BA 3rd Semester Political Science Major 3 Unit 2 Short Question Answer PDF Download

Q.1. अधिकारों की आवश्यकता 

Ans. मनुष्य के जीवन का लक्ष्य उत्तम जीवन व्यतीत करता है, जो समाज में ही संभव है। मनुष्य अपने जीवन के विकास के लिए कुछ सुविधाएँ चाहता है, जिसके फलस्वरूप वह समाज के सामने कुछ माँगे रखता है। जो माँगे व्यक्तिगत और सार्वजनिक कल्याण के लिए आवश्यक होती हैं, उन्हें समाज स्वीकार कर लेता है। समाज द्वारा स्वीकृत ऐसी माँगो को ही अधिकार कहते हैं। इन अधिकारों के द्वारा ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। इन अधिकारों में जीवन का अधिकार, आने-जाने की स्वतंत्रता का अधिकार, संगठन बनाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि आते हैं। मानव-जीवन में इन अधिकारों की महत्ता बहुत अधिक है। लास्की ने ठीक ही कहा है कि “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं, जिनके बिना साधारणतः कोई मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता।’ 

मानव-जीवन में अधिकारों की महत्ता का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः समाज का यह कर्तव्य है कि वह व्यक्तियों के विकास के लिए सभी तरह के अवसर उपस्थित करे। अधिकार भी एक तरह का अवसर है, जो समाज द्वारा मनुष्य को उसके विकास हेतु प्रदान किया जाता है। इस प्रकार, विकसित समाज में ही अधिकारों की उत्पत्ति होती है। जंगल या पहाड़ों की गुफाओं में रहनेवाले मनुष्यों द्वारा निर्मित समाज में अधिकारों की उत्पत्ति नहीं की जा सकती। 


Q.2. प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights)

Ans. अधिकारों की उत्पत्ति, विकास और राज्य तथा अधिकार के बीच संबंध आदि के विषय में विभिन्न सिद्धांत प्रचलित हैं। उनमें प्राकृतिक अधिकार सिद्धांत भी एक है। प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत बहुत प्राचीन सिद्धांत हैं। सर्वप्रथम इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्राचीन यूनानी ओर रोमन दार्शनिकों ने किया था और वैयक्तिक अधिकारों को प्रकृति की देन बताया था। सिसरो, हॉब्स, लॉक और रूसो इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक हैं। इन विचारकों के अनुसार, प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो अपनी सत्ता के लिए राज्य पर निर्भर नहीं करते। ये अधिकार मनुष्य को प्रकृति द्वारा प्राप्त होते हैं और समाज या राज्यं न तो इन्हें मर्यादित कर सकता है और न इनका अंत ही कर सकता है। डॉ० आशीर्वादम के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकार मनुष्य की प्रकृति के साथ उसी प्रकार जुड़े हुए हैं, जिस प्रकार शरीर में चमड़े और उसके रंग का संबंध है।” जैसे ही मनुष्य जन्म लेता है, उसे ये अधिकार मिल जाते हैं। इन अधिकारों का राज्य से कोई संबंध नहीं है। इस सिद्धांत का व्यापक प्रभाव पड़ा है। फ्रांसीसी क्रांति के घोषणापत्र में स्वतंत्रता, समानता, सुरक्षा एवं संपत्ति को मानव का प्राकृतिक अधिकार बताया गया। 

परंतु, प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत की आलोचनाएँ भी की गई हैं- 

1. ‘प्रकृति’ शब्द का स्पष्ट अर्थ नहीं रहने के कारण प्राकृतिक अधिकारों की निश्चित सूची तैयार नहीं की जा सकती है। 

2. प्राकृतिक अधिकारों में विश्वास रखनेवाले इन अधिकारों के संबंध में भी एकमत नहीं हैं। 

3. प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के अनुसार परस्पर विरोधी अधिकार भी बताए जाते हैं। 

4. प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का अर्थ यह है कि राज्य एवं सामाजिक संस्थाएँ कृत्रिम हैं और उन्होंने मानव के कुछ अधिकारों को छीन लिया है, जो उसे प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त थे। परंतु, यह विचार भ्रामक एवं हानिकारक हैं। 

3. इसके अनुसार अधिकार तथा कर्तव्य का अस्तित्व समाज से पृथक भी परंतु यह गलत धारणा है। समाज से पृथक अधिकारों की कल्पना नहीं की जा सकती। इस सिद्धांत के प्रतिपादक अधिकारों की प्रकृति पर विचार नहीं कर प्राकृतिक अवस्था की प्रकृति पर विचार करते है। 

आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों से अभिप्राय उन अधिकारी से है, जो मानव के विकास के लिए आवश्यक है। इन्हें प्राकृतिक अधिकार न कहकर मौलिक अधिकार के नाम से पुकारा जाता है। 


Q.3. कानूनी अधिकार (Legal Rights)

