्त कार्यान्वित किये जाने वाले वे नियम हैं, जो न्याय को प्रभावित करने के लिए होते हैं।” इसी प्रकार ऑगस्टाइन ने कहा है “यदि न्याय को पृथक कर लिया जाय तो राज्य एक लुटेरे की संपत्ति के अलावा और कुछ नहीं है।” “Ifyou take away Justice, Kingdoms are nothing but robber’s posession.” अभिप्राय यह है कि सत्ता का आधार ही न्याय हैं। 

अध्ययन के दृष्टिकोण से न्याय के कानूनी क्षेत्र को दो उपक्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है जैसे—(1) न्यायपूर्ण कानून का निर्माण (Making of just laws) और (2) कानून के अनुरूप न्याय (Justice according to law). न्यायपूर्ण कानून के निर्माण के अभिप्राय हैं, ‘न्याय पर आधारित कानून।’ अतः हर उत्तम कानून को अवश्य ही न्यापूर्ण होना चाहिए । राज्य न्याय की स्थापना हेतु कानून का निर्माण करता है और न्याय की स्थापना में उसकी सहायता के लिए सामान्य कानून या परम्पराओं का सहारा लेता है। बार्कर के अनुसार .. कानून “राज्यसत्ता कानून को वैधता प्रदान करता है और न्याय इसे मूल्य प्रदान करता है।.. चूँकि मूल्य रखता है इसलिए मैं इसका पालन केवल वैधानिक रूप या बाहरी शक्ति के भय से नहीं बल्कि नैतिक रूप में और आंतरिक शक्ति से प्रेरित होकर करता हूँ। यदि उसमें न्याय के गुण निहित हैं। 

कानून के अनुसार न्याय (Justice according to law) का अभिप्राय यह है कि समाज में न्याय की स्थापना हेतु कानून को न्यायपूर्ण तरीके से लागू किया जाना आवश्यक है। ‘कानून के अनुसार न्याय’ की अवधारणा पर आधुनिक न्यायिक परम्परा में विशेष बल दिया जाता है। अरस्तू ने कानून की सरकारों की चर्चा करते हुए बताया है कि सामाजिक व्यवस्था को न्यापूर्ण बनाने में कानून का प्रयोग किस रूप में होना चाहिए। कानून के शासन (Rule of law) के सिद्धांत का जन्म और विकास ब्रिटेन में हुआ । इस सिद्धांत के अनुसार स्वयं सरकार को जो शक्तियाँ प्राप्त हैं वे कानून की देन हैं। अत: कानून को कार्यान्वित कराने की प्रक्रिया भी न्यायपूर्ण होगी। 

न्यायपूर्ण प्रक्रिया के अंतर्गत प्रथमत: ‘कानून के समक्ष सभी समान हैं’ ( equal before law) और द्वितीयत: ‘कानून सभी को समान रूप से संरक्षण’ (equal protection of law) प्रदान करेगा। न्याय प्रदान करने हेतु कानून केवल व्यक्तियों एवं संस्थाओं को अधिकार और सुविधाएँ ही प्रदान नहीं करता, बल्कि अन्यायपूर्ण कार्यों को रोकने हेतु दण्ड की भी व्यवस्था करता है। सालमण्ड के शब्दों में “कानून का उद्देश्य औचित्य की स्थापना करना, न्याय की रक्षा करना और अनुचित कार्य से छुटकारा दिलाना है । ” (“The purpose of law is to maintain right, uphold justice and redress wrongs.”) 

न्याय और दण्ड का गहरा संबंध है। दण्ड अपराध का परिणाम है। अधिकांशत: व्यक्ति परिस्थितियों से विवश होकर ही अपराध करते हैं। अत: न्यायाधीशों को दण्ड का निर्धारण करते समय अपराधी की परिस्थितियों पर भी ध्यान देना चाहिए। दण्ड के संदर्भ में सामान्यतया दो सिद्धांत का यह अर्थ नहीं है कि लोगों को अपराधी से स्वयं बदला लेने का अधिकार हो या आँख फोड़ने वाले की आँख फोड़ दी जाय। बल्कि इसका सही अर्थ यह कि अपराध के स्वरूप के अनुपात में ही दण्ड की मात्रा होनी चाहिए । निरोधात्मक सिद्धांत (Deterent theory) के अनुयायियों का कहना है कि दण्ड इतना कठोर हो कि दण्डित व्यक्ति को देखकर अन्य व्यक्ति उस प्रकार का अपराध करने का साहस न करें। गंभीर अपराध हेतु अत्यंत कठोर दण्ड की व्यवस्था इसी सिद्धांत के अंतर्गत आती है। संक्षेप में, दण्ड का उद्देश्य दोनों ही होना चाहिए अपराधी को दंडित करना और उसे सुधारने का भी प्रयास करना । 

सामान्यतः दो प्रकार के कानून दण्ड-व्यवस्था हेतु बनाये जाते हैं- फौजदारी और दीवानी। फौजदारी का उद्देश्य सामाजिक सुरक्षा को बनाए रखना है जबकि दीवानी कानून का उद्देश्य व्यक्तिगत हितों की रक्षा करना है। फौजदारी कानूनों के अंतर्गत किसी पर प्रहार, हत्या, किसी की मानहानि करना, अपहरण तथा व्यभिचार आदि अपराधों हेतु दण्ड की व्यवस्था की गई है, परन्तु दीवानी कानून का संबंध मालिक और नौकर, स्वामी और एजेण्ट, फर्म और साझेदार, वस्तुओं के ट्रेडमार्क, पेटेन्ट के अधिकार, संविदा बरकरार के संबंध में झगड़े आदि से संबंधित मामलों से है। 

