प्रश्न – आर्थिक भूगोल की आधारभूत संकल्पनाओं का वर्णन करें।
प्रत्येक विषय की कुछ आधारभूत संकल्पनाएँ होती हैं जिनके द्वारा उस विषय का स्वरूप निर्धारित होता है। ये संकल्पनाएँ ही किसी भी विषय के विकास को सूचक होती है, क्योंकि ये समस्याओं एवं लक्ष्यों को दर्शाती हैं, जिन्हें सुलझाने अथवा प्राप्ति के लिए वह विषय प्रयत्नशील रहता है। अतः किसी भी विषय के अध्ययन को समझने के लिए उसकी संकल्पनाओं को समझना अत्यावश्यक है। आर्थिक भूगोल की ये संकल्पनाएँ निम्नवत हैं-
1. आर्थिक भू-दृश्य की संकल्पना (The Concept of economic landssage) : यह आर्थिक भूगोल की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा आधारभूत संकल्पना है। आर्थिक भू-दृश्य एक गोचर तत्त्व है जिसके अन्तर्गत किसी प्रदेश की लगभग सभी विशेषताओं का समावेश रह है। जर्मन विद्वान रूडोल्फ बेटगेन्स के अनुसार, इस संकल्पना के अन्तर्गत आर्थिक भू-दृश्य के सभी पक्षों अर्थात् उद्योग, कृषि, खनन एवं व्यापार आदि का समुचित विवेचन किया जाता है। ओम्बा के अनुसार, ‘आर्थिक भूगोल का उद्देश्य ही आर्थिक भू-दृश्यों का विवेचन एवं विश्लेषण करना है। वेटगेन्स के अनुसार भी ‘आर्थिक भूगोल का उद्देश्य आर्थिक भू-दृश्यों का निर्धारण तथा मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अधिक-से-अधिक प्रयोग करना है। यह एक प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगत होनेवाली धारणा है। पृथ्वी तल पर मानव के सभी कार्यों में आर्थिक कार्य की अधिकता होती है। इसलिए सांस्कृतिक भू-दृश्यों में आर्थिक भू-दृश्यों की प्रधानता रहती है। किसी प्रदेश विशेष के आर्थिक भू-दृश्य में विभिन्न प्रकार के आर्थिक कार्य पाये जाते हैं परन्तु प्रधानता, किसी एक ही आर्थिक कार्य की होती है, जैसे- किसी औद्योगिक प्रदेश में उद्योगों एवं व्यापार की प्रधानता होती है, लेकिन उद्योगों के साथ-साथ कृषि कार्य भी विद्यमान रहते हैं। कृषि प्रधान प्रदेशों की अपेक्षा इनका स्वरूप अलग होता है।
2. आर्थिक भू-दृश्य गत्यात्मक है (Economic landscape is dynamic) आर्थिक भू-दृश्य गत्यात्मक होते हैं। इनमें सदैव विकास तथा परिवर्तन होता रहता है। आर्थिक भू-दृश्य एक ओर मानव के आर्थिक कार्यों को प्रभावित करता है तो दूसरी ओर इनसे प्रभावित होकर परिवर्त्तित भी होता रहता है । विद्यमान आर्थिक भू-दृश्य मानव के भूतकाल के आर्थिक कार्यों का द्योतक है। अंत:, इस पर मानव के प्रत्येक काल की आर्थिक प्रगति, विकास एवं आर्थिक क्रियाओं की छाप मिलती है। अत:, किसी भी आर्थिक भू-दृश्य के स्वरूप को समझने तथा उसकी व्याख्या करने के लिए उसके क्रमिक विकास का विवेचन तथा विश्लेषण अनिवार्य होता है। किसी आर्थिक भू-दृश्य के वर्त्तमान स्वरूप के अध्ययन से उसका स्वरूप स्थैतिक लगता है, परन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं। इसलिए इसके गत्यामक स्वरूप का विवेचन सम्भव होता है, क्योंकि प्रत्येक आर्थिक भू-दृश्य में विगत आर्थिक भू-दृश्यों की छाप अंकित रहती है। एक आत्म-निर्भरतामूलक आर्थिक