BA 3rd Semester Political Science Major 3 Unit 4 Short Question Answer PDF Download

Q.1. प्रक्रियात्मक न्याय (Procedural Justice) 

Ans. प्रक्रियात्मक न्याय का विचार कानून के संदर्भ में काफी प्रभावशाली रहा है। प्रक्रियात्मक न्याय उस प्रक्रिया में निष्पक्षता के विचार की तरफ संकेत करता है जो झगड़ो को सुलझाती है तथा संसाधनों का आवंटन करती है। 

यह विचार काफी लोकप्रिय रहा है क्योंकि निष्पक्ष प्रक्रिया निष्पक्ष परिणामों की उत्तम गारंटी है । इस न्याय का संबंध निष्पक्ष प्रक्रिया द्वारा निर्णयों का निर्माण एवं कार्यान्वयन से है। यदि इस प्रकार की प्रक्रियाएँ अपनाई जायें तो लोगों को सम्मान एवं प्रतिष्ठा के साथ देखती हैं तो लोग कानून के प्रति आश्वस्त अनुभव करते हैं और इस प्रकार ऐसे परिणामों को स्वीकार करना भी आसान हो जाता है जो लोगों को पसंद नहीं होते। 

प्रक्रियात्मक न्याय का एक पक्ष न्याय के प्रशासन तथा कानूनी कार्यवाही के विवरण संबंधी चर्चा से संबंधित है। इस प्रकार के प्रक्रियात्मक न्याय को भारत में कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया (procedure established by law), अमरीका के कानून की उचित प्रक्रिया (due process of law), आस्ट्रेलिया में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता (procedural fairness) तथा कनाडा में प्राथमिक न्याय (primary law) के नाम से पुकारा जाता है। इसके अतिरिक्त प्रक्रियात्मक न्याय के विचार को गैर-कानूनी संदर्भों में भी लागू किया जा सकता है जहाँ झगड़ों के निवारण एवं सामाजिक लाभ एवं हानि को बांटने के लिए कुछ एक प्रक्रियाओं की आवश्यकता पड़ सकती है। 

जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक A Theory of Justice में प्रक्रियात्मक न्याय के तीन स्वरूप स्पष्ट किये हैं। न्याय की प्राथमिकताओं को निश्चित करने के बाद रॉल्स तीन प्रकार के न्याय में भेद करते हैं। ये हैं : 

(i) पूर्ण पक्रियात्मक न्याय (Perfect Procedural Justice), 

(ii) अपूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय (Imperfect Procedural Justice) और 

(iii) शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय (Pure Procedural Justice) 

पूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय का संबंध उन परिस्थितियों से होता है जहाँ निष्पक्ष वितरण का स्वतंत्र आधार हो तथा ऐसी प्रक्रिया भी हो जिससे इस संबंध में निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सके। अपूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय का अर्थ है वे परिस्थितियाँ जहाँ निष्पक्ष न्याय का आधार स्वतंत्र तो है परंतु ऐसी विधि (law) का अभाव हो जिससे इसे सुनिश्चित किया जा सके, ऐसी स्थिति में अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि किसी विधि विशेष से अपेक्षित नतीजा निकलने की आशा संभावना मात्र है। शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय का संबंध उस स्थिति से है जहाँ निष्पक्ष निष्कर्ष का कोई स्वतंत्र आधार नहीं होता, केवल निष्पक्ष विधियों और प्रक्रियाओं का ही आधार होता है। प्रक्रियात्मक न्याय को तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं- 

1. परिणाम प्रारूप 2. संतुलन प्रारूप 3. साझेदारी स्वरूप । 


Q.2. शक्ति (Power) की परिभाषा 

Ans. कॉपलान के अनुसार, “शक्ति संगठित क्रिया द्वारा किसी आयोजन को पूरा करने की एक योग्यता है। 

मैकाइवर के अनुसार, “शक्ति से हमारा तात्पर्य व्यक्तियों या व्यवहार को नियमित और विनियमित करने या निदेशित करने की क्षमता से है । ” 

