प्रश्न- गुप्तकाल की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
गुप्त शासकों की शासन प्रणाली अत्यन्त उच्च कोटि की थी। उन्होंने एक सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित शासन प्रणाली की स्थापना की थी। गुप्तकाल में राजतंत्र तथा गणतंत्र दोनों प्रचलित थे | गणतंत्र अपने आन्तरिक मामलों में काफी हद तक स्वतंत्र थे परन्तु उन्हें गुप्त सम्राटों को अपना अधिस्वामी मानना पड़ता था । गुप्तकाल में देश के अधिकतर भाग में राजतंत्र प्रचलित था क्योंकि वहाँ पर गुप्त सम्राटों का प्रत्यक्ष राज्य था। गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत अनेक ऐसे सामन्त राज्य विद्यमान थे, जिनके शासकों को अपने राज्य के आन्तरिक शासन में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी ।
शासन- नीति : गुप्तों की शासन प्रणाली अत्यन्त उदार और लोकोपकारी थी । गुप्त सम्राट अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझते थे और उनकी नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते थे। चीनी यात्री फाहियान ने चन्द्रगुप्त द्वितीय की शासन नीति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “शासन में प्रजा के हित की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। शासन व्यवस्था अत्यन्त उदार थी और सम्राट जनता के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। राजा का राज्य कम से कम और साधारण नियमों के आधार पर चलाया जाता था । दण्ड विधान कठोर न था। देश में शांति तथा व्यवस्था स्थापित थी
1. केन्द्रीय शासन –
(i) राजा : गुप्त साम्राज्य का शासन सम्राट में केन्द्रित था। वह राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था तथा राज्य की समस्त सत्ता उसी के हाथ में थी । गुप्त सम्राट महाराजाधिराज; परम भट्टारक, परमेश्वर, चक्रवर्तिन, परमदैवत आदि उपाधियाँ धारण करते थे । राजा को देवतुल्य माना जाता था। राज्य की राजनैतिक सैनिक, प्रशासनिक तथा न्याय संबंधी सभी शक्तियाँ राजा के हाथ में केन्द्रित थीं। सम्राट ही मंत्रियों, प्रान्तपतियों, सेनापतियों एवं अन्य उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त करता था। राजा का पद वंशानुगत होता था। अधिकतर उसका बड़ा पुत्र ही उत्तराधिकारी बनाया जाता था। परन्तु कभी-कभी बड़े पुत्र के अयोग्य होने पर छोटा पुत्र भी राजा बनता था।
यद्यपि राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे, परन्तु वह स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश नहीं था। मन्त्रिपरिषद तथा परम्परागत नियमों आदि का उस पर अंकुश रहता था। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं के हाथों में भी पर्याप्त प्रशासन संबंधी शक्ति रहती थी और उनके कार्यों में राजा कम से कम हस्तक्षेप करता था। वास्तव में गुप्त सम्राट धर्म-परायण तथा प्रजावत्सल थे। वे अपनी प्रजा की नैतिक तथा भौतिक उन्नति करना अपना परम कर्तव्य मानते थे।
(ii) मन्त्रि-परिषद् : मौर्यो की भाँति गुप्त सम्राटों के समय में भी मंत्रि-परिषद् का गठन किया गया। गुप्त सम्राट शासन-संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद् से सहायता लेते थे । मन्त्रिपरिषद शासन-संबंधी विषयों पर विचार करती थी तथा निर्णयों को सम्राट के सामने प्रस्तुत करती थी । यद्यपि सम्राट मन्त्रिपरिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था, परन्तु बहुधा वह अपने मंत्रियों की सलाह का समुचित सम्मान करता था। मंत्रियों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था । प्रत्येक मंत्री अपने-अपने विभाग की देखभाल करता था।
