भारतवर्ष की अवधारणा
“भारतवर्ष” शब्द को जब हम सुनते हैं, तो हमारे मन में सिर्फ एक देश की छवि नहीं बनती, बल्कि एक ऐसी भूमि का बोध होता है जो हजारों वर्षों से संस्कृति, धर्म, ज्ञान और आध्यात्मिकता की धुरी रही है। भारतवर्ष की पहचान इसकी भौगोलिक सीमाओं से अधिक इसकी विचारधारा, संस्कृति, परंपरा और आध्यात्मिक ऊँचाइयों से होती है।
भारतवर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारतवर्ष की अवधारणा की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं। प्राचीन वैदिक साहित्य, पुराण, रामायण, महाभारत और उपनिषदों में “भारतवर्ष” शब्द का उल्लेख बार-बार हुआ है। विष्णु पुराण में भारतवर्ष की भौगोलिक सीमा को उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र तक बताया गया है। महाभारत में भी भारतवर्ष को एक ऐसी भूमि के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ धर्म, न्याय और मर्यादा की स्थापना हेतु युद्ध भी हुआ, परंतु वह युद्ध भी धर्मयुद्ध कहलाया क्योंकि उसमें उद्देश्य अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना था।
भारतवर्ष की अवधारणा किसी एक राजा, राज्य या साम्राज्य की देन नहीं है, बल्कि यह हजारों वर्षों की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं की साझा विरासत है। यह वह भूमि है जहाँ विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न शक्तिशाली साम्राज्य जैसे मौर्य, गुप्त, चोल, पल्लव, मुगल और मराठा आए, परंतु भारतवर्ष की आत्मा सदा एक रही। भारतवर्ष की यही विशेषता है कि समय, शासक और भूभाग बदलते रहे लेकिन इसकी सांस्कृतिक पहचान नहीं बदली।
भारतवर्ष की भौगोलिक अवधारणा
भारतवर्ष की भौगोलिक अवधारणा भी अत्यंत रोचक है। प्राचीन काल में इसे जम्बूद्वीप का एक भाग माना गया था। विष्णु पुराण के अनुसार:
“उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र सन्ततिः॥”
अर्थात् हिमालय के दक्षिण और समुद्र के उत्तर में स्थित जो भूमि है, उसे भारतवर्ष कहा जाता है, जहाँ भारतवंशी लोग निवास करते हैं। यह परिभाषा भारतवर्ष को केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक और वंशपरंपरा से जोड़कर प्रस्तुत करती है।
भारतवर्ष की सीमाएँ समय के साथ बदलती रहीं, परंतु इसकी सांस्कृतिक सीमा बहुत विस्तृत रही है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार और यहाँ तक कि इंडोनेशिया तक भारतवर्ष की सांस्कृतिक पहुँच रही है। भारतवर्ष की यह सीमा किसी राजनीतिक शक्ति की नहीं, बल्कि विचार, धर्म, कला, संगीत, वास्तु और दर्शन की शक्ति से बनी थी।

भारतवर्ष की सांस्कृतिक अवधारणा
भारतवर्ष की आत्मा उसकी संस्कृति में बसती है। यहाँ की संस्कृति इतनी पुरानी और समृद्ध है कि इसकी तुलना विश्व के किसी भी सभ्यता से नहीं की जा सकती। भारतवर्ष वह भूमि है जहाँ भाषा, लिपि, वेशभूषा, भोजन, पर्व-त्योहार और परंपराएँ तो अनेक हैं, लेकिन इन सभी में एकता की भावना विद्यमान है। यही कारण है कि भारत को “विविधता में एकता” का देश कहा जाता है।
भारतवर्ष की संस्कृति समावेशी रही है। यहाँ हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म का उद्भव हुआ। इसके अलावा ईसाई, इस्लाम, यहूदी और पारसी जैसे विदेशी धर्मों को भी यहाँ समान आदर मिला। भारत की यही सहिष्णुता इसकी सबसे बड़ी सांस्कृतिक विशेषता है।
संगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्पकला, वास्तुकला, नाट्यकला जैसे सांस्कृतिक रूप भारतवर्ष को विशिष्ट बनाते हैं। भरतनाट्यम, कथक, ओडिसी, कत्थकली जैसे शास्त्रीय नृत्य भारतवर्ष की परंपरा का अंग हैं। आयुर्वेद, योग और ज्योतिष जैसी विद्वत परंपराएँ आज भी भारतवर्ष की पहचान बनी हुई हैं।
भारतवर्ष की धार्मिक और आध्यात्मिक अवधारणा
भारतवर्ष को प्राचीन काल से ही “धर्मभूमि”, “तपभूमि” और “मोक्षभूमि” कहा गया है। यह वह भूमि है जहाँ हजारों ऋषि-मुनियों ने साधना की, उपनिषदों की रचना की, वेदों का पाठ किया और आत्मा-परमात्मा के संबंधों की खोज की। भारतवर्ष में धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि वह संपूर्ण जीवन-पद्धति है, जो मनुष्य को सत्य, करुणा, अहिंसा, त्याग, सेवा और संयम का मार्ग दिखाता है।