रॉबर्ट डॉल के शब्दों में, “शक्ति उन क्रियाओं का नाम है, जिनको राजनीति की संज्ञा दी गई है।” 

बर्टेण्ड रसेल के अनुसार, “शक्ति वांछित प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता है। ” मारगेंथू के अनुसार, “राजनीतिक शक्ति से राजकीय सत्ता धारण करनेवाले व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध तथा जनता के साथ उनके संबंध का बोध होता है। ” 

एम० जी० स्मिथ (M. G. Smith) के अनुसार, “शक्ति व्यक्तियों, समूहों, नियमों का, भौतिक साधनों में प्रतिशोध के होते हुए भी, स्वतंत्रतापूर्वक कदम उठाने की क्षमता का नाम है। 

आर0 एच0 टावनी (R.H. Tawney) ने शक्ति की परिभाषा करते हुए बताया है, “व्यक्तियों अथवा समूहों के आचरण में मनचाहा परिवर्तन कराने की किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के सामर्थ्य या क्षमता को शक्ति कहते हैं । ” 


Q.3. शक्ति के विभिन्न रूपं / प्रकार 

Ans. शक्ति का वर्गीकरण भी विभिन्न आधारों पर किया जाता है। बर्टेड रसेल ने अपनी पुस्तक पावर : ए न्यू सोशल एनालिसिस में शक्ति के तीन रूपों की चर्चा की है— परंपरागत शक्ति (Traditional power), क्रांतिकारी शक्ति (Revolutionary power) तथा नंगी शक्ति (Naked power ) । नंगी शक्ति को उन्होंने निरंकुश शक्ति के रूप में परिभाषित किया। इसी तरह औचित्य के आधार पर भी शक्ति के तीन रूप हैं- कानूनी या वैधानिक, परंपरागत तथा करिश्मावादी (Charismatic)। एक अन्य विद्वान बीयर्सटेड (Bierstedt ) ने भी शक्ति के विभिन्न रूपों की चर्चा की है। इन्होंने शक्ति के अनेक रूपों की चर्चा की है— 

(क) दृढ़ता के आधार पर – (i) प्रच्छन्न शक्ति, (ii) अभिव्यक्त शक्ति, 

(ख) बल-प्रयोग के आधार पर – (i) दमनात्मक शक्ति, (ii) अदमनात्मक शक्ति, 

(ग) औपचारिकता के आधार पर – (i) औपचारिक तथा (ii) अप्रत्यक्ष, 

(घ) प्रवाह तथा दिशा – दृष्टि के आधार पर – (i) एकपक्षीय, (ii) द्विपक्षीय तथा (iii) बहुपक्षीय, 

(ङ) केन्द्रीकरण के आधार पर – (i) संकेंद्रित, (ii) विकेंद्रित तथा (iii) विस्तृत, 

(च) क्षेत्रीयता के आधार पर – (i) अंतरर्राष्ट्रीय शक्ति, (ii) राष्ट्रीय शक्ति तथा (iii) भूखंड विशेष से संबद्ध शक्ति । 


Q.4. शक्ति के स्त्रोत (Source of Power) 

Ans. शक्ति के विभिन्न स्रोत हैं। शक्ति के विभिन्न स्रोतों में बल, बल-प्रयोग, राजनीतिक सत्ता, प्रशासकीय पद, सम्मान, आर्थिक साधन, व्यक्तिगत आकर्षण, प्रेम का प्रभाव, नैतिक आचरण इत्यादि के नाम लिए जा सकते हैं। यह निश्चित करना मुश्किल है कि शक्ति किन गुणों पर आधृत होती है। हम कह सकते हैं कि नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी, गाँधी और बुद्ध सभी शक्तिशाली थे, जबकि उनकी शक्ति के स्रोत – आधार अलग-अलग थे। समय और परिस्थिति के अनुसार शक्ति के स्रोत बदलते रहते हैं । फिर भी, सामान्य विवेचन के लिए शक्ति के दो स्रोतों की चर्चा की जा सकती है- (i) आंतरिक स्रोत तथा (ii) बाह्य स्रोत । 

