BA 3rd Semester Geography Minor 3 Unit 1 Short Question Answer PDF Download

Table of Contents

Q.1. आर्थिक भूगोल से आप क्या समझते हैं ? 

Ans. आर्थिक भूगोल मानव भूगोल की एक प्रमुख शाखा है, जिसके अन्तर्गत मानव के आर्थिक क्रिया-कलापों का विश्लेषण किया जाता है। पृथ्वी तल पर प्राकृतिक, जैविक आदि तत्त्वों में भिन्नता मिलने के कारण आर्थिक कार्यों में भी विभिन्नता मिलती है क्योंकि मनुष्य के आर्थिक क्रिया-कलाप इन विभिन्न जैविक, प्राकृतिक और मानवीय तत्त्वों तथा उनके अन्तर्सम्बन्धी के प्रतिफल होते हैं। इसीलिए आर्थिक कार्यों में क्षेत्रीय विभिन्नता मिलना स्वाभाविक है। रिचार्ड हार्ट शोन महोदय ने भूगोल की परिभाषा इसप्रकार दी हैं- ‘भूगोल धरातल पर मिलने वाली क्षेत्रीय विभिन्नताओं का यथार्थ, क्रमबद्ध तथा युक्तिसंगत वर्णन एवं व्याख्या करता है।


Q.2. आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र के बारे में बताएँ । 

Ans. आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र : आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत मानव की आर्थिक क्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है। आर्थिक क्रियाओं का स्वरूप व्यापक होने के कारण आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक है। आर्थिक क्रियाओं में प्राकृतिक एवं मानवीय तत्त्वों का योगदान रहता है। अत:, ये सब आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं जिनका विवरण निम्नांकित है- 

(1) प्राकृतिक संसाधन : प्राकृतिक संसाधन आधारभूत तत्त्व हैं जिनके अन्तर्गत मनुष्य के लिए उपयोगी प्रकृति प्रदत्त पदार्थ आते हैं। इसके अन्तर्गत अवस्थिति, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, खनिज, ऊर्जा संसाधन, जल आदि आते हैं। 

(2) जनसंख्या : यह भी आर्थिक भूगोल का आधारभूत तत्त्व है क्योंकि सभी क्रिया- कलाप जनसंख्या के द्वारा ही जनसंख्या के लिए होते हैं। इसमें उसके वितरण एवं घनत्व, जनांकिकी विशेषताएँ, आयुवर्ग, शिक्षा, तकनीक तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ आती हैं। जो मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। 

(3) आर्थिक क्रियाएँ : मनुष्य के वे कार्य जिनसे विविध वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है तथा जो मानव के लिए उपयोगी होते हैं, आर्थिक कार्य कहे जाते हैं। इनके अन्तर्गत उत्पादन, विनिमय एवं वितरण आदि आते हैं। 


Q.3. आर्थिक भूगोल के कितने उपागम हैं ? बताएँ । 

Ans. आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र एवं विकास-क्रम आदि के आधार पर इसके उपागमों को तीन वर्गों में बाँट सकते हैं-

(1) क्रमबद्ध उपागम (Systematic Approach) : इस उपागम के अन्तर्गत किसी भी आर्थिक कार्य या वस्तु की विश्व वितरण-संबंधी सामान्य विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। यह उपागम दो प्रकार का होता है- 

(i) पण्यवस्तु उपागम : इसके अन्तगत प्रत्येक उत्पादन वस्तु, जैसे – गेहूँ, चावल, कोयला, लोहा आदि के विश्व वितरण प्रतिरूप का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है। (ii) व्यवसायगत उपागम : इसके अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु का अलग-अलग विश्लेषण न करके, प्रत्येक व्यवसाय का अलग-अलग विश्लेषण करते हैं, जैसे- प्राथमिक संग्रह एवं आखेट, कृषि, उद्योग, खनन आदि। 

(2) प्रादेशिक उपागम : इस उपागम के अन्तर्गत पहले विश्व को कुछ प्रदेशों में बाँटने का प्रयास किया जाता है। उसके पश्चात् प्रत्येक प्रदेश का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। आर्थिक भूगोल के प्रारम्भिक युग में इस उपागम का व्यवहार अधिक होता था । 