Ans. वैधानिक सिद्धांत के अनुसार राज्य ही अधिकारों का जन्मदाता है। दूसरे शब्दों में, अधिकार राज्यप्रदत्त है और राज्य ही अधिकारों का खोत है। अधिकार का संबंध देश के कानून से होता है। इस प्रकार अधिकार प्राकृतिक नहीं होकर कृत्रिम होते हैं। ये राज्य के नियमों द्वारा प्रदत्त किए जाते हैं, इसलिए किसी व्यक्ति को अधिकार वहाँ तक ही प्राप्त हैं, जहाँ तक राज्य के नियम उन्हें मान्यता प्रदान करते है। इस सिद्धांत के समर्थक बेथम और आस्टिन है। 

इस सिद्धांत की निम्नलिखित रूप में कटु आलोचना की गई है- 

1. लास्की के अनुसार, “अधिकारों का वैधानिक सिद्धांत यह तो बता सकता है कि राज्य का स्वभाव या चरित्र कैसा है; परंतु, यह नहीं बता सकता है कि जिन अधिकारों को मान्यता दी गई है, वे मान्यता के योग्य है अथवा नहीं।” 

2. यह सिद्धांत राज्य को अधिकारों का जनक मानकर राज्य की निरंकुशता का पोषण करता है। 

3. कानून पर आधृत अधिकार कभी स्थायी नहीं हो सकते, अतः, केवल कानून को ही अधिकारों का स्त्रोत नहीं माना जा सकता है। 

4. इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार नहीं है। लेकिन, ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जब व्यक्ति राज्य का विरोध करने पर विवश हो जाए। 

5. यह सिद्धांत अधिकारों के पूर्ण क्षेत्र का विश्लेषण नहीं करता ।  


Q.4. मानवाधिकार (Human Rights) 

Ans. संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के चार्टर ने मानवाधिकार के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें स्पष्ट की गई हैं- 

(1) चार्टर को प्रस्तावना में ‘मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरवपूर्ण महत्त्व में पुरुष तथा महिलाओं के लिए समान अधिकारों की बात व्यक्त की गई है। 

(2) अनुच्छेद । में उल्लेख है, “मानवाधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा जाति, लिंग, भाषा तथा धर्म के भेदभाव के बिना मूलभूत अधिकारों को बढ़ावा देना तथा प्रोत्साहित करना।” 

(3) अनुच्छेद 13 में मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रदान करने की बात कही गई है। 

इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 55,56 तथा 62 में मानवाधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा पर विशेष बल दिया गया है। चार्टर के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र को मानवाधिकारों के सम्बन्ध में केवल प्रोत्साहन देने का ही अधिकार है, कोई कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है। 

इस दृष्टि से व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा उसके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए राज्य नागरिकों को जो सुविधाएँ प्रदान करता है उनका नाम अधिकार है। विश्व शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इन अधिकारों का अत्यधिक महत्त्व है। 

” मावाधिकार से व्यक्ति के जीवन (प्राण), स्वतन्त्रता, समानता एवं गरिमा से सम्बन्धित ऐसे अधिकार अभिप्रेरित हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत अथवा अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सन्निहित हैं तथा भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय हैं। ” 

मानवाधिकारों की यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक एवं विस्तृत है। इसमें अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं एवं अभिसमयों में समाहित तथा भारतीय संविधान द्वारा प्रत्याभूत जीवन, स्वतन्त्रता, समानता तथा वैयक्तिक गरिमा से सम्बद्ध अधिकारों को सम्मिलित किया गया है। इसका मूल लक्ष्य मानव जीवन तथा उसकी गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखना है। 


Q.5. अधिकार (Rights) की परिभाषा 

Ans. आज के प्रजातंत्रात्मक युग में अधिकार और कर्तव्य को जीवन-आधार के रूप में स्वीकार किया गया है। मानवीय विकास के लिए ये आज आवश्यक तत्व हो गए हैं। अधिकारों की सृष्टि समाज द्वारा होती है, राज्य द्वारा नहीं। राज्य तो सिर्फ अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। लॉस्की ने भी कहा है, “राज्य अधिकारों का निर्माण नहीं करता, बल्कि उनको मान्यता प्रदान करता है तथा किसी समय राज्य के स्वरूप को उसके द्वारा अधिकारों की मान्यता के आधार पर जाना जा सकता है।” समाज सिर्फ ऐसी ही माँगों को स्वीकार करता है जो आवश्यक है और जिनमें सार्वजनिक कल्याण की भावना निहित है। 

अधिकार-संबंधी उपर्युक्त विवेचन के बाद चार तथ्य दीख पड़ते हैं। ये अधिकार के अर्थ का स्पष्ट रूप से संकेत करते हैं- (i) अधिकार समाज की सृष्टि है, (ii) समाज से बाहर अधिकारों की सृष्टि नहीं होती, (iii) अधिकार का आधार सार्वजनिक कल्याण है। (iv) अधिकार का महत्व उसके उपयोग में है । 