(i) आंतरिक स्रोत : ज्ञान, व्यक्तिगत सम्मान, आत्मनियंत्रण, नैतिकता, प्रेम आदि ऐसे तत्व हैं, जो हमें शक्ति प्राप्ति में सहायता देते हैं। इन आंतरिक स्रोतों के द्वारा मनुष्य अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की क्षमता रखता है, तत्पश्चात् शक्ति से पूर्ण होता है। ज्ञान के द्वारा न केवल मनुष्य भौतिक चीजों पर नियंत्रण स्थापित करता है, वरन् नए लक्ष्यों एवं अवसरों को भी प्राप्त करता है। किसी-किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व और नैतिक बल ही शक्ति का आधार बन जाता है, जैसे- सुभाषचंद्र बोस तथा महात्मा गाँधी । 

(ii) बाह्य स्रोत : शक्ति के बाह्य स्रोतों में आर्थिक साधन तथा परिस्थितियों का महत्वपूर्ण स्थान है। आज जिसके पास आर्थिक साधन है, वह महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति का उपयोग करता है। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष शक्ति का एक महत्वपूर्ण बाह्य स्रोत संगठन है। शक्ति की दृष्टि से मनुष्य का सबसे बड़ा संगठन राज्य है, जो आवश्यकता पड़ने पर समाज के सारे साधनों को अपने हाथ में ले लेता है। बल-प्रयोग भी शक्ति का एक बाह्य स्रोत है। 


Q.5. सत्ता (Authority) की परिभाषा 

Ans. सत्ता वह आचरण है, जिसके आधार पर कोई भी अपनी शक्ति का प्रयोग करता है। हम कह सकते हैं कि अधिकारों को कानूनी रूप प्रदान करने वाली वस्तु को ही सत्ता कहा जाता है। यह प्रभाव तथा शक्ति जैसी राजनीतिक विचारों का मूल उपकरण है, साथ ही राजव्यवस्था – रूपी शरीर की आत्मा । सत्ता के अर्थ को हम शक्ति, प्रभाव तथा औचित्य के संदर्भ में ही समझ सकते हैं। सत्ता एक विशेष प्रकार का औचित्यपूर्ण प्रभाव है। 

बीयर्सटेड (Bierstedt) के अनुसार, सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्थात्मक अधिकार है, स्वयं शक्ति नहीं। स्पष्ट है कि अधिकार का सत्ता के साथ जुड़ा रहना आवश्यक है। 

बीच (Beach) ने सत्ता की व्याख्या करते हुए बताया है कि दूसरे के कार्यों को प्रभावित एवं निर्देशित करने के औचित्यपूर्ण अधिकार को सत्ता कहते हैं। 1955 ई0 में दी गई यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, सत्ता एक स्वीकृत, सम्मानित ज्ञान तथा औचित्यपूर्ण शक्ति है। 

हर्बर्ट साइमन के अनुसार, सत्ता का अस्तित्व तभी होता है, जब वरिष्ठ एवं अधीनस्थ के बीच संबंध स्थापित होता है। 

रो के अनुसार, सत्ता व्यक्ति या व्यक्तिसमूह के राजनीतिक निश्चयों के निर्माण तथा राजनीतिक व्यवहारों को प्रभावित करने का अधिकार है। स्पष्ट है कि सत्ता एक ऐसा सहमति और औचित्यपूर्ण अधिकार है, जो कानूनी दावे के साथ दूसरों के व्यवहार में परिवर्तन करने के लिए अपनाई जाती है। यह औपचारिक भी है, क्योंकि यह राजनीतिक दावे को प्रतिस्थापित करती है। 


