प्रश्न- पुष्यमित्र शुंग के जीवन चरित्र तथा उपलब्धियों का वर्णन करें।
शुंग कौन थे – मौर्य साम्राज्य की कब्र पर शीघ्र ही शुंग वंश की स्थापना हो गई। मौर्य साम्राज्य का अंतिम सम्राट बृहद्रथ था। वह अपनी विलासिता के लिए प्रसिद्ध था और अकर्मण्यता उसकी चारित्रिक विशेषता थी। उसके इन दुर्गणों से लाभ उठा कर उसका सेनापति पष्यमित्र शुंग ने उसका एक दिन कत्ल कर मगध के राजसिंहासन पर बैठकर वंश की स्थापना कर दी। ये शुंग कौन थे ? यह विषय विवादास्पद है क्योंकि इतिहासकारों में एक मत नहीं है। विध्यवदान नामक बौद्ध ग्रंथ के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि पुि शुंग मौर्य वंश का था । कुछ इतिहासकारों ने उसको ईरान देश का निवासी बतलाकर उसको विदेशी सिद्ध करने की कोशिश की है। उसका कथन है कि ईरान में मित्र (सूर्य) की बहुत पूजा होती थी और शुंग वंश के सभी राजा अपने नाम में मित्र शब्द का भी प्रयोग करते थे। इसलिए कि इस वंश के लोग ईरानी थे। परन्तु यह मत सत्यता से बहुत ही दूर प्रतीत होता है। केवल नाम के आधार पर शुंगो को ईरानी कह देना उचित नहीं कहा जा सकता। वे लोग ब्राह्मण किस गोत्र के थे। कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्र के अनुसार शुंग लोग काश्यप गोत्र के थे। महर्षि पाणिनि के अनुसार उनका गोत्र भारद्वाज था। तारानाथ के अनुसार वे लोग स्पष्ट रूप से ब्राह्मण थे। इन सब तथ्यों से यह ज्ञात है कि शुरू में शुंग लोग मौर्य सम्राटों के पुरोहित थे लेकिन जब अशोक ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया तो उनकी पुरोहिती समाप्त हो गयी थी। लेकिन शुंग लोग मौर्य वंश से संबंध बनाये रखे और ब्राह्मण धर्म को त्याग कर छात्र धर्म को स्वीकार कर लिया जिसके फलस्वरुप सेना के ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर वे लोग बहाल किये जाते थे। यही एकमात्र कारण है कि मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासक वृहद्रथ का सेनापति पुष्यमित्र शुंग था। जो एक दिन वृहद्रथ का कत्ल कर स्वयं सम्राट बन बैठा। इस तरह मगध की राजगद्दी पर शुंगवंश का श्रीगणेश हुआ।
पुष्यमित्र शुंग का साम्राज्य संगठन : जिस समय पुष्यमित्र शुंग मगध की गद्दी पर बैठा था उस समय राज्य की स्थिति अत्यन्त ही खराब थी। पड़ोस के राज्य (कलिंग, आंध्र और महाराष्ट्र) अपनी स्वाधीनता – प्राप्ति के लिए सम्राट को चुनौती दे चुके थे। सीमान्त उसके चंगुल से पहले ही आजाद हो चुका था। अत: गद्दी पर बैठते ही पुष्यमित्र शुंग ने अपने छिन्न-भिन्न साम्राज्यों को संगठित करना शुरु किया। सर्वप्रथम उसने कोशल, बत्स, अवन्ति नगर और प्राची आदि को संगठन के सूत्र में बाँधा । अवन्ति पाटलिपुत्र से बहुत दूर पड़ता था। इसलिए उस पर नियन्त्रण रखना सम्राट के लिए कठिन कार्य था। इसलिए उसने प्रान्त के मुख्य नगर विदिशा को अपनी दूसूरी राजधानी बनाया और वहाँ का शासक उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को बना दिया। इस तरह से उसने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाकर साम्राज्य विस्तार की ओर ध्यान दिया, अर्थात् विजय की ओर मुड़ा।
