प्रश्न- चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के जीवन चरित्र एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।
जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन : चन्द्रगुप्त द्वितीय समद्रगुप्त का पुत्र था। उसकी माता का नाम दत्तदेवी था। वह बड़ा ही पराक्रमी तथा शूरवीर और गंभीर व्यक्ति था । उसका बड़ा भाई रामगुप्त कायर था। इसलिए चन्द्रगुप्त द्वितीय ने रामगुप्त का कत्ल कर उसकी पत्नी ध्रुव देवी से विवाह करके मगध की गद्दी पर बैठा। यही चन्द्रगुप्त द्वितीय भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध है। विक्रमादित्य उसकी उपाधि थी। विक्रमादित्य उस व्यक्ति को कहा जाता है जो सूर्य के समान प्रतापी एवं तेजस्वी हो । चन्द्रगुप्त की यह उपाधि ठीक थी क्योंकि उसने अपने ऐश्वर्य, गौरव और प्रताप को उसी प्रकार फैलाना शुरू किया था जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश को सारे संसार में फैलाता है। उसने 375 ई. से 413 ई. तक मगध पर राज्य किया।
वैवाहिक सम्बन्ध : चन्द्रगुप्त द्वितीय एक उच्च कोटि का नीतिज्ञ था । उसने अपने वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा अपनी शक्ति एवं स्थिति को सुदृढ़ बनाने की कोशिश की। उसने नागवंश की अति सुन्दरी राजकुमारी कुबेरनाग के साथ विवाह किया, जिससे प्रभावती नामक एक कन्या उत्पन्न हुई थी। उसने अपनी इस पुत्री की शादी वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय से की थी। उसने अपनी विधवा भावी ध्रुवदेवी से भी विवाह कर लिया था जिससे कुमारगुप्त और गोविन्द गुप्त नामक दो पुत्र हुए थे। उसने अपने पुत्र का विवाह कुन्तल के राजा काकुस्थ वर्मन की कन्या के साथ किया। डॉ० स्मिथ ने उसके इन वैवाहिक सम्बन्धों को बड़ा महत्व दिया है. क्योंकि इन वैवाहिक सम्बन्धों से उसको अपने साम्राज्य के विस्तार करने तथा दुश्मनों का दमन करने में बड़ी सहायता मिली थी।
चन्द्रगुप्त की कठिनाईयाँ : चन्द्रगुप्त द्वितीय के गद्दी पर बैठने के साथ ही, चारों. तरफ कठिनाईयों ने आंकर घेर लिया। रामगुप्त के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य के शासन- तंत्र में शिथिलता आ गई थी। शकों की विजय ने गुप्त साम्राज्य की मान-मर्यादा को नष्ट कर दिया। इतना ही नहीं रामगुप्त के दुर्बल शासन से नाजायज फायदा उठा कर प्रान्तीय शासक स्वतंत्र हो चले थे। मौका देखकर मगध पर आक्रमण करने के लिए विदेशी आतुर थे। इन सारी कठिनाईयों से चन्द्रगुप्त द्वितीय जरा भी नहीं घबड़ाया बल्कि उसने बड़ी ही दृढ़ता के साथ इन कठिनाईयों का सामना किया और एक-एक कर सबों पर विजय प्राप्त की।
उसकी विजय : चन्द्रगुप्त द्वितीय को अपने पिता से विरासत में एक बहुत बड़ा साम्राज्य गिला था जिसको संजोकर रखना उसका फर्ज था। अतः साम्राज्य की स्थापना के लिए उसे कुछ भी नहीं करना पड़ा था। उसने उसकी सुरक्षा और उसका विस्तार करना शुरू किया। साम्राज्य की सुरक्षा तथा उसका विस्तार युद्धों के बिना असंभव था। फलतः उसे निम्नलिखित युद्ध करने पड़े-
1. गणराज्यों का विनाश : गुप्त साम्राज्य के उत्तर तथा पश्चिम में अनेक छोटे- छोटे तथा निर्बल गणराज्य थे। चन्द्रगुप्त ने एक-एक कर इन सभी गणराज्यों को हस्तगत कर लिया था परन्तु इनको अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया। चन्द्रगुप्त की यह एक बड़ी भूल थी लेकिन उसने अपनी इस भूल को शीघ्र ही सुधारा । उसने इन गणराज्यों को यों ही छोड़ देना उचित नहीं समझा क्योंकि इनमें बाहरी चढ़ाई को रोकने की क्षमता नहीं थी । इसलिए इनको अपने साम्राज्य में मिला लेना ही उचित समझा। इसी भावना से प्रेरित होकर उसने इन गणराज्यों पर आक्रमण कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया।