(3) सैद्धान्तकि उपागम : इस उपागम के अन्तर्गत किसी भी वस्तु अथवा प्रदेश की विशेषताओं एवं वितरण प्रतिरूप अर्न्तसम्बन्ध का विश्लेषण कुछ प्रतिपादित सिद्धान्तों के सन्दर्भ में किया जाता है। इस उपागम में प्रमुख उद्देश्य सिद्धांतों की व्याख्या करना होता है, वितरण प्रतिरूप का विश्लेषण नहीं । 

उपर्युक्त तीनों उपागम एक-दूसरे के पूरक हैं। इनके संतुलित उपयोग से ही आर्थिक भूगोल का अध्ययन सही ढंग से किया जा सकता है। 


Q.4. प्राथमिक उत्पादन-संबंधी व्यवसाय (Primary Occupations) से क्या समझते हैं ? 

Ans. प्राथमिक उत्पादन-संबंधी व्यवसाय : प्राथमिक अथवा प्रारम्भिक व्यवसाय वे व्यवसाय हैं जिनके द्वारा मानव प्राकृतिक संसाधनों का प्रत्यक्ष उपयोग करता है। कृषि कार्य में मिट्टी का प्रत्यक्ष उपयोग फसल उगाने के लिए किया जाता है। इसीप्रकार जल क्षेत्रों में मछली पकड़ना, खानों से खनिज निकालना, वनों से लकड़ियाँ काटना, फल एकत्रित करना, पशुओं से ऊन, चमड़ा, बाल, खालें, हड्डियाँ आदि प्राप्त करना प्राथमिक उत्पादन व्यवसाय हैं। इनसे संबंधित उद्योगों को ‘प्राथमिक व्यवसाय’ (Primary Occupations) कहा जाता है, जैसे- कृषि करना, खानें खोदना, मछली पकड़ना, आखेट करना, वस्तुओं का संचय करना, वन-संबंधी अन्य उद्योग आदि । 

मानव प्राचीन काल से ही इन वस्तुओं को प्रकृति से प्राप्त करता चला आ रहा है तथा त्रकृति से उन वस्तुओं को बढ़ाने, उत्पन्न करने में सहयोग करता है। 


Q.5. गौण उत्पादन-संबंधी व्यवसाय (Secondary Occupations) से आप क्या समझते हैं ? 

Ans. गौण उत्पादन-संबंधी व्यवसाय : इन व्यवसायों के अन्तर्गत प्रकृतिदत्त संसाधनों का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं किया जाता वरन् उनको साफ, परिष्कृत अथवा उनका रूप परिवत्तित कर उपयोग के योग्य बनाया जाता है। इससे इनके मूल्य में वृद्धि हो जाती है, जैसे- लोहे को गलाकर इस्पात के यन्त्र अथवा अन्य वस्तुओं का निर्माण करना, गेहूँ से आटा अथवा मैदा तैयार करना, कपास अथवा ऊन अथवा रेशम से कपड़ा तैयार करना, लकड़ी से फर्नीचर बनाना, कागज बनाना आदि। इन वस्तुओं को तैयार करनेवाले उद्योगों को ‘गौण व्यवसाय’ (Secondary Occupations) कहा जाता है। इनके अन्तर्गत सभी प्रकार के निर्माणात्मक उद्योग (Manufacturing Industries) सम्मिलित किए जाते हैं। 

विश्व के समस्त देशों में अनेक प्रकार के गौण उद्योगों का विकास किया गया है जिनमें लोहा-इस्पात, वस्त्र, रसायन, रबड़ उद्योग आदि हैं जिनका विकास प्राथमिक वस्तुओं के परिष्कृत किये जाने तथा उनको अधिक उपयोगी बनाने के लिए किया जाता है। 


