प्रश्न- गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की विस्तृत व्याख्या कीजिए ?
उत्थान और पतन प्रकृति के नियम हैं। आज तक बड़े-बड़े साम्राज्यों का उत्थान और पतन हम देख चुके हैं। रोम का विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य उन्नति के शिखर पहुंचा, शताब्दियों तक चट्टान की तरह दृढ़ता से खड़ा रहा, लेकिन अंत में उसका पतन गया। भारत के विशाल साम्राज्यों जैसे मौर्य, मुगल आदि का भी यही हाल हुआ। इसी तरह भारत के गुप्त साम्राज्य का भी अंत में विनाश हो गया, यद्यपि समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के समय में किसी ने भी न सोचा होगा कि इतना शक्तिशाली और सुसंगठित साम्राज्य भारतभूमि से एक दिन पूर्णतः लुप्त हो जायेगा ।
गुप्त साम्राज्य के पतन के लिए अनेक कारण उत्तरदायी है-
1. राजनीतिक कारण : (i)अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी: समुद्रगुप्त गुप्त वंश का अंतिम महान शासक था जिसने विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों के बावजूद भी गुप्त साम्राज्य की एकता और अक्षुण्णता को बनाये रखना, परन्तु इसके बाद के गुप्त शासक सर्वथा अयोग्य एवं निर्बल सिद्ध हुये। 467 से 570 ई० के बीच के 100 वर्षो की अवधि में एक बार एक कई शासक गद्दी पर आसीन हुये, परन्तु वे पतन की प्रक्रिया को रोकना तो दूर उसकी गति को भी धीमा नहीं कर पाये । पुरुगुप्त के उपरान्त जो भी शासके हुये वे सर्वथा निकम्मे ही सिद्ध हुये। बुद्धगुप्त इस साम्राज्य का वह अंतिम शासक था, जिसने गुप्त साम्राज्य की बाह्य प्रतिष्ठा को बनाये रखने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया, किन्तु उसी के समय के साम्राज्य के विभिन्न भागों में अनेक स्वतंत्र शासकों का उदय हो चुका था, जो नामपात्र को ही गुप्तों की आधीनता स्वीकार करते थे। इन्होंने गुप्त साम्राज्य के विघटन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
(ii) बाह्य आक्रमण : बाह्य आक्रमणों ने भी गुप्त साम्राजय के पतन में योगदान दिया। कुमारगुप्त प्रथम के समय में पुष्यमित्रों के आक्रमण का उल्लेख मिलता है जिसको दबा पाने में उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सफल हुआ। कुछ विद्वानों ने पुष्यमित्रों का समीकरण हूणों से किया है जिन्होंने बाद में गुप्त साम्राज्यों को अत्यधिक हानि पहुँचायी।
स्कन्दगुप्त तो किसी प्रकार हूणों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध कर सका, परन्तु उसका उत्तराधिकारियों के समय में हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को अत्यधिक आघात पहुँचाया। अंतिम गुप्त शासक इन हूणों के मुकाबला करने में पूर्णतया अयोग्य और विफल सिद्ध हुए। पाँचवी शताब्दी के अंत तक हूण आक्रमणों का तांता सा बन गया तथा वे उत्तरी भारत में पूरी तरह से जम गये । तोरमाण एवं मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों ने गुप्त साम्राज्य पर गहरी चोट करनी प्रारंभ कर दी, जिससे गुप्त साम्राज्य काफी कमजोर हो गया। हूणों के निरन्तर आक्रमण से प्रेरिक होकर साम्राज्य के अधीनस्थ प्रदेश भी धीरे-धीरे स्वतंत्र होते चले गये। कुछ विद्वानों ने तो गुप्त साम्राज्य के पतन तथा विघटन का सर्वप्रथम कारण हूणों के आक्रमण को ही माना है, परन्तु यह तर्कसंगत नहीं है।
(iii) नवीन शक्तियों का उदय : डा० आर० सी० मजूमदार के अनुसार गुप्त साम्राज्य पर हूणों का आघात उतना विनाशकारी नहीं था जितना कि कुछ महत्वाकांक्षी सरदारों का था, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य की पतनोन्मुख अवस्था का लाभ उठाकर अपना प्रभाव बढ़ाया। और अंततः स्वतंत्र राज्यों की स्थापना कर ली। इसमें मालवा का यशोधर्मन सर्वाधिक प्रमुख था। उसने गुप्तों की अवहेलना करते हुये अपना प्रभाव बढ़ाया। वह इतनी अधिक शक्तिशाली हो चुका था कि उसने मिहिरकुल को भी परास्त किया । मन्दसौर अभिलेख से आभास मिलता है कि उसकी प्रभुता का क्षेत्र पश्चिमी महासागर से ब्रह्मपुत्र तक और हिमालय से गन्जम जिले तक विस्तृत था। संभवतः उसने गुप्त साम्राज्य के कुछ भागों को भी जीत लिया था।