Q.6. सत्ता के प्रकार 

Ans. मैक्स वेबर ने औचित्यपूर्णता के आधार पर सत्ता के तीन प्रकार बतलाये हैं- 

1. परम्परागत सत्ता (Traditional Authority) : परम्परागत सत्ता उस समय कहलाती है जब अधीनस्थ अभिकारी अथवा व्यक्ति वरिष्ठ अधिकारी की आज्ञाओं का पालन इस आभार पर करें कि इस प्रकार पालन होता आया है। इस प्रकार की सत्ता में अधीनस्थों को सेवक से अधिक नहीं समझा जाता। अधीनस्थ आज्ञापालन परम्पराओं के प्रतीक किसी व्यक्ति विशेष के कारण करते हैं। 

2. बौद्धिक – कानूनी ( Rational-Legal) : जब कोई नियम अथवा निर्देश अधीनस्थों द्वारा इस आधार पर स्वीकार किया जाये कि वह नियम अथवा निर्देश उच्च स्तर के अमूर्त नियमों के साथ सम्मत है, तब सत्ता को बौद्धिक कानूनी माना जाता है। इस प्रकार की सत्ता का उदाहरण आधुनिक नौकरशाही है। 

3. चमत्कारी सत्ता (Charismatic Authority) : जब अधीनस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ सत्ताधारी के आदेशों को उसके व्यक्तिगत चमत्कारी प्रभाव के कारण स्वीकार करते हैं तो इस प्रकार की सत्ता को चमत्कारी सत्ता कहा जाता है। इस सत्तास्थिति में अधीनस्थ व्यक्ति. अपने प्रिय नेता के अनुयायी होते हैं तथा वे उसके चमत्कारों अथवा आदर्शवादी व्यक्तित्व के कारण उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं। उदाहरणतया भारत में पण्डित जवाहरलाल नेहरु, तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा, इण्डोनेशिया में राष्ट्रपति सुकारनी की सत्ता का आधार उनका चमत्कारी व्यक्तित्व था । 


Q.7. औचित्यपूर्णता 

Ans. औचित्यपूर्णता राजनीतिक विश्लेषण की एक प्रमुख अवधारणा है। इसका स्वयं में अपना कोई मूल्य नहीं है, बल्कि यह संरचनाओं, कार्यों, निर्णयों, नीतियों आदि की औचित्यता सिद्ध करती है तथा उन्हें न्यायसंगत और नैतिक बनाती है। इसके अभाव में शक्ति केवल बल मात्र रह जाती है और शासक शासन करने का आधार खो बैठते हैं तथा विरोध, अशान्ति तथा विद्रोह आदि उत्पन्न होने लगते हैं। 

औचित्यपूर्णता शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर लेजिटिमैसी (Legitimacy) है जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द लेजिटिमम्स (Legitimums) से हुई है। इसका तात्पर्य वैधानिक कानूनी (Lawful) से लगाया गया है। 

सामान्य विज्ञान की अवधारणा के रूप में औचित्यपूर्णता (Legitimacy) का सम्बन्ध मात्र कानून से नहीं है, अपितु शासन एवं शासित के ऐसे मूल्यों एवं विश्वास से भी है जो शासन को न्यायसंगत बनाते हैं। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान में औचित्यता का अभिप्राय है, सामान्य स्वीकृत नियमों एवं क्रियाविधियों पर आधारित सत्ता का उपयोग या शक्ति का प्रयोग। 


Q.8. वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice) 

Ans. एक निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाज सभी के लिए समानता, निष्पक्षता और वस्तुओं, धन और सेवाओं के उचित वितरण की आवश्यकता को पूरा करता है ताकि समाज सुचारू रूप से चल सके। नैतिक दर्शन का वह क्षेत्र जो उचित वितरण को मानता है, उसे वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice) के रूप में जाना जाता है। यह एक प्रकार का सामाजिक न्याय भी है क्योंकि यह संसाधनों तक एक जैसी पहुँच और समान अधिकारों और अवसरों की चिंता करता है। 

दूसरे शब्दों में, वितरणात्मक न्याय एक प्रकार का सामाजिक न्याय है जो न केवल वस्तुओं, धन और सेवाओं का बल्कि अधिकारों और अवसरों का भी उचित और उपयुक्त वितरण सुनिश्चित करने का प्रयास करता है । 