Q.6. तृतीय उत्पादन व्यवसाय (Tertiary Occupations) के बारे में बताएँ । 

Ans. तृतीय उत्पादन व्यवसाय : इस प्रकार के व्यवसायों के अन्तर्गत वे सभी व्यवसाय सम्मिलित किए जाते हैं जो प्राथमिक अथवा गौण उत्पादन की वस्तुओं को उपभोक्ता और उद्योगपतियों तक पहुँचाने से संबंधित होते हैं। इसप्रकार के व्यवसायों के अन्तर्गत वस्तुओं का स्थानान्तरण, संचार और संवादवाहन सेवाओं, वितरण एवं संस्थाओं और व्यक्तियों की सेवाओ, जैसे व्यापारी (merchants), दलाल (brokers), पूँजीपाते ( bankers) आदि को सम्मिलित किया जाता है। 


Q.7. गौण व्यवसायों की विशेषताएँ बताएँ । 

Ans. गौण व्यवसायों की विशेषताओं को निम्नांकित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है 

1. इसप्रकार के व्यवसायों में कच्चा माल प्राथमिक उद्योगों द्वारा उपलब्ध कराया जाता अत:, यह क्रिया प्राथमिक व्यवसाय से संबंधित है। 

2. इस कन्चे माल को परिष्कृत, संशोधित करने के लिए शक्ति का उपयोग किया जाता है। 

3. मानव क्रिया तथा मस्तिष्क का उपयोग विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के निर्माण के लिए किया जाता है। 

4. गौण उत्पादन व्यवसायों के लिए आवश्यक पूँजी की भी आवश्यकता होती है। साथ ही बड़े-बड़े कारखाने तथा श्रमिकों की भी आवश्यकता होती है। गौण उत्पादन व्यवसायां द्वारा उत्पादित वस्तु का उपभोग अधिक समय तक किया जा सकता है तथा उसका उपयोग दूसरे स्थानों पर भी किया जा सकता है। 


Q.8. आर्थिक भूगोल एवं अर्थशास्त्र में सम्बन्ध एवं अन्तर स्पष्ट करें।  

Ans. अर्थशास्त्र अर्थतन्त्र, अर्थव्यवस्था एवं वित्त, मौद्रिक एवं बैंकिंग आदि व्यवस्थाओं का संकल्पनात्मक अध्ययन है। इसमें उपभोग, विनमय, मुद्रा आदि के घटकों का विश्वव्यापी एवं सैद्धांतिक अध्ययन विशेष महत्त्वपूर्ण रहा है। अब इसका व्यावहारिक पक्ष भी महत्त्वपूर्ण बनने, से देशवार व्यवसाय एवं आर्थिक क्रियाओं का वर्णन किया जाता है। आर्थिक भूगोल एवं अर्थशास्त्र आपस में निकट से सम्बन्धित रहे हैं क्योंकि विश्वव्यापी या देश व प्रदेशवार आर्थिक स्वरूपों, व्यवसायों, उद्यमों, संसाधनों से संबंधित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन एवं विकास के आधार जैसे अध्ययन दोनों में ही किये जाते हैं। अर्थशास्त्र के संकल्पनात्मक या सैद्धान्तिक अध्ययन आर्थिकं भूगोल के लिए आज भी विशेष महत्त्व नहीं रखते। आर्थिक भूगोल में मानव के प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक व्यवसायों के विकास के स्वरूप का अध्ययन विशेषं महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक के कम या अधिक विकास के लिए उत्तरदायी भौगोलिक कारण भी इसके अध्ययन के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि बिना भौगोलिक पृष्ठभूमि के ऐसे किसी भी अध्ययन का आधार अधूरा ही बना रहेगा । 


Q.9 आर्थिक भूगोल के चार अंगों का वर्णन करें। 

Ans. आर्थिक भूगोल का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इसके अन्तर्गत आर्थिक भूगोल की कई शाखाओं का विकास हो चुका है, यथा संसाधन भूगोल, कृषि भूगोल, औद्योगिक भूगोल, परिवहन भूगोल और वाणिज्य भूगोल आदि । अध्ययन की पूर्णता और गहनता के लिए इसे सामान्यतः निम्नांकित भागों में विभक्त किया जाता है : 