गुप्त सम्राटों के उत्कीर्ण लेखों से मंत्रियों के पद नामों की जानकारी मिलती है, जैसे –
(a) सन्धि विग्रहिक : यह युद्ध तथा संधि का मन्त्री तथा परराष्ट्रमन्त्री होता था|
(b) महाबलाधिकृत : यह सुरक्षा व सेना का मंत्री होता था।
(c) महाअक्षपटलिक : यह राजकीय कागज-पत्रों का मन्त्री होता था ।
(d) आयुक्त : यह राजकोष का मन्त्री होता था ।
(e) दण्डपाशिक : यह पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था।
(f) महासेनापति : यह सैन्य विभाग का मंत्री था।
समस्त केन्द्रीय शासन कई विभागों में संगठित था, जिन्हें ‘अधिकरण’ कहते थे और जिनका प्रबन्ध मन्त्री, अमात्य, कुमारामात्य, युवराज-कुमारामात्य आदि अधिकारी करते थे। महासेनापति (सेना का सर्वोच्च अधिकारी), कुमारामात्य (आधुनिक आई. ए. एस. अधिकारियों के समान), दण्डपाशिक (पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी) आदि प्रमुख अधिकारी थे।
2. प्रान्तीय शासन : शासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य अनेक प्रान्तों में बँटा हुआ था। ये प्रान्त ‘देश’, ‘भुक्ति’ या ‘भोग’ कहलाते थे। गुप्तकालीन शिलालेखों में पुण्ड्रवर्धन, मन्दसौर, कौशाम्बी, मगध, सौराष्ट्र, काशी, मगध आदि भुक्तियों का उल्लेख मिलता है । भुक्ति के शासक को ‘उपरिक महाराज’, ‘भौगिक’, ‘गोप्ता या गोप’ कहा जाता था। प्रान्तीय शासकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। इन पदों पर राजकुमारों व सामन्त-नरेशों तथा उच्च कुल के सम्मानित व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था।
प्रान्तीय शासक अपने प्रान्त की बाह्य आक्रमणों तथा आन्तरिक विद्रोहों से रक्षा करने के लिए उत्तरदायी होते थे। अपने प्रान्त में शान्ति व व्यवस्था बनाये रखना, विद्रोहियों का दमन करना, प्रजा की भलाई करना आदि प्रान्तीय शासक के प्रमुख कर्तव्य थे। उन्हें अपने अधीनस्थ कर्मचारी नियुक्त करने का अधिकार था।
3. जिले का शासन : प्रत्येक प्रान्त अनेक जिलों में विभाजित था। जिलों को ‘विषय’ कहा जाता था। एक प्रान्त (भुक्ति) में कई ‘विषय’ होते थे। विषय का अधिकारी विषयपति कहलाता था । उसे कुमारामात्य अथवा आयुक्तक भी कहा जाता था। विषयपति की नियुक्ति बहुधा उपरिकमहाराज (प्रान्तीय शासक) के द्वारा की जाती थी और वह उसी के अनुशासन में रहता था। परन्तु कभी-कभी सम्राट भी विषयपतियों की नियुक्ति करता था । विषयपति का नगर कार्यालय ‘अधिष्ठान अधिकरण’ कहलाता था । विषयपति को परामर्श देने के लिए एक समिति होती थी जिसके सभासद विषय महत्तर (जिले के बड़े लोग ) कहलाते थे। इस समिति में निम्नलिखित सदस्य होते थे-
(i) नगर श्रेष्ठी : नगर का प्रधान सेठ या श्रेणी प्रमुख ।
(ii) सार्थवाह : नगर का प्रमुख व्यापारी अथवा व्यापारियों के निगम का मुखिया ।
(iii) प्रथम कुलिक : प्रधान शिल्पी अथवा शिल्प संघ का मुखिया ।
(iv) प्रथम कायस्थ : प्रधान लेखक या मुख्य लिपिक ।
(v) पुस्तपाल : राजकीय कागज पत्रों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी ।
इन सभी अधिकारियों का कार्यकाल कम से कम पांच वर्ष अवश्य होता था । विषयपति अपने प्रदेश में शांति व सुरक्षा की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी था । उसके अधीन दण्डपाशिक (पुलिस कर्मचारी), नौरोन्द्धरणिक (गुप्तचर पुलिस), दण्डनायक (सेना का अधिकारी), आरक्षाधिकृत ( जनता की रक्षा के लिए नियुक्त कर्मचारी) आदि कर्मचारी होते थे।