सीमित संसाधनों वाले समाज में, उचित आवंटन का मुद्दा चुनौतीपूर्ण होने के साथ- साथ कई बहसों और विवादों का मुद्दा भी है। यहाँ, वितरणात्मक न्याय एक प्रमुख नैतिक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है जो सामाजिक वस्तुओं के प्रावधान पर लागू होता है। इसमें संसाधनों के आवंटन की निष्पक्षता और लोगों के बीच वांछित (डिजायर्ड) परिणामों का मूल्यांकन भी शामिल है। 


Q.9. वैश्विक न्याय की आवश्यकता (Global Justice) 

Ans. आज की दुनिया में असमानता और अन्याय की कई समस्याएँ हैं जो वैश्विक न्याय की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं। विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच भारी आर्थिक असमानता है। विकसित देशों के पास अत्यधिक संसाधन और धन है, जबकि विकासशील और अविकसित देशों में लोग बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं। इस असमानता का परिणाम यह होता है कि गरीब देशों के लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों से वंचित रहते हैं। 

पर्यावरणीय समस्याएँ भी वैश्विक न्याय की आवश्यकता को बढ़ाती हैं। जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों की कमी जैसी समस्याएँ अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की भांग करती हैं। यदि इन समस्याओं का समाधान नहीं किया गया, तो इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ेगा, खासकर उन देशों पर जो पहले से ही आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर हैं। 


Q.10. राजनीतिक बाध्यकारिता (Political Obligation) 

Ans. किसी भी राज्य के लिए नागरिकों द्वारा कानूनों का पालन करने की समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या होती है। इस दृष्टि से राजनीतिक बाध्यकारिता के विषय में जानकारी तथा विवेचन अनिवार्य हो जाता है। राजनीतिक बाध्यकारिता से अभिप्राय है कि राज्य के नागरिक कानूनों व उसकी आज्ञाओं का पालन करने के लिए क्यों बाध्य होते हैं ? राज्य का प्रमुख कार्य प्रशासन करना है जो वह अपने महत्त्वपूर्ण अंग सरकार द्वारा करता है। प्रशासन करने के क्रम में सरकार द्वारा कानून बनाये जाते हैं। इस सन्दर्भ में नागरिकों को अपने राज्य के कानून का पालन उनके लिए दायित्व बन जाता है। 


Q.11. राजनीतिक बाध्यकारिता की विशेषताएँ 

Ans. राजनीतिक बाध्यकारिता की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं- 

1. सुरक्षा : राजनीतिक बाध्यकारिता की मुख्य विशेषता यह है कि राज्य द्वारा निर्मित कानून का पालन व्यक्तियों से कराने की क्षमता रखती है, क्योंकि मनुष्य के व्यवहारों पर नियन्त्रण विधियों द्वारा किया जाता है और इस सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि कानून का पालन करें। 

2. कानून की पूरक अवधारणा : राजनीतिक बाध्यकारिता कानून की पूरक अवधारणा है। जहाँ कानून होते हैं, वहाँ राजनीतिक अवधारणा अनिवार्य होती है। कानून हो और उनका पालन न हो तो अराजकता है। कानून व्यवस्था के लिए जहाँ कानून होते हैं, वहाँ उनके नागरिकों द्वारा मान्यता भी अनिवार्य होती हैं। 

3. सुरक्षा : राजनीतिक बाध्यकारिता द्वारा नागरिकों के लिए कुछ सेवाओं का संकेत है। इसका अर्थ यह है कि राज्य अपने व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है तथा सामान्य जीवन की अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता है। 

4. नकारात्मक भाव का बोध नहीं : राजनीतिक बाध्यकारिता नकारात्मक भाव का बोध नहीं कराता बल्कि इसे लोगों के दायित्व के साथ जोड़ा तथा समझा जा सकता है। 


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