अधिकार’ की परिभाषा विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न रूपों में दी गई है। 

1. लॉस्की : अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना साधारणतः कोई मनुष्य अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता। 

2. हॉलैंड : अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कार्यों को समाज के मत और शक्ति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है। 

3. ग्रीन : अधिकार वह शक्ति है जिसकी लोक-कल्याण के लिए ही माँग की जाती है और मान्यता भी प्राप्त होती है। 

4. मैक्कन : अधिकार सामाजिक हितार्थ कुछ लाभदायक परिस्थितियाँ हैं जो नागरिक कें वास्तविक विकास के लिए आवश्यक है। 


Q.6. अधिकार (Rights) के तत्त्व

Ans. अधिकार के तत्त्व निम्न होते हैं- 

1. अधिकार सामाजिक हैं (Rights exit only in Society) : अधिकार समाज में रहकर ही प्रयोग किया जा सकता है। समाज के बाहर अधिकार की कल्पना नहीं की जा सकती, जो मनुष्य अकेला किसी जंगल की कुटिया में निवास करता है, उसके लिए अधिकारों का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। इसके अतिरिक्त समाज द्वारा स्वीकृत माँग या दावा अधिकार का रूप धारण करता है। 

2. अधिकार का आधार सामाजिक कल्याण (Based on Social Welfare) : यद्यपि अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्त्व के विकास के लिए समाज द्वारा जुटाये अवसर, सुविधाएँ या परिस्थितियाँ हैं किन्तु उनका आधार सामाजिक कल्याण है। इसके दो अर्थ हैं–प्रथम, कोई भी मनुष्य अपने अधिकारों का इस तरह से प्रयोग करे, जिससे समाज को लाभ हो। द्वितीय, प्रत्येक व्यक्ति समाज की प्रभावशाली इकाई है, उसके व्यक्तित्व के विकास और उसके वास्तविक कल्याण में समाज का हित स्वयंसिद्ध है। 

3. अधिकार सार्वजनिक ( Universal) होते हैं : अधिकार सबके लिए समान होते हैं, क्योंकि अधिकारों द्वारा सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास का अवसर प्राप्त होता है। अधिकार देश के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होते हैं। 

4. अधिकार का कर्त्तव्यों से घनिष्ठतः सम्बन्ध है (Rights Involve Duties) : अधिकार और कर्त्तव्यों का अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं । एक का कर्त्तव्य दूसरों का अधिकार होता है। 

5. अधिकार नैतिकता पर आधारित है (Rights are ‘Rights’, not ‘Wrong’s) : कोई भी अधिकार अनैतिक कार्य करने के लिए प्रदान नहीं किया जा सकता। मनुष्य अपने से सम्बन्धित कार्यों में अधिकार का अनैतिक रूप से प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि मानव जीवन एक सामाजिक निधि है। 

संक्षेप में, अधिकारों के पीछे समाज की शक्ति छिपी होती है। यदि किसी माँग को. समाज स्वीकार नहीं करेगा तो वह अधिकार नहीं हो सकता। अधिकारों का निर्जन से कोई सम्बन्ध नहीं। 


Q.7. अधिकारों का कानूनी सिद्धान्त (Legal Theory of Rights)

Ans. अधिकारों के कानूनी सिद्धान्त के अनुसार, अधिकार राज्य द्वारा निर्मित कानून की देन हैं। ये राज्य की इच्छा तथा कानून का परिणाम होते हैं। उन्हीं अधिकारों का हम वास्तविक रूप से उपभोग कर सकते हैं, जिन्हें कानून मान्यता देता है। जिन अधिकारों को कानून मान्यता नहीं देता है वे अधिकार नहीं होते हैं। अधिकार प्राकृतिक तथा निरपेक्ष नहीं होते हैं। वे देश, समय व परिस्थिति के अनुसार कानून की देन होते हैं। राज्य कानूनों के माध्यम से नए अधिकारों को जन्म देता है तथा पुराने अधिकारों को समाप्त भी कर सकता है। इस प्रकार अधिकार कृत्रिम हैं, स्वाभाविक या प्राकृतिक नहीं । जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार कानून की देन हैं। इन सबका निर्धारण राज्य करता है। प्राकृतिक अधिकारों का आधार भी कानून ही हैं क्योंकि जो प्राकृतिक अधिकार अनावश्यक हैं तथा कानून से मेल नहीं खाते, उन्हें मान्यता प्राप्त नहीं होती है। 

बेन्थम, ऑस्टिन व हॉलैण्ड आदि विचारकों ने इस कानूनी अधिकार के सिद्धान्त का समर्थन किया है। बेन्थम के अनुसार, “उचित अर्थ में अधिकार विधि की ही कृति हैं। ‘ आधुनिक काल में इसे यथार्थवादी सिद्धान्त कहा जाता है, क्योंकि इसके अनुसार अधिकार का आधार नैतिकता नहीं वरन् यथार्थ है तथा उसका आधार राज्य और कानून है ।  


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