कानून के स्वरूप (प्रकृति) सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं का परीक्षण कीजिए। 

 कानून का स्वरूप अथवा प्रकृति 

कानून के स्वरूप अथवा प्रकृति सम्बन्धी निम्नलिखित प्रमुख विचारधाराएँ (अवधारणाएँ) हैं— 

1. ऐतिहासिक अवधारणा : कानून के स्वरूप सम्बन्धी इस अवधारणा के समर्थकों में सर हैनरीमैन, मैटलैण्ड, फ्रेडरिक पोलक तथा सेविगिनी इत्यादि विद्वान हैं। कानून की इस अवधारणा में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विशेष बल दिया जाता है। इस अवधारणा के अनुसार कानून का निर्माण सर्वोच्च शासक द्वारा न होकर जनता के परम्परागत रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं द्वारा होता है। राज्य तो उनको केवल मान्यता देकर कानून का स्वरूप प्रदान करता है । 

ऐतिहासिक अवधारणा की आलोचना करते हुए कहा जा सकता है कि यह अतीत को अत्यधिक महत्त्व देती है तथा इतिहास को कानूनू का एकमात्र स्त्रोत घोषित करती है। यह कानून निर्माण में जनहित तथा शक्ति इत्यादि तत्वों की अवहेलना करती है तथा कानून के सम्बन्ध में पूर्ण सत्य को व्यक्त नहीं करती। 

2. समाजशास्त्रीय अवधारणा : इस अवधारणा के प्रतिपादकों का विश्वास है कि कानून सामाजिक शक्तियों की उपज होते हैं। अतः उसे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन होना चाहिए। समाजशास्त्रीय अवधारणा के प्रतिपादक कानून के प्रशासन एवं उसकी रचना के ढंग दोनों बातों पर विशेष ध्यान देते हैं तथा उनका विश्वास है कि कानून की अच्छाई का निर्णय उसके परिणामों के आधार पर किया जाना चाहिए। वे कानून के सामाजिक उद्देश्यों का अध्ययन करके उनका अन्य समाजशास्त्रों एवं सिद्धान्तों से सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस अवधारणा के प्रतिपादकों में ऑस्ट्रेलिया के ‘गम प्लाविज’, हॉलैण्ड के ‘कैव्र’ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘जस्टिस होल्मस’ इत्यादि प्रमुख हैं। 

समाजशास्त्रीय अवधारणा की आलोचना करते हुए कहा जा सकता है कि कानून को राज्य से स्वतन्त्र एवं अलग मानना त्रुटिपरक है। यह भी सत्य नहीं है कि कानून सम्प्रभु का आदेश नहीं होता। कोई भी कानून तभी कानून कहलाता है जब उसके पीछे बाध्यकारी शक्ति हो अन्यथा यह कानून के रूप में मान्य नहीं होता। सभी कानून सामाजिक हित में हों, ऐसा होना भी आवश्यक नहीं। 

3. विश्लेषणात्मक अवधारणा : कानून के स्वरूप की अवधा प्रतिपादाक ऑस्टिन, हॉब्स, हॉलैण्ड तथा विलोबी इत्यादि हैं। विश्लेषणात्मक अवधार अनुसार कानून राज्य की पूर्ण एवं एकात्मक सत्ता का आदेश है जिसका पालन वह अपने शक्ति द्वारा करवाता है। इस सम्बन्ध में ऑस्टिन ने उचित ही कहा है कि राज्य की सर्वो सत्ता का आदेश ही कानून है । ” 

हालांकि, यह अवधारणा सीधी एवं सरल है लेकिन फिर भी इसकी कड़ी आलोचना की गई है। आलोचकों की मान्यता है कि यह अवधारणा रूढ़िवादी एवं अप्रजातान्त्रिक है क्योंकि कानून का स्रोत सिर्फ सम्प्रभु का आदेश ही नहीं होता, बल्कि वह रीति-रिवाजी, लोक कल्याण की भावना तथा जन आकांक्षाओं की भावना से भी प्रेरित होता है और जनसाधारण द्वारा उसका पालन केवल उसकी उपयोगिता को दृष्टिगत रखकर ही किया जाता है। जन – उपयोगी न होने पर कानून लम्बे समय तक सिर्फ राज्य शक्ति के डर प्रभावी नहीं रह सकता। अतः स्पष्ट है कि इस अवधारणा में कानून के जन-कल्याण, जन-आकांक्षा तथा जन उपयोगिता पक्ष की अवहेलना की गई है। 

4. दार्शनिक अवधारणा : इस अवधारणा के अनुसार कानून के यथार्थ स्वरूप की अपेक्षा उसके आदर्श एवं अमूर्त स्वरूप पर अधिक बल दिया जाता है तथा उसे ही कानून निर्माण का वास्तविक स्त्रोत घोषित किया जाता है। दार्शनिक अवधारणा के प्रतिपादक कानून के विकास की आचारात्मक एवं नैतिक व्याख्या करते हैं तथा न्याय को राज्य का आदर्श मानकर उसका अध्ययन करते हैं। इस अवधारणा के प्रतिपादकों में प्लेटों, हीगल, काण्ट तथा डीन पाउण्ड इत्यादि का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। 

इस अवधारणा की आलोचना करते हुए कहा जा सकता है कि दार्शनिक अवधारणा कानून के यथार्थ पक्ष की उपेक्षा करती है। 

5. मार्क्सवादी अवधारणा : कानून के स्वरूप की यह धारणा राज्य को एक वर्ग संगठन मानती है। अवधारणा के प्रतिपादकों के मतानुसार राज्य का आधार युद्ध शक्ति है तथा वह शासक वर्ग के हाथों में शासितों के शोषण का एक साधन है। अतः कानून भी शासक वर्ग के शोषण का साधन है। इस अवधारणा के प्रतिपादकों में मार्क्स तथा अन्य मार्क्सवादी विचारक हैं। 

अन्त में, हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि कानून के स्वरूप सम्बन्धी उपर्युक्त संभी अवधारणाएँ कानून के स्वरूप पर पूर्ण प्रकाश डालने में असमर्थ हैं लेकिन इनमें से प्रत्येक में सत्य का कुछ-न-कुछ अंश अवश्य है तथा ये सभी कानून के वास्तविक रूप को समझाने में सहायक हैं। 


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