संक्षेप में, निष्कर्षत: कानून के उद्देश्य की पूर्ति हेतु न्याय व्यवस्था स्वतंत्र, निष्पक्ष और ईमानदार होनी चाहिए, क्योंकि कानूनी न्याय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष न्याय- व्यवस्था का योग्य और निष्पक्ष होना ही है। 

न्याय का राजनीतिक क्षेत्र अथवा पहलू 

(Political dimensions of justice) 

राजनीतिक न्याय का सिद्धांत पाश्चात्य उदारवादी प्रजातंत्रात्मक परम्परा की देन है। राजनीतिक न्याय का अर्थ सामान्यतया राज्यसत्ता व जनता में आपसी संबंधों से लिया जाता है । फ्रांस की राज्य क्रांति 1789 ई० के नेताओं की एक मुख्य माँग यह थी कि धन या कुल के भेदभाव बिना सभी को राजनीतिक अधिकार प्रदान किया जाय। अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा में भी कहा गया था, “प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की शासन व्यवस्था में हाथ बँटाने का अधिकार है। ‘ 

उपर्युक्त विवरण से यह भलीभाँति स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेद- भाव के राजनीतिक अधिकार प्राप्त होना ही राजनीतिक न्याय है। वयस्क मताधिकार का सिद्धांत भी राजनीतिक न्याय का आधार है। अतः राजनीतिक न्याय तभी प्राप्त हो सकता है जब शासन की शक्ति शासितों की इच्छा या स्वीकृति पर आधारित हो । 

राजनीतिक निर्णय लिये जाने की प्रक्रिया प्राय: संवैधानिक कानून द्वारा निर्मित की जाती है। राज्य की विभिन्न संस्थाएँ और अधिकार निश्चित नियमों के अनुसार राजनीतिक निर्णय लेते हैं। अत: उन्हें मनमानी करने की गुजाइश कभी नहीं होनी चाहिए और किसी एक स्थान पर निर्णय लेने की शक्ति केन्द्रित नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा संपूर्ण समाज के हित को दृष्टि में रखते हुए ही राजनीतिक निर्णय लिया जाना चाहिए । 

न्याय का सामाजिक पक्ष या पहलू 

(Social dimensions of justice) 

सामाजिक न्याय की अवधारणा काफी प्राचीन है। फ्रांसीसी राज्य क्रांति ने सामाजिक न्याय का राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ घनिष्ट संबंध स्थापित कर इसे काफी महत्व प्रदान किया था। वर्तमान समय में सामाजिक न्याय के आधार पर विश्वशांति कायम है। संयुक्त राष्ट्रसंघ इस दिशा में विशेष रूप से प्रयत्नशील है । सामाजिक न्याय का आधार सामाजिक समानता है, जिसके अंतर्गत समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और धर्म, जाति, रंग, वंश आदि के आधार पर उन्हें असमान नहीं माना जाना चाहिए। 

जहाँ तक धार्मिक रस्मों और सामाजिक रीति-रिवाजों में राज्य द्वारा हस्तक्षेप का प्रश्न है, अधिकांश सरकारें इस बात से सहमत हैं कि धार्मिक विश्वास, आंतरिक नैतिकता, कला, साहित्य, संगीत, फैशन और रीति-रिवाजों के क्षेत्र में नागरिकों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक रखना चाहिए। केवल सार्वजनिक शांति व्यवस्था, सार्वजनिक सदाचार की रक्षा हेतु राज्य कानून बना सकता है। सार्वजनिक स्थानों जैसे- भोजनालयों, दूकानों, शिक्षणालयों, तालाबों, कुओं के प्रयोग के संबंध में भारतीय संविधान व्यवस्था करता है कि किसी भी व्यक्ति को केवल धर्म, वंश, जाति, रंग या भाषा के आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा। रंग-भेद के प्रश्न में विभिन्न देशों में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है। उदाहरणार्थ, अमेरिका में निग्रो लोगों के साथ भेद-भाव और अफ्रीका तथा रोडेशिया में श्वेत जाति के प्रभुत्व के विरूद्ध तीव्र आंदोलन चल रहे हैं। इस तरह, व्यवहारत: धर्म, जाति या रंग के आधार पर भेद-भाव अभी भी वर्तमान है। भारत में भी छूआछूत जैसी निकृष्ट सामाजिक प्रथा अभी तक बनी हुई है। 

विभिन्न विचारकों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से सामाजिक न्याय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। लॉस्की के अनुसार सामाजिक न्याय का अर्थ समान सामाजिक अधिकारों से है। जबकि बार्कर का कहना है कि प्रत्येक समाज का उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति में निहित गुणों को विकसित करने हेतु अवसर प्रदान करना, जिसके लिए उचित व्यवस्था की स्थापना ही सामाजिक न्याय है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित भाग प्रदान करने `को कुछ विचारकों ने सामाजिक न्याय की संज्ञा दी है। कुछ अन्य विचारकों के अनुसार वैधानिक नियमों के आधार पर सामाजिक सुविधाओं और अधिकारों का वितरण ही सामाजिक न्याय है। संक्षेप में, प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास हेतु पूर्ण सुविधाएँ उपलब्ध कराना और सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति करना ही सामाजिक न्याय है। 

सामाजिक न्याय एक गतिशील अवधारणा है जिसकी स्थापना का दायित्व राज्य पर है । एतदर्थ उचित कानूनों का निर्माण भी राज्य ही करेगा। अतः केवल भेद-भाव की परम्पराओं, अव्यवस्थाओं और सामाजिक बुराइयों को दूर करना ही सामाजिक न्याय नहीं है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण सुविधाएँ उपलब्ध कराना और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही सामाजिक न्याय है । आज सामाजिक न्याय का यह रूप कल्याणकारी राज्य का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य बन चुका है। 


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