भू-दृश्य में यदि औद्योगीकरण हो जाता हैं, तो उसका स्वरूप पूर्णरूपेण परिवर्त्तित हो जाता है, जैसे छोटानागपुर पठार के औद्योगिक क्षेत्र कुछ समय पूर्व वनाच्छादित थे, परन्तु उनमें आज बहुत परिवर्तन हो गये हैं। ऐसे आमूल परिवर्त्तन होते ही रहते हैं। इसी संकल्पना के आधार पर अनेक विद्वानों ने भू-दृश्यों के क्रमिक विकास उपागम को अपनाया और आर्थिक तंत्र में विभिन्न उद्योगों की स्थापना एवं सामान्य आर्थिक विकास के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। इन विद्वानों में वेबर का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
3. वर्त्तमान आर्थिक भू-दृश्य संसाधन संरचना, आर्थिक प्रक्रिया एवं आर्थिक विकास की अवस्था का द्योतक है (Existing economic landscape relfects the resources structure economic processes and the stage of economic development ) : गत्यात्मक आर्थिक भू-दृश्य में परिवर्तन तथा विकास क्रमबद्ध पद्धति में होता रहता है। जब भी किसी प्रदेश- विशेष में किसी नये तत्त्व अथवा विधि का आविष्कार होता है तो उसका विकास आरम्भ हो जाता है। इस विकास की सीमा का निर्धारण उस क्षेत्र – विशेष की प्राकृतिक तथा मानवीय शक्तियों पर निर्भर होता है। प्रत्येक तत्त्व अपने विकास काल में इतना प्रभावशाली हो जाता है कि अन्य सभी पुराने तत्त्व उसके नीचे दब जाते हैं, परन्तु उनकी छाप विद्यमान रहती है जो विगत आर्थिक तंत्र की द्योतक होती है। वेबर महोदय ने आर्थिक भू-दृश्य के विश्लेषण के लिए एक त्रिसूत्र प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार कोई भी आर्थिक भू-दृश्य संरचना, प्रक्रिया तथा अवस्था की देन है। संरचना के अन्तर्गत संसाधन आधार की विशेषताएँ सम्मिलित हैं जिनमें मानवीय तथा प्राकृतिक दोनों संसाधनों का समावेश है। प्रक्रिया के अर्न्तगत भूमि एवं संसाधनों का प्रयोग आता है। प्रक्रिया का स्वरूप सदैव विकास पर निर्भर करता है। संसाधनों के उपयोग में धीरे-धीरे विकास होता है। अवस्था आर्थिक विकास के विभिन्न स्तरों को दर्शाती है। अवस्था. को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
(i) युवा अवस्था (Youth stage) : यह किसी प्रदेश – विशेष की वह अवस्था है जहाँ मानव द्वारा संसाधनों का शोषण अधिक नहीं हुआ होता, क्योंकि एसे प्रदेश प्रायः अल्पविकसित होते हैं। पाकिस्तान, मिस्त्र, नाइजीरिया, ब्राजील आदि ऐसे देश हैं, जहाँ युवा अवस्था के आर्थिक भू-दृश्य दिखायी देते हैं।
(ii) प्रौढ़ावस्था (Mature stage) : इस अवस्था के आर्थिक भू-दृश्य ऐसे देशों में मिलते. हैं जहाँ अत्यधिक आर्थिक विकास हुआ है तथा जो वर्त्तमान तकनीकी दशाओं में चरम सीमा पर पहुँच चुके हैं। इसप्रकार की अवस्था संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत रूस, जापान, कनाडा, आदि देशों में पायी जाती है।
