प्रश्न- नव पाषाण -ताम्रयुगीन संस्कृतियों का आलोचनात्मक वर्णन कीजिये।
ताम्र तथा कांस्य युग : सभ्भगवतः नव पाषाणकाल के अन्तिम वर्षों में धातुओं का आविष्कार और उनका सीमित उपयोग शुरू हो गया था। भारत में धातुओं में ताँबे (नाम) का प्रयोग सर्वप्रथम हुआ। ताँबा पाषाण की अपेक्षा अधिक सुदृढ़, सुडौल, सुन्दर और चिकन था। इसे साँचे में पिघलाकर छोटे बड़े किसी भी रूप में परिवर्तित किया जा सकता था। इसकी छोटी-बड़ी चादरें बनाई जा सकती थीं और उनसे छोटे-बड़े टुकड़े काटे जा सकते थे।
कालान्तर में मनुष्य ने अनुभव किया कि कठोर कर्मों के लिए ताँबा अधिक उपयोगी नहीं था । अतः मनुष्य को ताँबे से भी कठोर धातु की आवश्यकता महसूस हुई और इस आवश्यकता की पूर्ति उसने एक नवीन धातु के आविष्कार से की। यह धातु काँसा थी । यह मिश्रित धातु थी जो ताँबा और टिन के सम्मिश्रण से तैयार की जाती थी। काँसा–आठ भाग ताँबा और एक भाग टिन को मिलाकर बनाया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि धातु- -सामग्री के साथ-साथ पाषाण – सामग्री का प्रयोग भी लम्बे समय तक चलता रहा । इसीलिए इस युग की सभ्यता को नव-पाषाण- ताम्रयुगीन संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है। सिन्ध, बलूचिस्तान, मकरान आदि के क्षेत्रों में जिन प्राचीन ग्रामीण सभ्यताओं का पता चला है, उनमें काँसे की ही प्रधानता थी, इसलिए उनको प्रायः ‘कांस्य युगीन सभ्यताएँ’ ही कहते हैं।
‘ताम्र- कांस्य सभ्यता’ का उदय और विकास उत्तर भारत में ही हुआ । दक्षिण भारत इससे प्रायः अछूता ही रहा । उत्तर भारत में पाषाणकाल के पश्चात् ताम्र-युग, कांस्य युग और लौह-युग का क्रम चला, जबकि दक्षिण भारत में पाषाणकाल के बाद सीधा लौह-युग आ गया था।
पश्चिमी भारत की ताम्र- कांस्य युगीन संस्कृतियाँ
पिगट ने पश्चिमी भारत की ताम्र- कांस्ययुगीन संस्कृतियों को निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा है-
(1) क्वेटा संस्कृति : भारत की ताम्र-युग की सभ्यताओं में क्वेटा सभ्यता सबसे अधिक प्राचीन है। बोलन दर्रे में क्वेटा के निकट पाँच ऐसे खेड़े (गाँव, बस्ती या शहर के. खण्डहरों के कारण ऊँचे उठे हुए स्थान ) मिले हैं, जो इस सभ्यता के भग्नावशेषों को प्रकट करते हैं। इनमें सबसे बड़े खेड़े का व्यास लगभग 200 गज और ऊँचाई 45 फीट से 50 फीट तक है। यह खेड़ा एक प्राचीन बस्ती अथवा गाँव को सूचित करता है।
बर्तन : इस गाँव या बस्ती के उत्खनन से बर्तनों के अवशेष मिले हैं जिन पर काले रंग का लेप है। इन बर्तनों में कटोरों तथा रकाबियों की संख्या अधिक है। ये बर्तन आग में पकाये गए थे। कुछ बर्तनों का रंग हल्का गुलाबी है तथा कुछ का रंग हरापन लिए हुए हैं। बर्तनों पर गोल और तिरछी रेखाओं के माध्यम से चित्रकारी की गई है। इस बस्ती के मकान मिट्टी अथवा मिट्टी की ईंटों के बने होंगे, परन्तु बाद में वे सब टूट-फूटकर पुनः मिट्टी के ढेरों में बदल गये होंगे। विद्वानों के अनुसार यहाँ के लोग बस्तियों में रहते थे, मकानों का निर्माण करते थे, कृषि और पशुपालन द्वारा अपना निर्वाह करते थे।
(2) अमरी – नल संस्कृति : इस सभ्यता के अवशेष सिन्ध में अमरी और बलूचिस्तान में नल और सुन्दर नामक स्थानों पर मिले हैं । रक्शां नामक प्रदेश का एक खेड़ा 485 मीटर. लम्बा और 360 मीटर चौड़ा है। यहाँ की बस्तियों का औसत क्षेत्रफल 2 एकड़ से कुछ ही कम रहा होगा । सिन्ध में कोहत्रसबुथी नामक स्थान पर एक बस्ती के अवशेष मिले हैं। इसके चारों और दो दीवारें थीं और दोनों दीवारों के बीच 250 फीट का अन्तर रखा गया था। इन दीवारों का निर्माण कच्ची ईंटों से किया गया था। इन ईंटों का आकार 21 इंच लम्बा 10 इंच चौड़ा तथा 4 इंच ऊँचा है। बस्ती के अधिकांश मकानों के निर्माण में भी इसी आकार की ईंटों का प्रयोग किया गया था।