4. नगर- शासन : नगर का शासक ‘पुरापाल’ कहलाता था जो ‘कुमारामात्य’ की श्रेणी का होता था । पुरपाल की नियुक्ति बड़े-बड़े नगरों में होती थी । पुरपाल को आर्य नगर श्रेष्ठी भी कहा जाता था । नगरों का प्रबन्ध नगरपालिका द्वारा किया जाता था । नगरपालिका का अध्यक्ष ‘नगरपति’ कहलाता था। इसकी नियुक्ति विषयपति द्वारा होती थी । नगरपति को स्थानीय जनता से कर वसूल करवाने का अधिकार था। स्वास्थ्य और स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता था ।
5. ग्राम – शासन : शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम का मुख्य अधिकारी ‘ग्रामाध्यक्ष’ अथवा ‘भोजक’ कहलाता था । उसे ‘ग्रामिक’ या ‘महत्तर’ भी कहते थे। उसकी सहायता के लिए एक पांच सदस्यों की पंचायत होती थी जिसे पंच मण्डली अथवा जनपद कहा जाता था। ये सदस्य थे – ( 1 ) महत्तर ( गांव का मुख्य अथवा वृद्ध व्यक्ति), (2) अष्ट कुलाधिपति (आठ कुलों के मुखिया), (3) ग्रामिक (गाँव का प्रधान) तथा (4) कुटुम्बिन (परिवार का प्रमुख व्यक्ति) । इस पंचायत के अधीन एक से अधिक गांव होते थे। ग्राम पंचायत के निम्नलिखित कार्य थे—
(i) ग्राम की सुरक्षा का ध्यान रखना, शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना ।
(ii) भूमि कर वसूल करना ।
(iii) पारस्परिक वाद-विवादों का निपटारा करना ।
(iv) ग्रामवासियों के सार्वजनिक हित के कार्य करना ।
कृषि, उद्यान, सिंचाई, मंदिर आदि के प्रबन्ध के लिए भिन्न-भिन्न समितियाँ होती थीं।
6. सैन्य – संगठन : गुप्त सम्राटों ने एक विशाल सेना का गठन किया है। सेना के चार प्रमुख अंग थे – हाथी, घोड़े, रथ और पैदल । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तों के समय में रथों का स्थान महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। उनका स्थान घोड़ों ने ले लिया था। घुड़सवार सेना में धुर्नधारी भी शामिल थे। गुप्त काल में नौ-सेना भी सेना के विशिष्ट अंगों में स्थान रखती थी। सैन्य-विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘सन्धि विग्रहिक’ कहलाता था । उसे युद्ध और सन्धि करने का अधिकार था। महत्वपूर्ण युद्धों में स्वयं सम्राट भाग लिया करते थे। सैन्य-विभाग के अन्य प्रमुख अधिकारी निम्नलिखित थे—
(i) महासेनापति (प्रधान सेनापति)
(ii) बलाधिकृत ( सैनिकों की नियुक्ति करने वाला अधिकारी)
(iii) भटाश्वपति (पैदल और घुड़सवारों का अध्यक्ष )
(iv) रक्षभण्डागरिक ( सैनिक सामानों का अधिकारी)
गुप्त सम्राटों के अधीन अनेक सामन्त राज्य थे जो आवश्यकता पड़ने पर सम्राट को सैनिक सहायता दिया करते थे । गुप्तों की सैन्य व्यवस्था में दुर्गों का भी महत्व था । अस्त्र-शस्त्र बनाने वाले अनेक कारखाने स्थापित थे।
7. पुलिस एवं गुप्तचर विभाग (Espionage ) : साम्राज्य में शांति और व्यवस्था बनाये रखने तथा लोगों के धन और जीवन की रक्षा के लिए पुलिस विभाग का गठन किया गया था। इस विभाग के मुख्य अधिकारी को ‘दण्डपाशाधिकारी’ कहते थे। उसके अधीन चोरोद्धराणक (चोरों को पकड़ने वाला पुलिस अधिकारी), दण्डपाशिक (लाठी और रस्सी ‘वाले सिपाही), आदि अधिकारी होते थे। अपराधों का पता लगाने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति की जाती थी। इस प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था के कारण ही गुप्त काल में अपराध प्रायः नहीं के बराबर होते थे। चीनी यात्री फाहियान ने लिखा है कि “मैंने हजारों मील की.. यात्रा की किन्तु मुझे कहीं भी चोर और डाकू नहीं मिले।”
