वर्द्धमान महावीर के जीवन एवं शिक्षाओं का उल्लेख करें।

जैन परम्पराओं के अनुसार महावीर से पहले इस धर्म के 23 गुरू हो चुके थे, जो तीर्थंकर कहलाते थे। महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे। प्रारम्भिक तीर्थंकरों के संबंध में जानकारी वैदिक साहित्य में मिलती है। सबसे पहले तीर्थंकर ऋषभदेव थे। केवल अन्तिम दो अर्थात् 23 वें और 24 वें तीर्थंकर का ही वर्णन इतिहास में मिलता है। 23 वे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी ने अपने अनुयायियों को जैन-धर्म के चार प्रमुख सिद्धान्त बतलाये थे – 1. अहिंसा 2. सत्य सम्भाषण 3. अस्तेय 4. अपरिग्रह। महावीर स्वामी के जन्म से ठीक 250 वर्ष पूर्व इन्होंने निर्वाण प्राप्त किये। 

महावीर का जीवनवृत्त : जैनियों के सबसे अन्तिम चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। जैन-धर्म को व्यापक तथा लोकप्रिय बनाने का श्रेय मुख्यत: इन्हीं को है। उनका जन्म आधुनिक बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिला में स्थित वैशाली के समीप कुण्डग्राम में ईसा से 599 वर्ष पूर्व हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो वृज्जियों के ज्ञातृक कुल के थे। इनकी माता का नाम त्रिशला था जो वैशाली के राजा चेटक की बहन थी । सिद्धार्थ को त्रिशला से तीन सन्तानें हुई थीं, एक कन्या और दो पुत्र । बड़े पुत्र का नाम नन्दिवर्धन था और छोटे पुत्र का नाम वर्धमान । यही आगे चलकर महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए। वर्धमान के बड़े होने पर यशोदा नामक युवती से विवाह हुआ जिससे एक लड़की पैदा हुई। माता-पिता के देहान्त के बाद तीस वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर वर्धमान ने घर छोड़ जंगल की राह ली। उन्होंने वन में जाकर ज्ञान प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक कठोर तपस्या की। लोगों ने उन्हें लाठियों से मारा, इनपर ईट-पत्थर तथा गन्दी वस्तुएँ फेंकी, उनकी खिल्ली उड़ायी गयी और अन्य तरीकों से उनकी तपस्या भंग करने का प्रयत्न किया। लेकिन वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। इस कठोर तपस्या के प्रभाव से उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और उनका हृदय ज्ञान – लोक से जगमगा उठा। अब उन्होंने सांसारिक बन्धनों को तोड़कर माया-मोह से छुटकारा पा लिया। अतः वे निर्ग्रन्थ कहलाये, जिनका अर्थ होता है बन्धनहीन । उन्होंने अपने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। अतएव वे ‘जिन’ कहलाये। उन्हें बारह वर्ष की तपस्या के पश्चात् जूम्भिक ग्राम के वाह ऋजुपालिका नदी के तट पर कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तभी से वे अर्हत (पूजनीय) कहलाने लगे। अपार धीरज के साथ उन्होंने सभी मुसीबतों का सामना किया अतएव वे महावीर कहलाये । जितेन्द्रिय बन जाने से वे ‘जैन’ कहलाने लगे। 

ज्ञान प्राप्त करने के बाद तीस वर्ष तक उन्होंने घूम-घूमकर मगध, कौशल, अंग मिथिला, काशी आदि प्रदेशों में अपनी शिक्षा का प्रचार किया। 

महावीर के उपदेश : महावीर ने पाँच मुख्य उपदेश दिए। ये पाँच महाव्रत हैं- (i) अहिंसा (ii) सत्य (iii) अस्तेय (चोरी न करना) (iv) अपरिग्रह (v) ब्रह्मचर्य। 

(i) अहिंसा : महावीर घोर अहिंसावादी थे। उनका कहना था कि संसार के कण-कण में जीव है। उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। उनके शिष्य रात्रि आरम्भ होने के पहले ही भोजन कर लेते हैं ताकि अन्धकार में कोई कीड़े-मकोड़े न मर जाएँ । 

(ii) सत्य : सत्य का मतलब है झूठ नहीं बोलनी चाहिए। अप्रिय या कठोर बात नहीं बोलनी चाहिए। किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए। 

(iii) अस्तेय : किसी की चीज चुरानी नहीं चाहिए। चोरी का माल खरीदना, किसी तरह की मिलावट करना, कम तौलना, सरकारी आदेश का पालन न करना इत्यादि भी चोरी के ही प्रकार हैं। इनसे बचना चाहिए। 

(iv) अपरिग्रह : धन का संग्रह नहीं करना चाहिए । विनोबा भावे का कहना था- ”पेट भर खाओ, लेकिन पेटी भर कर न रखो।” धन से मोह बढ़ता है। मोह से बन्धन और पक्का हो जाता है। इस प्रकार धन मुक्ति के मार्ग में बाधक है। 

(v) ब्रह्मचर्य : काम-वासना को मारना चाहिए। कामुकता मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है। 

त्रिरत्न : महावीर के अनुसार मनुष्य अज्ञानतावश ही काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद के वशीभूत होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए इन तीन साधनों का प्रतिपादन किया जो त्रिरत्न के नाम से विख्यात हुए। ये हैं- (i) सम्यक् ज्ञान (ii) सम्यक् दर्शन और (iii) सम्यक् चरित्र । 