(iii) वृद्धावस्था (Old stage) : यह अवस्था उन देशों में पायी जाती है जहाँ संसाधनों के उपयोग का इतिहास बहुत लम्बा है। इस अवस्था में विकास की गति बहुत धीमी होती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ प्रगति बिल्कुल रुक जाती है। उत्पादन की अधिकता की दृष्टि से वहाँ भले ही विकास न हो लेकिन उत्पादन की श्रेष्ठता की दृष्टि से तो विकास होता ही रहता है। इसप्रकार की अवस्था इंगलैण्ड, जर्मनी तथा अनेक पश्चिमी देशों में पायी जाती है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि विकास का मूल कारण मानवीय ज्ञान तथा प्राकृतिक संसाधनों का पारस्परिक संबंध है। विकास का स्वरूप मानवीय ज्ञान की अवस्था पर निर्भर करता है, इसलिए आर्थिक भू-दृश्य के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए प्राकृतिक संसाधनों एवं उनके उपयोग का इतिहास जानना अत्यावश्यक है।
4. आर्थिक क्रियाओं की अवस्थिति की संकल्पना (Concept of location of economic activities) : आर्थिक भूगोल की यह संकल्पना आर्थिक कार्यों की स्थिति का विवेचन करती है। इस विवेचन से स्थिति का तात्पर्य पृथ्वी तल पर अमुक कार्य से संबंधित स्थल विशेष को केवल अंकित करना ही नहीं है वरन् वहाँ स्थापना से संबंधित सभी तत्त्वों का विवेचन करना भी है। जैसे—यदि किसी देश में लोहा-इस्पात के कारखानों की स्थिति का विवेचन करना है तो केवल यह बताना ही पर्याप्त नहीं होगा कि कारखानें किन-किन स्थानों पर स्थित हैं बल्कि यह बताना भी अनिवार्य है कि कारखानों की स्थिति का निर्धारण इस्पात निर्माण-संबंधी तत्त्वों यथा-कच्ची सामग्री स्रोत (कच्चा लोहा, कोयला, चूना पत्थर, मैंगनीज आदि), श्रम क्षेत्र, बाजार क्षेत्र तथा परिवहन मार्ग आदि के सन्दर्भ में किया जाये। इसप्रकार स्थिति निर्धारण में उन सभी तत्त्वों के क्षेत्रीय अन्तर्सम्बन्ध का विवेचन आवश्यक होता है जिनका उत्पादन, वितरण तथा उपभोग से संबंध होता है।
5. आर्थिक प्रदेशों की संकल्पना (The concept of economic regions ) : पृथ्वी तल के विभिन क्षेत्रों के आर्थिक भू-दृश्यों में भिन्नता दृष्टिगत होती है। इसका मूल कारण यह है कि विभिन्न प्रदेशों में आर्थिक क्रिया-कलापों के वितरण में अन्तर पाया जाता है । कार्यों की भिन्नता के साथ-साथ विभिन्न भागों की सांस्कृतिक एवं जैविक प्रक्रियाओं में भी अन्तर पाया जाता है। फलतः उनके परस्पर क्षेत्रीय अन्तर्सम्बन्धों में भी भिन्नता आ जाती है। विश्व में किसी क्षेत्र में एक आर्थिक कार्य की प्रधानता के कारण ही उसे कृषि प्रदेश, औद्योगिक प्रदेश आदि कहा जाता है। आर्थिक प्रदेश की ये परिसीमाएँ बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं क्योंकि इनसे आर्थिक भू-दृश्यों के निर्धारण तथा विवेचन में सरलता आ जाती है। आर्थिक भू-दृश्य में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ भी रहती हैं, लेकिन कुछ सामान्य विशेषताओं के आधार पर उनके वर्गीकरण में आसानी होती है। इसप्रकार आर्थिक प्रदेशों के माध्यम से आर्थिक भू-दृश्यों का विभाजन सरलतापूर्वक हो जाता है, जिससे आर्थिक भू-दृश्यों के विवेचन, विश्लेषण तथा व्याख्या में आसानी होती है।