(1) कृषि भूगोल (Agricultural Geography) : इसके अन्तर्गत उन परिस्थितियों का अध्ययन किया जाता है जो कृषि के विभिन्न उत्पादों की उत्पत्ति और उनके वितरण से सम्बन्धित हैं। वस्तुतः एक सफल कृषक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने खेत में पैदा की जाने वाली वस्तुओं की उत्पादन-सम्बन्धी अवस्थाओं – मिट्टी के उपजाऊपन, जल की मात्रा, प्रकाश और फसलों के बोने और काटने के समय आदि का ज्ञान प्राप्त करे। इसप्रकार की सूर्य के सूचनाएँ कृषि सम्बन्धी भूगोल के अध्ययन से ही प्राप्त की जा सकती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैण्ड में आर्थिक भूगोल की इस शाखा का बहुत विकास हुआ है। 

(2) औद्योगिक भूगोल ( Industrial Geography) : इसके अन्तर्गत भूमि से प्राप्त खनिज पदार्थों का वितरण, उत्पादन की समस्याओं तथा उत्पादित वस्तुओं की विक्रय समस्याओं का उनकी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में भौगोलिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है। इस शाखा के अध्ययन से यह ज्ञात होता हैं किस प्रकार किसी देश के भौगोलिक वातावरण में वहाँ के औद्योगिक साधनों का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सकता है। एक देश के कच्चे माल एवं खनिज और शक्ति के संसाधनों के उपयोग और वितरण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन करना ही औद्योगिक भूगोल का कार्य है। 

(3) वाणिज्यिक भूगोल (Commercial Geography) : इसके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न देशों के व्यापार, परिवहन के साधनों और व्यापारिक केन्द्रों के विकास और उन्नति के कारणों का अध्ययन किया जाता है। वास्तव में, इस भूगोल का अस्तित्त्व पृथक् नहीं है क्योंकि किसी भी देश का व्यापार उस देश के कृषि पदार्थों, खनिज पदार्थों एवं शक्ति के साधनों तथा औद्योगिक वस्तुओं के आधार पर ही होता है। 

(4) संसाधन भूगोल (Resource Geography) : मानव की समस्त आर्थिक क्रियाएँ पृथ्वी तल पर उपलब्ध विभिन्न संसाधनों के उपयोग से जुड़ी हुई हैं। अतः, विभिन्नं संसाधनों की उपलब्धता, वितरण, उपयोग तथा संरक्षण आदि विभिन्न पक्षों का गहन अध्ययन संसाधन भूगोल के अन्तर्गत किया जाता है। 


Q.10. आर्थिक भूगोल के अध्ययन के महत्त्व का वर्णन करें। 

Ans. पिछले कुछ समय में आर्थिक भूगोल के विविध पक्षों का बहुस्तरीय विकास हो चुका है। अतः, आज का आर्थिक भूगोल विशेष प्रगतिशील विज्ञान है। इसके अध्ययन से निम्नलिखित लाभ होते हैं : 

1. आर्थिक भूगोल हमें ऐसे प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति, प्राप्ति और वितरण आदि से परिचित करता है जिससे वर्त्तमान में किसी देश की आर्थिक उन्नति हो सकती है। 

2. किसी देश में पायी जानेवाली प्राकृतिक सम्पत्ति (वन्य पदार्थ व वन्य प्राणी, कृषि पदार्थ, पालतू जैव-जगत्, खनिज एवं ऊर्जा पदार्थ) का किस विधि द्वारा, कहाँ पर और किस कार्य के लिए उपयोग किया जा सकता है इसका ज्ञान हमें प्राप्त होता है। 

3. पृथ्वी के गर्भ में कौन-से खनिज पदार्थ छिपे पड़े हैं, इसका पता लगाकर वहाँ पर अनेक प्रकार के खनिजों पर आधारित उद्योगों की स्थापना की जा सकती है। आर्थिक भूगोल का अध्ययन इस बात की ओर संकेत करता है कि किन स्थानों पर कौन-सा विशेष उद्योग स्थापित किया जा सकता है। 

4. आर्थिक भूगोल के अध्ययन से यह बात ज्ञात हो सकती है कि विशेष जलवायु के अनुसार किसी देश की आश्यकताओं की पूर्ति के लिए कच्चा माल, भोज्य पदार्थ अथवा यन्त्र आदि कहाँ से प्राप्त किये जा सकते हैं तथा इन वस्तुओं को उपभोग केन्द्रों तक पहुँचाने के लिए किस प्रकार के विभिन्न परिवहन साधनों का सहारा लेना पड़ेगा। 

