प्रश्न- 10वीं शताब्दी तक चोलों के इतिहास का संक्षिप्त वर्णन करें।
दक्षिण भारत के राजवंशों में चोल वंश बहुत अधिक प्रसिद्ध है। उत्पत्ति एवं करिकाल पीछे देखें।
(1) नेदुयुदिकिल्ली (Neduyudikilli) : यह करिकाल का पुत्र था । इसका काल चोल वंश के लिए पतन काल था । करिकाल ने पाण्डयों और चेरों को दबाकर रखा था। उसकी मृत्यु के पश्चात् इन्होंने पुनः सिर उठाया और चोल राज्य पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये । चोल पल्लवों की बढ़ती हुई शक्ति का सामना नहीं कर सके। सम्भवतः चोलों की नौ सेना भी कमजोर हो गयी। इसीलिए समुद्री डाकुओं ने उसकी राजधानी पर आक्रमण किया और उसे नष्ट कर दिया। सातवीं शताब्दी में चोल का महत्त्व कम हो गया । ह्वेनसांग किसी चोल राजा का उल्लेख नहीं करता ।
(2) विजयालय (Vijayalaya ) : 850 ई० में चोलों ने फिर अपनी शक्ति जुटा ली ! इसका श्रेय विजयालय को है। यह पल्लवों का सामन्त था । इस समय पल्लवों और पाण्डयों में युद्ध हो रहा था। विजयालय ने पाण्डयों से तंजौर छीन लिया और दुर्गा के एक मन्दिर की स्थापना की।
(3) आदित्य प्रथम ( Adity I) : विजयालय की मृत्यु के पश्चात् 371 ई० में उसका पुत्र आदित्य प्रथम चोल गद्दी पर बैठा। यह भी पल्लवों का सामन्त था। पल्लवों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए पाण्ड्य नरेश वरगुण वर्मन द्वितीय ने चोल राज्य पर आक्रमण किया परन्तु पल्लवों, चोलों और गंगों ने मिलकर उसे पराजित कर दिया। इस विजय में योग देने के कारण पल्लव नरेश नृपतंतुंगवर्मन ने आदित्य के पैतृक राज्य में कुछ प्रदेश और मिला दिये। आदित्य प्रथम महत्त्वाकांक्षी राजा था। उसने अपने वंश को पूर्ण स्वतन्त्र करने के लिए अपने स्वामी पल्लव वंश के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और युद्ध में पल्लव नरेश अपराजित को मार डाला तथा सम्पूर्ण पल्लव राज्य पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार अब चोल राज्य की सीमायें राष्ट्र कूट राज्य तक विस्तृत हो गयीं ।
गंग नरेश पृथ्वीपति द्वितीय ने आदित्य प्रथम की अधीनता स्वीकार कर ली। आदित्य ने पाण्डय नरेश परान्तक वीर नारायण पर भी आक्रमण किया और उसे पराजित करके उससे कोंगू प्रदेश छीन लिया। उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय की पुत्री के साथ विवाह किया । उसने चेर वंश के साथ भी मित्रता कर ली और अपने पुत्र परान्तक का विवाह चेर नरेश स्थागुरवि की पुत्री के साथ कर दिया। आदित्य प्रथम शैव था। उसने कावेरी नदी के किनारे अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण कराया। 907 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।
(4) परान्तक I (Parantak I) : आदित्य प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र पंरान्तक प्रथम 907 ई० में शासक बना। इसने 48 वर्ष तक शासन किया। वह अपने पिता के समान महत्त्वाकांक्षी था। इसने राजा होते ही चारों ओर राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया। 910 ई० में इसने पाण्डयों के ऊपर आक्रमण किया । पाण्डयों का राजा मारवर्मन राजसिंह द्वितीय पराजित हुआ और उसने लंका के राज्य कस्सप पंचम से सहायता माँगी। लंका नरेश ने उसकी सहायता के लिए एक सेना भेजी, परन्तु परान्तक ने वेलूर के युद्ध में दोनों की सम्मिलित सेनाओं को पराजित किया। राजसिंह द्वितीय लंका भांग गया। कुछ समय पश्चात् परान्तक ने लंका पर आक्रमण किया, परन्तु वहाँ उसे सफलता नहीं मिली।
परान्तक ने बानों और वैदुम्बों को भी पराजित किया। उसे राष्ट्रकूट- नरेश कृष्ण द्वितीय से भी युद्ध करने पड़े। प्रारम्भ में उसे सफलता न मिली। उसने कृष्ण तृतीय को पराजित करके वीरचोल की उपाधि धारण की। कुछ समय पश्चात् कृष्ण तृतीय ने तत्कीलम् के युद्ध में परान्तक को पराजित करके उससे कोची और तंजौर के प्रदेश छीन लिये। इस युद्ध में परान्तक का बड़ा पुत्र राजादित्य भी मारा गया। इस पराजय से चोल राज्य अस्त-व्यस्त हो गया। 955 ई० में परान्तक की मृत्यु हो गई। परान्तक के समय में साहित्य और कला की उन्नति हुई। उसी के समय संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वेंकट माघव हुआ जिसने ऋग्वेद पर टीका लिखी। इसी समय त्रिचनापल्ली जिले में कोरंगनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया गया।.