(iv) उत्तराधिकार सम्बन्धी संघर्षो का प्रारंभ : यद्यपि हिन्दू राजवंशों में उत्तराधिकार के तो निश्चित नियम थे, परन्तु समय-समय पर गुप्त शासकों द्वारा ज्येष्ठ पुत्र के स्थान पर दूसरे पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित कर देने से कालान्तर में कठिनाई उत्पन्न हुई। समुद्रगुप्त समय से ही ज्येष्ठ पुत्र को सिंहासन के वंचित करके उसके स्थान पर दूसरे पुत्र को गद्दी जाने को जो प्रथा प्रारंभ हुई थी उसने कालान्तर में साम्राज्य के संघर्षो को जन्म दिया। यही कारण है कि प्रत्येक शासक के पश्चात् संघर्ष एवं गृह कलह की स्थिति उत्पन्न हुई, यहाँ तक कि गुप्त वंश के अनेक असंतुष्ट राजकुमारों (हरिगुप्त तथा प्रकाशदित्य) ने हूण आक्रमणकारियों का साथ दिया। इसके परिणामस्वरूप आंतरिक दृष्टि से भी गुप्त साम्राज्य कमजोर होता गया तथा गुप्तों की प्रतिष्ठा धीरे-धीरे घटती हुई, जिसका लाभ अधीनस्थ शासकों ने उठाकर साम्राज्य को खोखला कर दिया। इसी कारण बाद में गुप्त साम्राजय दो शाखाओं में भी बँट गया।
2. प्रशासनिक कारण : प्रशासनिक अथवा व्यवस्था सम्बन्धी कमियाँ भी गुप्त साम्राज्य के पतन में सहायक हुई। व्यवस्था सम्बन्धी निम्नलिखित कमियाँ गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बनीं
(i) संघीय व्यवस्था : कुछ विद्वानों का विचार है कि गुप्त साम्राज्य के विघटन में उनक प्रशासनिक व्यवस्था भी एक महत्वपूर्ण कारण थी, जिसकी आधारशिला समुद्रगुप्त ने रखी थी। समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को विभिन्न सामन्ती इकाइयों के संघ के रूप में संगठित किया था। गंगा घाटी के बाहरी क्षेत्रों के शासकों तथा गणराज्यों को बिजित करने के बाद भी आंतरिक स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। गुप्त सम्राटों का साम्राज्य के अति प्रमुख केन्द्रों पर ही प्रत्यक्ष अधिकार था, जबकि गुप्त राजाओं द्वारा विजित विशाल भू-भाग पर सामंती अधिकार था। गुप्त शासकों को परमेश्वर, परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज जैसी उपाधियों से भी उनके आधीन सामंतों के अस्तित्व का ज्ञान होता है । कालान्तर में समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों ने भी इन अधीनस्थ सामन्तों – शासकों की संख्या को कम करने के स्थान पर उसमें वृद्धि ही की, जिसके दुष्परिणाम उन्हें बाद में भुगतने पड़े। परवर्ती कमजोर और अयोग्य गुप्त शासक उन अधीनस्थ शासकों को अपने नियंत्रण में नहीं रख सकें, जिसके कारण ये धीरे-धीरे स्वतंत्र होते चले गये और इन्होंने अपने – अपने अलग-अलग राज्यों की स्थापना की।
(ii) निरंकुश नौकरशाही : प्रारंभ में मौर्यो की ही भाँति गुप्तों की नौकरशाही व्यवस्था सर्वथा सुसंगठित और सुव्यवस्थित थी। मौर्यो ने केन्द्रीयकरण की व्यवस्था पर बहुत जोर दिया था, किन्तु गुप्तों ने अधीन सत्ता के विकेन्द्रीयकरण पर अधिक जोर दिया। उन्होंने मौर्यों के समान कोई ऐसी व्यवस्था नहीं की, जिसके आधार पर योग्यतम व्यक्तियों को ही राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त किया जा सके। गुप्तों के समय में उच्च राजपद केवल राजा या सम्राट की कृपा के कारण ही प्राप्त होता था, वैयक्तिक योग्यता में कदापि नहीं । कुमारामात्यों के बीच से ही उच्चधिकारियों की बहाली की जाती थी। उन्हें के बीच में ये मंत्री, सेनापति, महादण्डनायक, संधि विग्रहिक आदि नियुक्त होते थे। इससे भी बड़ी बात यह थी कि गुप्तों के समय के एक अधिकारी एक ही समय में अनेक विभागों की अध्यक्षता और देख-रेख करता था ।
