प्रश्न- अधिकार और कर्तव्य एक ही वस्तु के दो पहलू हैं।” स्पष्ट करें।
प्रत्येक सभ्य समाज में व्यक्ति को राज्य द्वारा कुछ अधिकार प्रदान किये जाते हैं। ये अधिकार उसे समाज और राज्य द्वारा दी गई वे सुविधाएँ होती हैं, जिनके अभाव में वह अपने व्यक्तित्त्व का विकास नहीं कर सकता। अधिकारों के साथ ही राज्य व समाज व्यक्ति पर कुछ कर्त्तव्यों की पूर्ति का दायित्व भी डालते हैं। व्यक्ति के समाज व राज्य के हित के लिए जो कुछ भी करने के दायित्व होते हैं, वे उसके कर्त्तव्य कहलाते हैं। इस प्रकार जहाँ अधिकारों से व्यक्ति को कुछ प्राप्त होता है, वहीं कर्त्तव्यों के द्वारा उस पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के विरोधी हों, परन्तु यह सत्य नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। अधिकार के अभाव में कर्त्तव्यों की और कर्त्तव्यों के अभाव में अधिकारों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि वाइल्ड (Wilde ) की मान्यता है, कि कर्त्तव्यों के अभाव में यह जगत अधूरा है, क्योंकि व्यक्ति के अधिकार उसे अपने कर्त्तव्यों के पालन के योग्य बनाते हैं तो दूसरी ओर वह अपने कर्त्तव्यों का पालन कर दूसरों के अधिकार प्राप्ति को सुनिश्चित करता है। इन दोनों के घनिष्ठ सम्बन्धों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-
(1 ) एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे व्यक्तियों का कर्त्तव्य होता है : समाज में किसी व्यक्ति के अधिकार की प्राप्ति केवल तब हो सकती है, जबकि समाज के अन्य व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को अपनी जीवन-रक्षा का अधिकार केवल तब प्राप्त हो सकता है जब समाज के अन्य सदस्य किसी जीवन को न छीनने के अपने कर्त्तव्य को पूरा करें। यदि समाज के अन्य व्यक्ति किसी के स्वतन्त्रता के उपभोग में बाधक न बनने के अपने कर्त्तव्य का पालन न करें तो किसी व्यक्ति को स्वतन्त्रता. का अधिकार प्राप्तं नहीं हो सकता। इस प्रकार किसी व्यक्ति को अधिकार केवल तब प्राप्त हो सकते हैं, जब दूसरे व्यक्ति भी अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें।
(2) व्यक्ति का अधिकार समाज और राज्य का कर्त्तव्य होता है : व्यक्ति को अधिकार समाज की स्वीकृति से प्राप्त होते हैं तथा वह उनका उपभोग राज्य द्वारा संरक्षण प्रदान किये जाने पर ही कर पाता है। इस स्वीकृति और संरक्षण के अभाव में व्यक्ति के अधिकार अर्थहीन हो जाते हैं। अतः व्यक्ति को अधिकार प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि समाज और राज्य उसके अधिकारों को मान्यता और संरक्षण देने के अपने कर्त्तव्य को पूरा करें।
(3) एक व्यक्ति का अधिकार स्वयं उसका कर्त्तव्य होता है : समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार स्वयं उन्हीं के कर्त्तव्य होते हैं। यदि व्यक्ति अधिकार प्राप्त करना चाहता है तो यह जरूरी है कि समाज के अन्य सदस्य उसके प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें। तभी यह सम्भव है, जबकि वह दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें। उदाहरणार्थ, यदि व्यक्ति विचार अभिव्यक्ति में स्वतन्त्रता का अधिकार चाहता है तो उसे अपने इस कर्तव्य का पालन करना होगा कि वह दूसरों के इसी अधिकार के प्रयोग में बाधा न डाले, अन्यथा दूसरे व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं करेंगे। अतः अधिकार प्राणा करने के लिए व्यक्ति का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह दूसरों के अधिकारों को मान्यता दे और उनके मार्ग में बाधक न बने। इस प्रकार एक व्यक्ति का अधिकार उसका स्वयं का ही कर्त्तव्य बन जाता है।
(4) व्यक्ति के अधिकारों से राज्य के प्रति उसके कर्त्तव्य निर्धारित होते हैं : व्यक्ति को अपने अधिकार राज्य से प्राप्त होते हैं। राज्य व्यक्ति को अनेक प्रकार के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक अधिकार प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति अपने व्यक्तित्त्व का विकास कर सके। बदले में राज्य की व्यक्ति से कुछ आकांक्षाएँ होती हैं; जैसे- राज्य के प्रति भक्ति-भाव रखना, राज्य के कानूनों का पालन करना, राज्य द्वारा लगाये गये करों का समय पर भुगतान करना, संकट के समय राज्य की सहायता करना आदि। ये आकांक्षाएँ ही व्यक्ति के राज्य के प्रति कर्त्तव्य हैं। राज्य नागरिकों को उनके अधिकतम विकास के लिए अधिकतम सुविधाएँ और अधिकार केवल तभी प्रदान कर पाता है, जब नागरिक अपने राज्य के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें।
(5) अधिकार प्राप्त होने पर ही कर्त्तव्य पालन सम्भव : कुछ राजनीतिक विचारक मानते हैं कि व्यक्ति के राज्य के प्रति केवल कर्त्तव्य होने चाहिए, उसे अधिकारों की आवश्यकता नहीं, परन्तु यह विचार स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यह व्यक्ति को राज्य की दया पर निर्भर बना देता है । ऐसा होने पर व्यक्ति कर्त्तव्य पालन से बचने की कोशिश करता रहेगा और यदि कर्त्तव्य पालन करेगा भी तो केवल दण्ड के भय से । अतः व्यक्ति राज्य के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन खुशी और स्वेच्छा से करे, इसके लिए यह जरूरी है कि उसे राज्य से अधिकार प्राप्त हों ।
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रो. लास्की के अनुसार इनमें चार सम्बन्ध हैं- प्रथम, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्त्तव्य” द्वितीय, “मेरे अधिकार में यह कर्त्तव्य निहित है कि मैं तुम्हारे समान अधिकार को स्वीकार करूँ ।” तृतीय, “मुझे अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक हित में वृद्धि करने की दृष्टि से करना चाहिए”, चतुर्थ, “क्योंकि राज्य मेरे अधिकारों को सुरक्षित रखता है तथा उनकी व्यवस्था करता है।” अतः राज्य की सहायता करना मेरा कर्त्तव्य है।