सम्यक् ज्ञान का अर्थ है, सच्चा और पूर्ण ज्ञान। बिना सम्यक् ज्ञान के मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, उसका ज्ञान समस्त तीर्थंकर के उपदेशों के अध्ययन से होता है। 

सम्यक् दर्शन भी इनके लिए आवश्यक है। सभी मनुष्यों के लिए यह अच्छा है कि वे संसार के सभी जीवधारियों को एक समान समझे। यही इनका सम्यक् दर्शन था। सम्यक् दर्शन से ही सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति होती है और मनुष्य को अज्ञानता, क्रोध, लोभ, मोह आदि से छुटकारा प्राप्त हो जाता है। 

सम्यक् चरित्र का अर्थ है उच्च नैतिक स्तर। इसके लिए मनुष्य को अपनी इन्द्रियों, भाषण और कर्मों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए। इसकी प्राप्ति इन्द्रियों, विचारों और भाषाणों पर नियंत्रण रखने से होती है। इस त्रिरत्न की प्राप्ति हो जाने पर मनुष्य और उनकी आत्मा दोनों को कर्म के बन्धन से मुक्ति मिल जाती है। 

जैन-धर्म के सिद्धान्त 

सम्पूर्ण जैन – साहित्य के अध्ययन के बाद जैन-धर्म के निम्नलिखिति सिद्धान्त स्पष्ट होते हैं— 

ईश्वर – सम्बन्धी विचार : विद्वानों में मतभेद है, लेकिन अब यह निश्चित हो चुका है कि जैन धर्मावलम्बी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि सृष्टि अथवा विश्व का संचालन करने के लिए ईश्वर जैसी किसी अलौकिक सत्ता की आवश्यकता नहीं है। इस धर्म तीर्थंकरों को ही ईश्वर कहा गया है तथा मन्दिरों में देवी- देवताओं के बजाय तीर्थंकरों की ही पूजा की जाती है। जैन धर्म में ईश्वर को निराकार माना गया है। वे ईश्वर को सर्वज्ञ और वीतराग मानते हैं। 

आत्मवाद : महावीर का कहना था कि विश्व में दो बुनियादी पदार्थ हैं, जीव और अजीव, दोनों ही अनादि है। उन्हें किसी ने बनाया नहीं है और दोनों ही स्वतंत्र है। जीव का अर्थ आत्मा ही है। जीवन केवल मनुष्य, पशु और वनस्पति में ही नहीं प्राकृतिक वस्तुओं में भी जीव हैं। संसार में अगणित जीव हैं, और सब एक समान हैं। विश्व जीव और सजीव के घात-प्रतिघात से चलता है और कार्य करता है। 

कर्म की प्रधानता : जैन धर्मावलम्बी कर्म की प्रधानता को मानते हैं। लोगों का विश्वास है कि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों से ही इस बात का निर्णय होता है कि किस वेश में हमारा जन्म होगा और कैसा हमारा शरीर होगा। कर्म अनेक प्रकार के होते हैं और उनका फल भी विभिन्न प्रकार का होता है, कर्म फल के प्रभाव से ही वह राजा के अथवा भंगी के घर जन्म लेता है। इस जन्म में अच्छे कर्म करके मनुष्य अपना भविष्य अच्छा बना लेता है। 

उसे अपने कर्मों के लिए फल अवश्य भोगना पड़ता है। क्रोध, माया, लोभ के कारण ही आत्मा बन्धन में पड़ती है। जैन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर विश्वास करता है। उसके अनुसार मानव बार-बार जन्म लेता है। वे विश्वास करते हैं कि आत्मा बहुत से बन्धनों में बँधी हुई है। जैन मतावलम्बी आत्मा के अस्तित्व तथा उसके अमरत्व पर विश्वास करते हैं। ये लोग आत्मा को सर्वद्रष्टा समझते हैं, परन्तु उनकी यह धारणा है कि कर्म के बन्धनों के कारण उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। जैनियों का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग है, यद्यपि इसकी कोई मूर्ति नहीं होती, परन्तु प्रकाश की भाँति यह अपना अस्तित्व रखती है। 

आत्मा की मुक्ति : आत्मा को कर्म – बन्धन से मुक्त करने के लिए जैन-धर्म, सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और और सम्यक् कर्म रूपी त्रिरत्न को पर्याप्त समझता है। महावीर के शरीर की तरह आत्मा सभी जीवधारियों के शरीर में निवास करती है। इसलिए सभी मनुष्यों के लिए यह अच्छा है कि वह संसार के सभी जीवधारियों को एक समान समझें। 

तपस्या : महावीर ने कठिन तपस्या पर जोर दिया। उन्हें स्वयं कठिन तप के बाद ही ज्ञान प्राप्त हुआ था । भिक्षुकों के लिए व्रत, शरीर को कष्ट देना तथा गम्भीर ध्यान और मनन आवश्यक है। मुख्य रूप से तपस्या दो प्रकार की होती है- एक है बाह्य तपस्या जिसमें अनशन, काया को कष्ट देना तथा रसों का परित्याग सम्मिलित है। दूसरी प्रकार की तपस्या में पाप का प्रायश्चित करना, विनय, सेवा, ध्यान और स्वाध्याय सम्मिलित है। 

पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को शरीर को वस्त्र से ढँकने को कहा था, किन्तु महावीर ने सबको नंगे रहने को बतलाया । इसी पृष्ठभूमि में आगे चलकर जैनियो के दो सम्प्रदाय हो गये – श्वेताम्बर तथा दिगम्बर । श्वेत वस्त्र धारण करने वाले श्वेताम्बर कहलाये तथा वस्त्रहीन रहनेवाले दिगम्बर कहलाये। 


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