8. न्याय विभाग (Judicial) : गुप्त-काल की न्याय-व्यवस्था अत्यन्त व्यवस्थित और सुसंगठित थी । सम्राट न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था । केन्द्रीय तथा प्रान्तीय दोनों ही न्यायालय होते थे। गांवों में न्याय का कार्य पंचायतें करती थीं। ‘नारद – स्मृति’ के अनुसार गुप्त-काल में चार प्रकार के न्यायालय थे – (1) कुल, (2) श्रेणी, (3) गण तथा (4) राजकीय । प्रथम तीन न्यायालय जनता के अपने होते थे तथा चौथा न्यायालय सरकारी था। नीचे के न्यायालयों की अपील ऊपर के न्यायालयों में हो सकती थी। सम्राट का न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय था तथा सम्राट के हाथ में न्याय का अन्तिम अधिकार था। न्याय-विभाग का मुख्य अधिकारी ‘विनयस्थतिस्थापक’ कहलाता था।
गुप्त-काल में दण्ड-विधान अत्यन्त ही उदार था। फाहियान के अनुसार उस समय अपराध बहुत कम होते थे और दण्ड विधान कठोर नहीं था । मृत्यु दण्ड और शारीरिक यन्त्रणाएँ नहीं दी जाती थीं । अपराध के अनुसार कम या अधिक जुर्माना किया जाता था। बार-बार राजद्रोह करने पर अपराधी का दाहिना हाथ काट दिया जाता था। फाहियान के इस विवरण से ज्ञात होता है कि गुप्तकालीन न्याय-व्यवस्था बहुत उदार थी तथा लोग नियमों का पालन करते थे।
9. राज़स्व-व्यवस्था : गुप्त-लेखों से ज्ञात होता है कि गुप्त-काल में करों की संख्या 18 थी जिनमें भूमि – कर प्रधान था। भूमि के उपजाऊपन के आधार पर भूमि कर 16 प्रतिशत से लेकर 25 प्रतिशत तक लिया जाता था । भूमि-कर अनाज के रूप में अधिक लिया जाता था तथा मुद्रा के रूप में अपेक्षाकृत कम । भूमि- कर के अतिरिक्त राज्य की आय के अन्य साधन थे।
गुप्तों की शासन-प्रणाली की समीक्षा : गुप्तों की शासन-प्रणाली के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि शासन-प्रणाली अत्यन्त सुव्यवस्थित और श्रेष्ठ थी। केन्द्र और प्रान्त दोनों में इसका संगठन सुव्यवस्थित था। पर्याप्त लम्बे समय तक गुप्तों की शासन- व्यवस्था ने देश को बाहरी आक्रमणों तथा आन्तरिक उपद्रवों से सुरक्षित रखा।
मौर्य प्रशासन से भिन्नता
मौर्य प्रशासन की तुलना में गुप्त शासन-व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक उदार थी। गुप्तकाल में दण्ड-विधान कठोर नहीं था। चीनी यांत्री फाहियान के अनुसार गुप्तकाल में मृत्यु-दण्ड प्रचलित नहीं था। परन्तु मौर्य काल में दण्ड – विधान अत्यन्त कठोर था । साधारण अपराध के लिए भी कठोर दण्ड दिया जाता था। मौर्य युग में अंग-भंग, मृत्यु-दण्ड, कोड़े लगाना आदि अनेक प्रकार के दण्ड प्रचलित थे। मौर्य युग में धर्मस्थीय तथा कण्टक शोधन नामक न्यायालय थे परन्तु गुप्त-काल में ऐसे न्यायालयों का उल्लेख नहीं मिलता। गुप्तकाल की अपेक्षा मौर्यकालीन गुप्तचर व्यवस्था सुदृढ़ थी। मौर्य काल में नगरों का प्रबन्ध करने के लिए 30 सदस्यों की 6 समितियाँ होती थीं जिन्हें विभिन्न प्रकार के कार्य सौंपे गए थे परन्तु गुप्तकाल में इस प्रकार की समितियों का अभाव था। अतः मौर्यों का नगर – शासन अपनी मौलिकता तथा विशेषता के लिए प्रसिद्ध है। मौर्यकाल में समस्त सेना का प्रबन्ध करने के लिए 30 सदस्यों की 6 समितियाँ थीं जो पैदल, घुड़सवार, रथ सेना, हाथी सेना, नौसेना आदि का प्रबन्ध करती थीं। परन्तु गुप्तकालीन सैन्य-व्यवस्था में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं थी।