(i) मकान : यहाँ की खुदाई में अनेक मकान मिले हैं। नुन्दर में जो मकान मिले हैं, उनका आकार 40 फीट लम्बा और 40 फीट चौड़ा है। मकानों में अनेक छोटे-बड़े कमरे होते थे। इन कमरों का आकार 15 15 फीट, 15 × 10 फीट और 8 x 5 फीट था । आँगन भी प्रायः इसी आकार के थे। मकानों में खिड़कियाँ भी होती थीं। कुछ मकानों में तहखाने भी होते थे । कोहत्रस के भग्नावशेषों में एक मकान ऐसा ही था, जिसमें दरवाजे के निकट कोने में एक स्नानागार बना था तथा छत पर जाने के लिए जीना भी था। एक मकान से दूसरे मकान के बीच एक गली छोड़ दी जाती थी, जिसकी चौड़ाई 22 फीट से 8 फीट तक थी।
(ii) कब्रितान : अमरी – नल सभ्यता के खेड़ों की खुदाई में कुछ स्थानों पर कब्रिस्तान भी मिले हैं। एक कब्रिस्तान से लगभग 100 अस्थिपंजर मिले हैं। इससे पता चलता है कि इस सभ्यता के लोग अपने मृतकों को दफनाते थे और उनके लिए विधिवत् कब्रों का निर्माण किया जाता था। कब्रों का निर्माण ईंटों तथा पत्थरों से किया जाता था। कब्र में शव को दफनाते. समय उसके साथ-साथ उन वस्तुओं को भी रख दिया जाता था जिनका उपयोग मृत व्यक्ति अपने- जीवनकाल में किया करता था । इसीलिए कब्रों में अस्थिपंजरों के साथ-साथ मिट्टी के बर्तन, आभूषण, औजार आदि वस्तुएँ मिली हैं। कब्रों में जो औजार मिले हैं, वे मुख्यतः ताँबे के बने हुए हैं और उनमें भी कुल्हाड़ियाँ मुख्य हैं। इसी प्रकार जो आभूषण मिले हैं, उनमें ताँबे, शंख, कौड़ी व मिट्टी के आभूषणों की संख्या अधिक है। कुछ कब्रों से मूँगे आदि की बनी हुई मालाएँ भी मिली हैं।
(iii) बर्तन : अमरी – नल सभ्यता के भग्नावशेषों में बर्तन भी मिले हैं। यहाँ के लोग बड़े सुन्दर और सुडौल बर्तन बनाते थे। बर्तन बढ़िया और अच्छी तरह गूंदी हुई मिट्टी के बनाये जाते थे, जिनका रंग गुलाबीपन लिए हुए था। कुछ बर्तन गहरे भूरे अथवा काले रंग के भी थे। बर्तनों में कटोरे, गिलास मुख्य थे। कहीं-कहीं उथली तश्तरियों की आकृति वाले बर्तन मिले हैं। शायद ये दीपक रहे होंगे या धूप जलाने वाले पात्र रहे होंगे। बर्तनों पर पशुओं और अर्द्ध- पौधों की आकृतियाँ चित्रित की जाती थीं। बर्तनों को चित्रित करने के लिए गोल, चन्द्राकार तथा तिरछी रेखाओं का भी प्रयोग किया जाता था । पशु-पक्षियों में शेर, बैल, मछली और चिड़ियों के चित्र मुख्य हैं।
(iv) हथियार : नल के कब्रिस्तान से काफी बड़ी संख्या में हथियार मिले हैं। इनमें तीन चपटी कुल्हाड़ियाँ हैं। इसके अतिरिक्त अन्य हथियारों में चाकू, सीधे पार्श्ववाले आरे (करौती), भाले आदि हैं। नल के कब्रिस्तान में एक सेलखड़ी की बनी मुद्रा भी मिली है। इसी के पास एक ताँबे की मुद्रा भी मिली है। नल के कब्रिस्तान में अनेक गुरिये मिले हैं।
भारत में अन्यत्र ताम्र-युग के अवशेष : सर्वप्रथम ताँबे की बनी हुई सामग्री गंगा- यमुना के दोआब से ही प्राप्त हुई है। गुनगेरियाँ (मध्यप्रदेश) नामक स्थान से ताँबे तथा काँसे की वस्तुओं का विशाल भण्डार मिला है। इसके अतिरिक्त गंगा-यमुना के दोआब, हरियाणा में मित्ताथल, राजस्थान में खेतड़ी, छोटा नागपुर तथा बिहार के पठारी भागों में ताम्र सामग्री मिली है । इस सामग्री में कुल्हाड़ियाँ, तलवारें, कटारे, हार्पून और रिंग प्रमुख हैं। पिगट महोदय ने कुल्हाड़ियों को आकार-प्रकार के आधार पर पाँच वर्गों में बाँटा है। तलवारें प्रायः समान हैं। इनके ब्लेड पत्ती के समान हैं। सम्पूर्ण ब्लेड और मुठिया एक ही साँचे में ढली हुई प्रतीत होती है।
सिन्धुघाटी में भी ताँबे एवं काँसे की अनेक वस्तुएँ मिली हैं, परन्तु वहाँ पर तलवार और हार्पून का अभाव है। वहाँ के हथियार – औजार भी साधारण कोटि के हैं और वहाँ पर धातु सामग्री के साथ-साथ पाषाण – सामग्री का भी प्रयोग चलता रहा। डॉ. विलमचन्द्र पाण्डेय ने लिखा है कि “इन सब कारणों से प्रकट होता है कि सिन्धु सभ्यता काल की दृष्टि से पाषाण- काल के निकट थी और उपर्युक्त अधिक विकसित धातु सामग्री सिन्धु सभ्यता के पश्चात् निर्मित हुई होगी।”
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