विदर्भ राज्य पर आक्रमण : उस समय विदर्भ के राजा यज्ञसेन के पास भी एक विशाल सेना थी । मौका पाकर एक दिन पुष्यमित्र शुंग ने एक बहुत बड़ी सेना लेकर विदर्भ पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने बड़ी ही कुशलता से अपनी सेना का संचालन किया। लड़ाई चलती रही। हार-जीत नजर नहीं आने पर अग्निमित्र ने यहाँ पर कूटनीति से काम लिया । उसने शीघ्र ही यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेंन को कुछ प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया । अब यज्ञसेन की हिम्मत पस्त हो गयी। उसने विवश होकर अग्निमित्र की अधीनता स्वीकार कर ली। अब विदर्भ राज्य को दो टुकड़ों बाँट दिया गया। एक भाग यज्ञसेन को मिला। इस तरह से विदर्भ राज्य में अबाध गति से शुंगों की विजय लहराने लगीं। फलत: विदर्भ का वैभव शुंग-सम्राट के पैरों पर लोट रहा था ।
यवनों के साथ संघर्ष : पुष्यमित्र के शासन काल की सबसे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना शुंगों पर यवनों का आक्रमण था। इस आक्रमण का शुंगों ने दिल खोलकर सामना किया। मौर्य वंश के पतन के समय ही भारत के उत्तर-पश्चिम सीमा पर बख्ती यवनों ने अपना राज्य स्थापित कर लिया था और अब उनकी बुरी दृष्टि भारत पर पड़ गयी थी। पातंजलि के महाभाष्य, तारानाथ के तिब्बत के इतिहास और गार्गी संहिता से घटना का ज्ञान हमें होता है कि यवनों की चढ़ाई इतनी भीषणता के साथ हुई थी कि उन्होंने पहले पश्चिम भारत को हस्तगत कर लिया। इसके बाद लगे हाथ उन्होंने मथुरा और साकेत को भी अपने विजयी झंडे के नीचे लाने की कोशिश की, मथुरा पर तो उनका अधिकार शीघ्र ही स्थापित हो गया। बाद पोता वसुमित्र ने यवनों को भारत की पवित्र भूमि से मार भगाने की कोशिश की। इस कार्य में में चलकर साकेत ने भी उनका लोहा मान लिया। ऐसी ही विषम परिस्थिति में पुष्यमित्र का 1. उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी। उसने यवनों को सिन्धु नदी के तट पर इतना मारा कि वे उसने भाग गये और वसुमित्र ने उनकों भारत से खदेड़ कर ही दम लिया। सिन्धु के तट पर उनकी पराजय इतिहास में प्रसिद्ध है। वास्तव में शुंगों की यह एक बहुत बड़ी विजय थी।
अश्वमेध यज्ञ : अपनी इस महान सफलता के उपलक्ष्य में पुष्यमित्र ने एक अश्वमेध यज्ञ किया। इस यज्ञ में उसने काफी धन खर्च किया। अयोध्या के एक अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र इस अवसर पर एक नहीं बल्कि दो यज्ञ करवाये थे । हरिवंश पुराण अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजा जनमेजय के बाद पुष्यमित्र शुंग ने ही अश्वमेध यज्ञ करवाया था। प्रसिद्ध पातंञ्जलि मुनि इस अश्वमेघ यज्ञ के कई पुरोहितों में से एक थे।
पुष्यमित्र शुंग और बौद्ध धर्म : बौद्ध धर्म के ग्रन्थों के अध्ययन से यह पता चलता है कि पुष्यमित्र एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति था । वह बौद्धों के साथ बड़ी ही बुरी तरह से पेश आता था। दिव्यावदन से ज्ञात होता है कि उसने यह घोषित कर दिया था कि जो व्यक्ति एक बौद्ध भिक्षुक (श्रमण) का सर काट लायेगा उसको 100 दिनार इनाम में दिया जायेगा। तारानाथ ने भी बौद्धों के प्रति उसके बुरे विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि पुष्यमित्र धार्मिक प्रश्नों में बड़ा ही असहिष्णु था । उसने बौद्धों पर तरह-तरह के अत्याचार किये और उनके संघारामों और मठों को बेरहमी से जलवा दिया था। प्रोफेसर नागेन्द्रनाथ घोष का भी इस संबंध में यह मत है कि सम्राट का प्रसिद्ध सेनापति बौद्धों का प्रपीड़क था। परन्तु डाद एचद सीद राय चौधरी का कथन है कि पुष्यमित्र शुंग बौद्धों का प्रपीड़क नहीं था। उसने तो साम्राज्य प्राप्त करने के लोभ में आकर वृहद्रथ का वध किया था, धार्मिक कट्टरता की भावना से प्रेरित होकर नहीं। ऊपर की उक्ति तो केवल ग्रन्थकारों के रोष का फल है। यह ठीक है कि पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ से बौद्धों को अवश्य तकलीफ हुई थी लेकिन इसके आधार पर यह कहना कि पुष्यमित्र शुंग बौद्धों का पक्का शत्रु था सवथा अनुचित है। यह भी ठीक है कि उसने बहुत से बौद्ध संघों को नष्ट करवाया लेकिन इसके पीछे बौद्ध धर्म के प्रति उसके ह्रदय में घृणा का भाव नहीं था, बल्कि उस समय बौद्ध के राजनीतिक कुचों से बचने के लिए ही पुष्यमित्र ने बौद्ध श्रमणों को मौत के घाट उतरवाया था और उनको कठोर से कठोर दण्ड दिलवाया था। ऐसे प्राय: प्रत्येक राजा अपने शत्रुओं के साथ कठोरता से पेश आते हैं |
पुष्यमित्र के कार्यों का मूल्यांकन : पुष्यमित्र एक महान सेनानी, कुशल शासक और सफल विजेता था। ब्राहाण होते हुए भी उसको छात्र-धर्म तथा उसके कार्यों से प्रेम था। अतः ऐसा जान पड़ता है कि वह बचपन से ही सामरिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपनी शूरता, योग्यता और युद्ध-कार्यों में क्षमता के कारण ही वह मौर्य सम्राट का सेनापति बना था। यह भी उसकी शक्ति तथा योग्यता का ही फल था कि उसने भौर्य साम्राज्य की सारी शक्ति अपने हाथ में ले ली थी। इतना ही नहीं उसने वृहद्रथ का वध कर मौर्य साम्राज्य की कब्र पर शुंगवंश का फूल खिलाया था। मौर्य साम्राज्य का ताज तो उसके सर पर आ गया था परन्तु वह ताज सोने का नहीं, काँटों का ताज था। क्योंकि वह अपने 36 साल के शासन काल तक विपत्तियों और कठिनाइयों को झेलता रहा था। भोग-विलास का जीवन व्यतीत करने का उसके पास समय ही नहीं था। विशाल साम्राज्य का अधिपति होने पर भी इस वीर और निस्पृह ब्राह्मण ने भी सम्राट की उपाधि धारण नहीं की । वह हमेशा अपने को सेनापति ही कहता रहा क्योंकि वह पहले मौर्य साम्राज्य का सेनापति था । सम्राट होते हुए भी सम्राट की उपाधि नहीं धारण करना वास्तव में यह देशभक्ति का उज्ज्वल प्रतीक है। विजित क्षेत्रों पर उसने अपने बाहुबल से सुव्यवस्थित ढंग का शासन प्रबंध किया।
उसके शासन काल में कला और संस्कृति के क्षेत्र में काफी विकास हुआ था। उसने देश में कला और संस्कृति को तहेदिल से प्रोत्साहन दिया था। महर्षि पातञ्जलि का महाभाष्य और मनुस्मृति के संस्करण उसी के शासन काल में लिखे गये थे। ब्राह्मण होने की वजह से उसने वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति और वैदिक परम्परा को फिर से स्थापित करने के लिए तहेदिल से सफल प्रयास किया था। उसी ने अश्वमेध यज्ञ को चलाया था और ब्राह्मण धर्म को राजधर्म बनाकर उसकी मर्यादा को बढ़ाया था। इस तरह से वह योग्य तथा कुशल राजा था।