6. क्षेत्रीय कार्यात्मक अन्योन्यक्रिया की संकल्पना (Concept of spatial functional interaction) : विश्व के विभिन्न आर्थिक प्रदेशों में पारस्परिक क्रियात्मक अन्तर्सम्बन्ध पाया जाता है। यह संबंध विभिन्न प्रदेशों के विकास में योगदान देता है । वर्त्तमान समय में उत्पादन की बहुलता पायी जाती है तथा इसके साथ-साथ कुछ देशों को कुछ वस्तु-विशेष के उत्पादन में विशिष्टता भी प्राप्त है। इस युग में विश्व के प्रत्येक भाग में होनेवाला आर्थिक कार्य विश्व के प्रत्येक भाग को प्रभावित करता है तथा उससे स्वयं प्रभावित भी होता है। आज विश्व के किसी भी भाग में किसी नयी वस्तु का उत्पादन प्रारम्भ होता है तो विश्व के सभी लोग उसकी ओर आकर्षित होते है जिससे उसकी माँग बढ़ती है। माँग वाले देश उत्पादक देश को उत्पादन वृद्धि के लिए प्रोत्साहन देते है। इसी पारस्परिक संबंध को क्षेत्रीय क्रियात्मक अन्योन्य क्रिया कहते है। यह दो प्रकार की होती है- मौतिज (horizontal) तथा लम्बवत् (vertical)) एक ही पदानुक्रम स्तर के विभिन्न आर्थिक प्रदेशों में अन्योन्य क्रिया होती है तथा पदानुक्रम के विभिन्न स्तरों वाले प्रदेशों में भी यह संबंध मिलता है। क्षेत्रीय कार्यात्मक अन्योन्य क्रिया से ही क्षेत्रीय संगठन की भावना जागृत होती है जो आर्थिक व्यवस्था का मुख्य अंग है। यह अन्तर्सम्बन्ध और उससे उत्पन्न कार्यात्मक संरचनात्मक स्वरूप भूगोल के मुख्य तत्त्व बताये जाते हैं। उलमैन ने क्षेत्र एवं क्षेत्रीय अन्योन्य क्रिया को भौगोलिक अध्ययन की धुरी बताया है। ओदेम्बा ने अपने ग्रन्थ में वाणिज्य एवं परिवहन को अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करने का एक मुख्य साधन माना है। अतः, मानव और उसके आर्थिक क्रिया-कलापों तथा प्रकृति में वर्त्तमान एवं मावी सामंजस्य की व्याख्या क्षेत्रीय क्रियात्मक अन्योन्यक्रिया द्वारा की जा सकती है।
7. भू-दृश्यों के क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन की संकल्पना (Concept of spatial functional organization of landscape) : विभिन्न आर्थिक प्रदेशों में क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन के पारस्परिक संबंध के फलस्वरूप आर्थिक भू-दृश्य का स्वरूप निर्धारित होता है। आर्थिक प्रदेश दो प्रकार के होते हैं— (i) समांग (Uniform ) आर्थिक प्रदेश तथा (ii) संकेन्द्रीय (Nodal) आर्थिक प्रदेश | समांग आर्थिक प्रदेश में आर्थिक समानता या समरूपता रहती है तथा संकेन्द्रीय आर्थिक प्रदेश में किसी केन्द्र एवं उसके चारों ओर के क्षेत्र में संगठनात्मक एकता मिलती हैं। समांग तथा संकेन्द्रीय आर्थिक प्रदेशों के परस्पर-संयोग से क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन पैदा हो जाते हैं। ए०के० फिलब्रिक ने इस संकल्पना की विशद व्याख्या की है। उनके अनुसार इस प्रकार का क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन सात तत्त्वों से निर्मित होता है- (i) आर्थिक उद्योगों की इकाई, (ii) केन्द्रीयता, (iii) स्थानीयकरण, (iv) अन्तर्सम्बन्ध, (v) क्षेत्रीय अविरलता एवं अनविरलता, (vi) केन्द्रीय संगठन एवं समानान्तर संबंध तथा (vii) प्रगतिशील पैमाने के साथ समरूपता एवं केन्द्रीयता का प्रकारान्तर। फिलब्रिक ने क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन की संकल्पना को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है-
