कण्वों के इतिहास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। PDF DOWNLOAD

शुंगों के पश्चात मगध में सत्ता थोड़े समय के लिए कण्वों के हाथों में आई। वसुदेव ने अंतिम शुंग-शासक देवभूति की हत्या कर 75 ई. पू. में कण्ववंश का शासन आरंभ किया। कण्ववंश काण्वायनवंश के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में इस वंश के चार राजाओं और उनके शासन की अवधि का उल्लेख मिलता है। पुराणों में भविष्यवाणी की गई थी कि “वह (वसुदेव), अर्थात काण्वायन 9 वर्षों के लिए राजा होगा । उसका पुत्र भूमिमित्र 14 वर्षों तक शासन करेगा। उसका पुत्र नारायण 12 वर्षों तक राज्य करेगा। उसका पुत्र सुशर्मन 10 वर्षो तक सिंहासनारूढ रहेगा। ये सभी शुंग – भृत्य काण्वायन राजा के रूप मैं प्रसिद्ध है। …… इनके बाद पृथ्वी का राज्य आन्ध्रवंश के हाथों में चला जाएगा । ” वासुदेव देवभूमि का अमात्य था। उसने देवभूमि की दासी की सहायता से उसकी हत्या कर दी। 

कण्वों के राजनीतिक इतिहास के विषय में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। पुराणों के आधार पर ही ज्ञात होता है कि कण्ववंशी ब्राह्मण- शासकों ने सिर्फ 45 वर्षों तक शासन (30 ई. पू.) किया। इसी अवधि में चार राजा भी हुए, जो नाममात्र के शासक थे। पुराणों के अनुसार कण्व वंश के शासकों के नाम थे वसुदेव, भूमिमित्र या भूमित्र, नारायण और सुर्शमन । आर. पी. चंदा का मानना था कि शुंग शासक देवभूति शुंग राज्यों के संघ का प्रधान था जिसकी हत्या कर वसुदेव ने गद्दी पर अधिकार कर लिया, लेकिन अन्य शुंग राज्यों को पूर्ववत शासन करने दिया। यह मत मान्य नहीं है। शुंग राज्यों के संघ का कोई प्रमाण नहीं है। साथ ही हम पहले भी देख चुके हैं कि पुष्यमित्र के बाद उत्तरी भारत में अनेक स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हो चुकी थी । इतिहासकार भंडारकर की यह धारणा भी निराधार सिद्ध हो चुकी है कि शुंगों और कण्वों ने कुछ समय तक संयुक्त रूप से शासन किया। कण्वों का अंत किस प्रकार हुआ, यह भी निश्चित नहीं है। यद्यपि पुराणों में वर्णित है कि आन्ध्रवंशी शासक या सातवाहन कण्वों का विनाश करेंगे, तथापि आन्ध्र-भृत्यों का मगध से संबंध जोड़ना उचित नहीं है। मगध में उनके शासन करने का प्रमाण नहीं मिलता। संभवतः, कण्वों का उन्मूलन मगध के मित्र शासकों ने किया, परंतु इन मित्र शासकों एवं कण्व राजाओं में संबंध निश्चित नहीं है। पाटलिपुत्र का गौरव अब समाप्त हो चुका था। कण्वों के पतन से लेकर कुषाणों द्वारा मगध की विजय तक का इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है। इस काल में मित्र नामधारी अनेक शासकों जैसे ब्रह्ममित्र, इंद्राग्निमित्र, ब्रह्मस्पतिमित्र एवं अन्य शासकों के नाम सिक्कों एवं बोधगया के पट्टी अभिलेखों (Railing Pillar Inscription) में मिलते हैं। इन शासकों को पांचाल, मथुरा, कौशांबी, अयोध्या के मित्र शासकों के साथ जोड़ने के स्पष्ट प्रमाण नहीं है। ये सभी स्थानीय शासक प्रतीत होते हैं। इस काल की सर्वप्रमुख राजनीतिक घटना है ब्रह्मस्पतिमित्र के शासनकाल में कलिंगराज खारवेल का 

मगध पर आक्रमण। 

मध्य एशिया और भारत : भारत की उत्तर – पश्चिमी सीमा पर जब-जब राजनीतिक अव्यवस्था उत्पन्न हुई, तब-तब भारत को विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ा। भारत पर इस तरफ से आक्रमण करनेवालों में सबसे पहला नाम ईरानियों का आता है। ईरानियों के पश्चात् सिकंदर ने भी सीमावर्ती इलाके की राजनीतिक दुर्बलता का लाभ उठाकर भारत पर आक्रमण किया। मौर्योत्तर काल में शुंगों के पतन के पश्चात यह क्षेत्र पुनः विदेशी आक्रमणकारियों की क्रीड़ास्थली बन गया। इस मार्ग से होकर ही सबसे पहले इंडो-ग्रीक या बैक्ट्रियन ग्रीकों, शकों, हिन्द- पार्थियन या पह्नवों तथा सबसे अंत में कुषाणों ने आक्रमण किया। इन समस्त आक्रमणकारियों में शक और कुषाण ही एक बड़े साम्राज्य की स्थापना कर सके। यद्यपि राजनीतिक दृष्टिकोण से यूनानियों और पह्नवों के आक्रमणों का कोई स्थायी परिणाम नहीं निकला, तथापि सांस्कृतिक क्षेत्र में यूनानी संपर्क के महत्वपूर्ण परिणाम निकले। भारत और यूनान दोनों ही इस संपर्क से लाभान्वित हुए। 


About The Author

Spread the love

Leave a Comment

error: Content is protected !!