भारतवर्ष ने जीवन को चार पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – के रूप में देखा और संतुलन के साथ जीवन जीने की सीख दी। यहाँ की आध्यात्मिकता ने आत्मा को सर्वोपरि माना और कहा कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है, वह आत्मा है जो परमात्मा से जुड़ना चाहती है।
बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, रामानुजाचार्य, कबीर, तुलसीदास, गुरुनानक, स्वामी विवेकानंद जैसे संतों और विचारकों ने भारतवर्ष की इस आध्यात्मिक चेतना को जन-जन तक पहुँचाया।

भारतवर्ष की सामाजिक व्यवस्था
भारतवर्ष की सामाजिक व्यवस्था भी इसकी संस्कृति का एक अहम हिस्सा रही है। यहाँ आश्रम व्यवस्था (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) ने जीवन के हर चरण को मूल्य आधारित बनाया। वर्ण व्यवस्था ने आरंभ में कार्य के आधार पर समाज को संगठित किया, हालांकि कालांतर में इसमें विकृति आई।
ग्राम समाज भारतवर्ष की आत्मा रहा है। गाँवों में सामूहिक जीवन, पंचायत व्यवस्था, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान और जीवन की सरलता आज भी भारतवर्ष की पहचान बनाए हुए हैं।
भारतवर्ष और ज्ञान परंपरा
भारतवर्ष को ज्ञान की भूमि कहा गया है। वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण, योगसूत्र, अर्थशास्त्र, कामसूत्र, आयुर्वेद, नाट्यशास्त्र आदि जैसे ग्रंथों की रचना यहीं हुई। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों में दूर-दूर से छात्र आते थे। गणित, ज्योतिष, खगोल, चिकित्सा और दर्शन जैसे विषयों में भारतवर्ष ने अद्वितीय योगदान दिया।
‘शून्य’ की खोज, दशमलव पद्धति, बीजगणित, खगोलशास्त्र की उन्नति आदि उपलब्धियाँ भारतवर्ष को विज्ञान और गणना की भूमि भी बनाती हैं।
भारतवर्ष की राजनीतिक पहचान
यद्यपि भारतवर्ष सांस्कृतिक रूप से एक रहा है, परंतु इसका राजनीतिक स्वरूप विविध रहा है। मौर्य सम्राट अशोक ने सम्पूर्ण भारत को एक ध्वज के तले लाया था। गुप्तकाल को भारतवर्ष का “स्वर्णयुग” कहा जाता है। बाद में दिल्ली सल्तनत और मुगल शासन ने भारत को फिर से एक राजनीतिक इकाई बनाया।
हालाँकि अंग्रेजों के आगमन के बाद भारत का बँटवारा हुआ, परंतु भारतवर्ष की आत्मा कभी नहीं टूटी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान “भारत माता”, “वंदे मातरम्” और “सर्वधर्म समभाव” जैसे विचारों ने इस आत्मा को और मजबूती दी।
आधुनिक भारत में भारतवर्ष की समझ
1947 में भारत स्वतंत्र हुआ। संविधान में “भारत” और “इंडिया” दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया। परंतु आज का भारत केवल एक राज्य नहीं, बल्कि उस भारतवर्ष की उत्तराधिकारिणी है, जिसने हमें धर्म, ज्ञान, करुणा, सहिष्णुता और सत्य की परंपरा दी।
आज भी जब हम योग करते हैं, जब हम गीता पढ़ते हैं, जब हम किसी संत के उपदेश सुनते हैं, जब हम दीप जलाकर पूजा करते हैं या जब हम गाँव की मिट्टी में नंगे पाँव चलते हैं, तो हम उस भारतवर्ष की आत्मा से जुड़ जाते हैं।
भारतवर्ष केवल अतीत की एक परिकल्पना नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा है। आज भी वह भारतवर्ष जीवित है, हमारे विचारों में, हमारी बोली में, हमारे त्योहारों में और हमारी परंपराओं में।
निष्कर्ष
भारतवर्ष की समझ और अवधारणा एक विस्तृत, गहरी और सर्वसमावेशी परंपरा है। यह केवल भौगोलिक या राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि एक ऐसी सभ्यता है, जो हजारों वर्षों से मानवता, धर्म, सहिष्णुता और ज्ञान की मशाल जलाए हुए है। भारतवर्ष वह भूमि है, जहाँ जीवन को साधना माना गया, और मनुष्य को आत्मा के रूप में देखा गया।
आज का भारत यदि भारतवर्ष की मूल चेतना को बनाए रखे, तो वह न केवल विश्वगुरु बन सकता है, बल्कि एक ऐसा देश भी बन सकता है जो संसार को शांति, प्रेम और सहअस्तित्व का मार्ग दिखाए। भारतवर्ष को समझना केवल इतिहास को जानना नहीं है, यह आत्मा को जानने का प्रयास है।