“आर्थिक भू-दृश्य की क्षेत्रीय संरचना में आर्थिक कार्यात्मक पदानुक्रम में व्यवस्थित क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन के कई परस्पर – ग्रन्थित क्रम मिलते हैं। यह आर्थिक कार्यात्मक पदानुक्रम बड़े से छोटे पैमाने पर आर्थिक उद्योग की इकाइयों के बढ़ते परिणाम एवं जटिलता के साथ-साथ समानान्तर संबंधी एवं केन्द्रीय संगठनों के प्रकारान्तरात्मक अन्तर्सम्बन्धों से उत्पन्न होता है।
क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन की इस संकल्पना का स्पष्टीकरण इस उदाहरण द्वारा भी किया जा सकता है। एक कृषि फार्म आर्थिक उद्योग की एक ऐसी इकाई है जो कृषक निवास के चारो और प्रसारित मिलता है और उससे घनिष्ट संबंध रखता है। दूसरी ओर, एक वस्तु निर्माण उद्योग भी एक इकाई है जो किसी केन्द्र में विकसित होता है। कृषि फार्म एवं वस्तु निर्माण उद्योग में प्रत्यक्ष रूप से किसी प्रकार का संबंध नहीं दिखाई देता, परन्तु फिर भी दोनों का अन्तर्सम्बन्ध नगर में स्पष्ट रूप से देखने में आता है जो वस्तु निर्माण उद्योग का केन्द्र और कृषि पदार्थों के बाजार एवं आपूर्ति को भी केन्द्र है। इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति विश्व भर में मिलती है।
8. प्रादेशिक आर्थिक विकास की संकल्पना (Concept of regional economic development) : यह संकल्पना आर्थिक भूगोल के व्यावहारिक पक्ष को प्रस्तुत करने के कारण आर्थिक भूगोल की आधारभूत संकल्पना में विशेष महत्त्व रखती है। सर्वप्रथम 1920 ई० में ड्रायर नामक विद्वान ने आर्थिक भूगोल को व्यावहारिक दृष्टिकोणवाला विषय बताया था। यह संकल्पना विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक सम्बद्धता द्वारा संसाधनों के समुचित उपयोग तथा अधिकतम उत्पादन करने पर बल देती है। इसके लिए आर्थिक विकास के विभिन्न पक्षों के विश्लेषण की आवश्यकता होती है। इस कार्य के लिए प्रदेश विशेष की सांस्कृतिक तथा तकनीकी प्रगति और प्राकृतिक संसाधनों को लेकर तुलना अत्यावश्यक होती है। प्रो० उलमैन के अनुसार आर्थिक भूगोल में प्रादेशिक शोध का मूल उद्देश्य प्रदेश – विशेष के वर्त्तमान आर्थिक विकास स्तर को निर्धारित करना तथा उसकी व्याख्या करना है। इस सन्दर्भ में प्रदेश विशेष में अन्य प्रदेशों की तुलना में संसाधन सुलभता दुर्लभता एवं सांस्कृतिक-तकनीकी क्षेत्र में प्रगति का विवेचन अधिक महत्त्वपूर्ण है। किसी भी प्रदेश की आर्थिक उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि उसका अन्य प्रदेशों से सम्बन्ध हो तथा संसाधनों का समुचित उपयोग किया जाये। तभी प्रादेशिक क्रियात्मक अन्योन्य क्रिया तथा क्षेत्रीय कार्यात्मक संगठन समुचित रूप में होंगे। यही कारण है कि आर्थिक भूगोल में आर्थिक विकास के लिए प्रादेशिक नियोजन पर अधिक बल दिया जाता है।