5. विश्व के विभिन्न भागों में मानव समुदाय किस प्रकार अपनी भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करता है? उसका रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा एवं अन्य सामाजिक परम्पराएँ आदि कैसी हैं? – या उसने जीवन-स्तर ऊँचा उठाने के लिए प्राकृतिक साधनों का किस प्रकार उपयोग किया है? ये सब तथ्य आर्थिक भूगोल के अध्ययन से ज्ञात हो सकते हैं। किसी विशेष देश ने किसप्रकार अधिक व्यवस्थित एवं निरन्तर आर्थिक उन्नति की अथवा कोई अन्य देश क्यों इतना पिछड़ा है ? – यह भी आर्थिक भूगोल के अध्ययन द्वारा ज्ञात हो सकता है। 

6. आज के युग में वाणिज्य एवं अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए आर्थिक संसाधनों का समुचित ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि कोई भी देश इनमें स्वाबलम्बी नहीं है। पारस्परिक सहयोग की भावना के बिना न तो व्यक्ति और न ही किसी राष्ट्र का आर्थिक विकास सम्भव है।

अब यह निश्चित रूप से स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव की आवश्यकताएँ इतनी जटिल होती जा रही हैं कि आज कोई भी समुदाय या देश एकाकी नहीं रह सकता। उसे अन्य देशों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। इसी भावना ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को जन्म दिया है और इसीलिए अब सम्पूर्ण विश्व को एक विश्व (One World) माना जाने लगा है। 

स्पष्टतः जीविकोपार्जन के सभी क्षेत्रों में संलग्न व्यक्तियों (बैंकर, व्यापारी, बीमा कर्मचारी, विक्रेता, विज्ञानकर्ता, उद्योगपति, कृषक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री) के लिए आर्थिक भूगोल का सम्यक् ज्ञान होना अत्यावश्यक है। 


Q.11. आर्थिक भूगोल के क्षेत्रों को बताएँ । 

Ans. भूतल पर प्राकृतिक संसाधनों का कहाँ, क्यों, कैसे और कब उपयोग किया जाता है—ऐसे प्रश्नों का विश्लेषणात्मक अध्ययन ही आर्थिक भूगोल का मूल मन्त्र है। विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में मानव समुदाय अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जीविकोपार्जन के भिन्न-भिन्न साधनों (लकड़ी काटना, मछली पकड़ना, शिकार करना, खेती करना, एकत्रित करना, खानें खोदना, उद्योग-धन्धे चलाना, व्यापार करना, नौकरी करना आदि व्यवसाय) भोज्यपदार्थ में लगा रहता है। इन आर्थिक प्रयत्नों पर मिट्टी, भूमि की संरचना और प्रकृति, जलवायु, खनिज संसाधन, भौगोलिक स्थिति, परिवहन की सुविधा, जनसंख्या घनत्व आदि वातावरण के विभिन्न अंगों का प्रभाव पड़ता है। अस्तु, आर्थिक भूगोल का मुख्य उद्देश्य मानव प्रयत्नों पर पड़नेवाले वातावरण के प्रभाव का अंकन कर उसका विश्लेषण करना है। 

आर्थिक भूगोल के अध्ययन-क्षेत्र के निम्नलिखित तीन भाग हैं 

(i) प्राकृतिक संसाधनों का मूल्यांकन (Appraisal) तथा मात्राकरण (Qualification) जिन्हें आर्थिक क्रियाओं में सम्मिलित किया जाता है। 

(ii) मानवीय संसाधनों का मात्राकरण तथा भावी संभावनाओं का आकलन। 

(iii) आर्थिक क्रियाओं का क्षेत्रीय / प्रादेशिक अध्ययन। 

आर्थिक भूगोल क्षेत्रीय/ प्रादेशिक जीवन स्तर के प्रारूपों का निरूपण करने के साथ उन प्रक्रियाओं का विवेचन करता है जिनसे मानव के जीवन-स्तर में प्रादेशिक असमानताएँ एवं विषमताएँ प्रकट होती हैं। 


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