(iii) सैन्य व्यवस्था : मौर्यो की भाँति गुप्त सम्राटों के पास विशाल, वेतनभोगी तथा सुसंगठित सेना भी नहीं थी । गुप्त अभिलेखों, में उनके सैन्य बल, सैनिक संगठन आदि का कोई उल्लेख नहीं हुआ है, जैसा कि यूनानी – रोमन इतिहासकारों ने मौर्यो के विषय में किया है। चीनी यात्री फाहयान तक ने गुप्तों की सेना की संख्या, स्वरूप अथवा संगठन का कोई संकेत भी नहीं दिया है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि गुप्त सम्राट संभवतः अपने सामंतों अथवा अधीनस्थों की सेना पर ही निर्भर थे। इसी प्रकार उन्होंने मौर्यो की ही भाँति हथियारों के निर्माण आदि महत्वपूर्ण कार्यो पर भी राज्य का एकाधिकार स्थापित करने का भी कोई प्रबंध नहीं किया था। साम्राज्य के अंतिम दिनों में जब गुप्तों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी तब इन सामंतों ने न केवल उनको सहायता ही नहीं दी वरन् कुछ सामंतों ने इससे लाभ उठाकर शत्रुओं का साथ दिया, कुछ ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। और कुछ ने उनके कुछ प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया।
3. आर्थिक कारण : गुप्तवंश के पतन में आर्थिक कारणों का महत्वपूर्ण स्थान था। प्रोफेसर कोशाम्बी का मत है कि सातवाहन काल में जो भूमिदान की प्रथा का प्रारंभ हुआ था, उसका उत्तरोत्तर विकास होता गया । दान प्राप्त किये हुए व्यक्तियों को ही नमक और खानी का स्वामित्व भी दे दिया गया था, जिस पर पहले राजा का अधिकार था। इसके अतिरिक्त भूमि अनुदान प्राप्त नये स्वामियों को कुछ प्रशासनिक अधिकार भी प्रदान कर दिये गये। इसके कारण एक ओर तो राजा की शक्ति में ह्रास हुआ वही पर दूसरी ओर राज्य की आर्थिक व्यवस्था को भी क्षति पहुँची। इस व्यवस्था ने कृषकों की स्वतंत्रता को नष्ट करके इन्हें अर्द्धदास बना डाला। इसके फलस्वरूप कृषि पर उनका पूरा ध्यान नहीं रह गया, जिससे उत्पादन में गिरावट आने लगी।
4. धार्मिक कारण : कुछ धार्मिक कारण भी गुप्त साम्राज्य भी अवनति, पतन एवं विघटन के लिये उत्तरदायी माने जाते हैं। प्रारंभिक गुप्त शासक वैष्णव धर्मावलम्बी थे, जो चक्रवर्ती सम्राटों के आदर्श से अनुप्रेरित होकर कार्य करते थे। किन्तु कुमारगुप्त प्रथम समय से गुप्त सम्राट बौद्ध धर्म से प्रभावित होने लगे। इसके परिणामस्वरूप चाहे अनचाहे उने राजनैतिक आदर्श भी परिवर्तित होने लगे तथा अब वे राज्य करने के स्थान पर पुण्य प्राप्ति की ओर आकर्षित हुये। कुमारगुप्त प्रथम ने बौद्धों से प्रभावित होकर अपने अंतिम काल में बौद्ध भिक्षुओं का सा जीवन व्यतीत करना प्रारंभ कर दिया था। स्कन्दगुप्त वैष्णव मतावलम्बी होने के बावजूद भी बौद्ध धर्म से अत्यंत प्रभावित था और उसको भरपूर संरक्षण देता रहा। गुप्तों का बौद्धों के प्रति यह अनुराग अंतगोगत्वा साम्राज्य के लिये अहितकर ही सिद्ध हुआ, क्योंकि बौद्ध धर्म के कारण ही गुप्त सम्राटों की युद्धप्रियता, जो साम्राज्य की सुरक्षा एवं स्थिरता के लिए आवश्यक थी, नष्ट होती गई।
उपरोक्त समस्त कारणों का मिला-जुला परिणाम था गुप्त साम्राज्य का पतन। वस्तुतः अन्य कारण तो गौण हो जाते यदि परवर्ती गुप्त शासक समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त के समान तो क्या चौथाई भी योग्य एवं पराक्रमी होते। परन्तु उनमें इन गुणों का अभाव था। परिणामस्वरूप, वह गुप्त साम्राज्य, जिसने प्राचीन भारत को दिग्विजयी सम्राट प्रदान किये, जिसके समय में भारत की सर्वतोमुखी उन्नति हुई एवं जो युग प्राचीन भारतीय इतिहास का ‘स्वर्ण युग’ कहलाता है उसका पतन हो गया।