चोलों का पतन (Downfall of the Cholas) : परान्तक प्रथम की मृत्यु के पश्चात् 30 वर्ष का काल चोल इतिहास में पतन का काल माना जाता है। इस मध्य कोई ऐसा राजा न हुआ जो चोलों की खराब राजनैतिक दशा को रोक सके। परान्तक प्रथम के पश्चात् उसके पुत्र गहरादित्य ने दो वर्ष तक शासन किया। इसके समय में चोल राज्य का क्षेत्र छोटा हो गया था। गहरादित्य के बाद 1 वर्ष तक उसके भाई अरिंजय ने और अरिंजय के पश्चात् सुन्दरचोल परान्तक द्वितीय ने 957 ईसा से 973 ई० तक शासन किया। यह परान्तक द्वितीय अरिंजय का पुत्र था और पतन काल के सभी राजाओं से योग्य था। इसने पाण्डय नरेश वीर को पराजित किया। वीर युद्ध में मारा गया । परान्तक द्वितीय ने पाण्डयों के मित्र लंका- नरेश महेन्द्र चतुर्थ पर भी आक्रमण किया, परन्तु उसे सफलता न मिली।
969 ई० में गहरादित्य के पुत्र उत्तम चोल ने षड्यन्त्र करके परान्तक द्वितीय के पुत्र एवं युवराज आदित्य द्वितीय को मार डाला और स्वयं अपने को उत्तराधिकारी घोषित किया। 973 ई० में परानतक द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उत्तम चोल राजा हुआ। इस समय तक तैलप द्वितीय रालुक्यों के उदय के कारण राष्ट्रकूटों का पतन हो गया था। इससे लाभ उठाकर चोलों ने अपने प्राचीन राज्य के कुछ भाग पर पुनः अधिकार कर लिया था। उत्तम चोल को चालुक्य नरेश तैल द्वितीय के विरुद्ध सफलता न मिली। उसे तैल ने पराजित कर दिया।
चोल वंश की पुनः स्थापना और राजराज चोल (Re-establishment of Chola dynasty and Raj Raj Chola) : चोल वंश की सत्ता की पुनः प्रतिष्ठा राजराज चोल ने की। यह परान्तक द्वितीय का पुत्र था। इसका प्रारम्भिक नाम अरुमोलिवर्मन था। 985 ई० में सिंहासन पर बैठने पर इसने राजराज की उपाधि धारण की। इसका 30 वर्ष का शासन काल चोल वंश की पुनः प्रतिष्ठा का काल था । इसने अनेकानेक राजाओं को पराजित करके अपने नैतृक राज्य को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया।
मूल्यांकन (Evaluation) : उसकी विजयों से स्पष्ट है कि राजराज एक महान् विजेता और साम्राज्यवादी शासक था। उसके साम्राज्य में तुंगभद्रा नदी के दक्षिण का सारा भारत, मालद्वीप और उत्तरी लंका शामिल थे। आन्ध्र प्रदेश उसके प्रभाव में था ।
विजेता होने के साथ-साथ वह एक कुशल प्रशासक भी था। उसने भूमि का निरीक्षण कराया तथा स्थानीय शासन को प्रोत्साहित किया। अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र राजेन्द्र को युवराज घोषित करके तथा उसे युद्ध और शान्ति के कार्यों में प्रशिक्षण देकर एक ओर तो उसने उत्तराधिकार युद्ध की सम्भावना को कम किया और दूसरी ओर राजपद ग्रहण करने के पूर्व युवराज को प्रशासन सम्बन्धी कार्यों से भली-भाँति परिचित करा देने की प्रथा अपनाई ।
राजराज शैव धर्मावलम्बी था। उसने शिवपादशेखर की उपाधि धारण की। उसने तंजौर में प्रसिद्ध राजराजेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया। इसके खर्च के लिए उसने अनेक गाँवों की आय निश्चित कर दी। परन्तु शैव होते हुए भी वह दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु था । उसने विष्णु भगवान के भी मन्दिन बरवाये। उसने नेगपटम में एक बौद्ध विहार बनवाने के लिए श्री विजय राज्य के शैलेन्द्रवंशीय राजा श्रीमार वियाजोत्तुंगवर्मन को सुविधा प्रदान की । स्वयं तंजौर के राजराजेश्वर मन्दिर पर भी बौद्ध मूर्तियों का निर्माण करवाया। इस प्रकार राजराज चोल वंश का एक प्रतिभा सम्पन्न नरेश था। उसमें विजेता, प्रशासक, धर्म सहिष्णु एवं कलाविद् के गुण विद्यमान थे।