2. अवन्ति की विजय : गणराज्यों को अधिकृत कर लेने के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अवन्ति पर चढ़ाई की। उस समय अवन्ति पर शकों का राज्य था। लेकिन अवन्ति चन्द्रगुप्त द्वितीय का मुकाबला नहीं कर सका । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सुनहला मौका देखकर अवन्ति को अधिकृत कर लेने के बाद उसके आस-पास के सभी प्रदेशों मालवा, गुजरात और काठियावाड़ आदि प्रदेशों पर भी अपनी विजय पताका को फहरा दिया। चन्द्रगुप्त के ऐसा करने से इस क्षेत्र से शकों का अधिकार तथा प्रभाव समाप्त हो गया। अब इस क्षेत्र में चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजय पताका अबाध गति से लहराने लगी।
3. पूरब के राज्यों पर अधिकार : शकों की शक्ति को चकनाचूर करने के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय पूरब की ओर बढ़ा। क्योंकि पूरब में उसके कई शत्रु इन्तजार कर रहे थे। जैसा कि महरौली के लौह स्तम्भ से पता चलता है कि जब चन्द्रगुप्त द्वितीय पूरब की ओर अभियान कर रहा था उस समय उसके दुश्मन दावक और काकरूप के राजा गुप्त साम्राज्य को ही समाप्त कर देने के उद्देश्य से बहुत विशाल सेनाओं के साथ बंगाल में एकत्रित हो गये थे। वास्तव में यह संघ चन्द्रगुप्त की कमर तोड़ने के लिए तैयार था। जब उसे इस संघ का पता चला तो वह भी एक बहुत बड़ी सेना लेकर इसे तोड़ने के लिए चल पड़ा। उसने बात की बात में इस संघ को तोड़-फोड़ कर बंगाल पर अधिकार जमा लिया। उसकी इस विजय ने उसकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगा दिए। इससे उसके साम्राज्य की सीमा आसाम प्रदेश तक फैल गई।
4. पश्चिम के प्रदेशों पर विजय : पूरब में अपनी विजय पताका को फहराने के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिम के प्रदेशों की ओर ध्यान दिया । इन प्रदेशों पर कुषाण जाति का अधिकार था जो अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। उसने इनकी शक्ति का विनाश करने के विचार से उन प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया। महरौली के लौह सतम्भ के आधार पर यह कहा जाता है कि उसने सिन्धु नदी की सात सहायक नदियों को पार कर बल्हीकों को युद्ध में हराया था। इस विजय के फलस्वरूप उसका अधिकार सारे पंजाब और सीमान्त के प्रदेशों पर हो गया था। उसकी मार से शकों और कुषाणों की हालत पतली हो गई और वे लोग काबुल से पश्चिम भागकर अपनी जान बचा पाये । शकों, कुषाणों से अपनी भारत भूमि की रक्षा कर लेने के बाद उसने इस विजय के स्मरण में विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।
5. दक्षिण के राज्यों पर अधिकार : महरौली के लौह स्तम्भ से यह पता चलता है कि रामगुप्त के शासन काल में दक्षिण भारत के राज्य गुप्त साम्राज्य की सत्ता से स्वतंत्र हो गये थे लेकिन चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बाहुबल से उन सभी राज्यों पर फिर से दक्षिण में गुप्त साम्राज्य की सत्ता स्थापित की।
6. चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्य विस्तार : उपरोक्त विजयों के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पिता समुद्रगुप्त से भी विशाल साम्राज्य स्थापित किया । उसका सम्राज्य समुद्रगुप्त से भी विशाल हो गया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य विस्तार उत्तर में हिमालय पर्वत की घाटियों से लेकर दक्षिण में नर्मदा की निर्मल धारा तक और पूरब में बंगाल से लेकर पश्चिम में का यावाड़ के प्रदेशों तक हो गया था । वास्तव में उसका साम्राज्य बहुत विशाल था ।
7. शासन-प्रबंध : फाहियान और कई अन्य अभिलेखों से चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन – प्रबन्ध का समुचित ज्ञान प्राप्त होता है। शासन का प्रधान सम्राट स्वयं था। उसको मदद पहुँचाने के लिए एक मंत्री परिषद होती थी । विभागों के संचालन के लिए अनेक पदाधिकारी थे। अपराधियों को शारीरिक दण्ड दिया जाता था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य को सुचारू ढंग से संचालन के लिए कई प्रान्तों में बाँट दिया था। जिला को प्रदेश या विषय कहा जाता था । प्रान्त के शासक को गोप्ता कहा जाता था और जिले के शासक को विषयपति। ग्राम का प्रबन्ध अलग से होता था। ग्राम का शासक ग्रामिक कहलाता था। इस तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन-प्रबन्ध श्रेष्ठ था।
8. चन्द्रगुप्त द्वितीय का चरित्र : चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की गिनती भारत के योग्य सम्राटों में की जाती है। वह एक सफल तथा महान विजेता था। वह साहसी व्यक्ति था। यह कठिन परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोता था। उसने अपने बाहुबल से गुप्त साम्राज्य का विस्तार कर उसकी अनन्त सेवा की जिसके फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य की नींव कभी कमजोर नहीं हुई। वह बेजोड़ सेनानायक था। वह अपने देश में विदेशियों को देखना नहीं चाहता था । इसलिए उनको यहाँ से खदेड़ दिया था।
कूटनीतिज्ञता के क्षेत्र में भी वह अद्वितीय था। वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सुकर्म और कुकर्म में कुछ भी भेद नहीं समझता था। उसने एक नारी का वेश धारण कर शक राजा की हत्या की और अपने ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त का वध कर मगध की गद्दी को प्राप्त किया तथा धुवदेवी को अपनी पत्नी बनाया। उसने अन्य देशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने साम्राज्य को सुदृढ़ किया। उसके इन सभी कार्यों से यह पता चलता है कि वह उच्च कोटि का कुटनीतिज्ञ था। उसमें एक अच्छे शासक के सभी गुण वर्तमान थे। उसकी शासन-व्यवस्था बहुत अच्छी थी। वह न्याय प्रिय व्यक्ति था जिसके फलस्वरूप उसके साम्राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था थी। उसने शासन काल में अपराध बहुत कम होता था । धर्म के क्षेत्र में वह उदार था। स्वयं तो वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था लेकिन अन्य धर्मों से उसको घृणा नहीं थी। उसने दरबार में सभी तरह के धर्मावलम्बियों को भी प्रश्रय दे रखा था। `उसका एक सेनापति बौद्ध था और उसका संधि-विग्रह मन्त्री शिव का भक्त था।
उसको साहित्य तथा साहित्यकारों से विशेष प्रेम था। उसका राज दरबार विद्वजनों से खचाखच भरा रहता था । विद्वानों और कलाकारों को वह हर तरह से मदद किया करता था। उसके नवरत्नों में कालिदास, भवभूति और धनवन्तरी आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध थे। उसके शासनकाल में संस्कृत भाषा की बहुत उन्नति हुई।
अत: उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर यह कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य कुशल तथा ख्यातिप्राप्त सम्राट था।