नव-पाषाणकालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिये । 

भारत में भी मध्य-पाषाणकालीन संस्कृति के पश्चात् नव-पाषाणकालीन संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ। परन्तु यह कहना कठिन है कि इसका प्रादुर्भाव कब और किस जाति के द्वारा हुआ। फिर भी यह कहा जा सकता है कि नव पाषाणकालीन संस्कृति का प्रसार भारत के विशाल भू-प्रदेश में ही हो चुका था। इस काल की सामग्री कश्मीर, सिन्धु प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, बंगाल, असम, मध्यप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक और प्रमुखतया बेलारी जिले में उपलब्ध हुई है। यह सभ्यता देश के उत्तर-पश्चिम में ईसा से चार-पाँच हजार वर्ष पहले शुरू हुई तथा देश के विभिन्न भागों में विकसित होती गई । 

नव-पाषाणकाल में जो पत्थर के औजार और हथियार मिले हैं, वे काफी सुडौल और सुन्दर हैं। इन औजारों और हथियारों पर या तो सम्पूर्ण भाग पर पालिश है या कम से कम ऊपर और नीचे के सिरों पर पालिश है । विद्वानों के मतानुसार इनका निर्माण करने वाले ‘प्रोटो- आस्ट्रेलाएड’ जाति के लोग थे जिनकी संस्कृति ‘निओलिथिक कल्चर’ के नाम से प्रसिद्ध है। 

नव पाषाण युगीन मानव की संस्कृति 

(Neolithic or New Stone Age Culture) 

नव पाषाण युगीन मानव की सभ्यता और संस्कृति की रूपरेखा भी इस युग उपकरणों के आधार पर बनाई जा सकती है। इसके आधार पर ही नव पाषाण युग आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य क्षेत्रों के जीवन की रूपरेखा खड़ी की जा सकती है। 

(i) आर्थिक क्षेत्र : नव पाषाण युगीन मानव ने कृषि के साथ-साथ पशुपालन प्रारम्भ कर दिया। इस युग की बस्तियों में मनुष्य के अवशेषों के साथ-साथ दूध देने वाले जानवरों के अस्थिपंजर भी उपलब्ध हुए हैं। इस युग के लोगों ने कृषि तथा पशुपालन से अपनी आजीविका का निर्वाह करके आर्थिक समस्या को हल करना प्ररम्भ कर दिया। पशुओं को पालकर वह दूध-दही, मक्खन भी खाता था और उनके माँस का भी उपयोग करता था। कृषि तथा पशुपालन से मनुष्य ने एक नवीन युग में प्रवेश किया। इस समय का मनुष्य वृक्षों के नीचे गुफाओं में या चमड़े के तम्बू बनाकर उनमें रहने के स्थान हेतु लकड़ी के मकान बनाकर रहने लगा था। फ्रांस तथा स्विटजरलैण्ड में इस युग की जो बस्तियाँ मिली हैं, उनसे यह स्पष्टतया प्रतीत होता है कि इस युग का मानव पशुपालन द्वारा सिर्फ दूध-दही ही नहीं प्राप्त करता था, बल्कि बैलों तथा घोड़ों से हल भी जोतता था। गाड़ी के पत्थर के चक्के (पहिए) मिले हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि इस युग में माल ढोने के लिए बैल या घोड़ा गाड़ी भी चलने लगी थी। 

(ii) सामाजिक क्षेत्र : कृषि तथा पशुपालन के युग में प्रवेश और मकान में निवास शुरू करते ही एक नवीन प्रकार के सामाजिक जीवन का शुरू होना स्वाभाविक था । इस युग में मनुष्य ने परिवार के साथ रहना शुरू कर दिया था। अत: परिवार नामक संस्था का निर्माण हुआ। यूरोप में प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि इस युग में गाँव बनने शुरू हो गये थे। गाँव के लोग एक साथ रहकर सामाजिक जीवन व्यतीत करते थे । आपस में इनमें सहयोग की भावना होती थी। अपनी टोली के अलावा दूसरी टोली के लोग पराए समझे जाते थे तथा इन अपने परायों में सदैव युद्ध छिड़ा रहता था। उस समय धनुषवाण, त्रिशंकु, चाकू, छुरी आदि अस्त-शस्त्र के काम में आते थे। 

(iii) कला का क्षेत्र : इस युग में ज्यामितिक रेखाओं तथा चित्रकला का विकास हुआ। इस युग के वर्त्तन सुडौल हैं, गोल हैं तथा उन पर सुन्दर रंगों की चित्रकला के दर्शन होते हैं। इस युग के वर्त्तन आग पर पके होने के कारण पक्के होते थें। वर्त्तनों के अलावा इस युग का मानव भेड़े पालन करने की वजह से ऊन का भी प्रयोग करना भलिभाँति जान गया था। जानवरों की ऊन को काटकर वह गर्म कम्बल आदि भी बनाने लगा था। 

(iv) व्यापार का क्षेत्र : कृषि एवं पशुपालन से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकता से अधिक पदार्थ प्राप्त होने लगा। इस अतिरिक्त पदार्थ को वह दूसरों के अतिरिक्त पदार्थ के बदले में देने लगा। इस प्रकार अदला-बदली द्वारा आवश्यकताएँ पूर्ण की जाने लगी। इसी प्रक्रिया ने आगे चलकर व्यापार का रूप धारण कर लिया। श्रम विभाजन तथा व्यापार द्वारा वस्तुओं का एक ही स्थान में नहीं, दूर-दूर के प्रदेशों में भी आदान-प्रदान होने लगा। पश्चिमी एशिया तथा यूरोप में जहाँ-जहाँ खुदाई हुई है, वहाँ-वहाँ ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जहाँ वह पैदा नहीं होती थीं, जो इस बात का द्योतक है कि सभी वस्तुओं का लेन-देन के रूप में व्यापार होता था। 

(v) धार्मिक क्षेत्र : इस युग में शव को मिट्टी में गाड़ा जाता था तथा मृत व्यक्ति के शव के साथ उसके उपकरण तथा भोजन सामग्री रख दी जाती थी । इस काल में कहीं-कहीं शव को जलाने की भी प्रथा थी क्योंकि अनेक स्थानों पर मिट्टी के कलश प्राप्त हुए हैं जिनमें मृत व्यक्ति की राख सुरक्षित रूप से रखी गई हैं। इस युग में कृषि तथा पशुपालन शुरू हो गया था तथा इस युग का मानव इन पदार्थो की वृद्धि हेतु उत्पादन के सूचक अंगों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा करता था। पुरातनशास्त्रियों के अनुसार इस युग में जादू-टोने का विचार भी जन्म ले चुका था। 

नव पाषाण-युग के पश्चात् संसार के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में धातुओं का युग आरम्भ हुआ। पहले पहल मनुष्य को ताम्बे का ज्ञान हुआ फिर कांस्य तथा सबसे बाद में लोहे का ज्ञान हुआ। इन तीनों युगों के पश्चात् वर्त्तमान युग के मान ने अणु एवं परमाणु शक्ति की खोज सम्पन्न कर ली हैं। अत: आज के वर्त्तमान युग को अणु-युग के नाम से जाना जाता है। 


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