प्रक्रियात्मक न्याय से आप क्या समझते हैं? तात्विक (सामाजिक) न्याय से अन्तर बताएँ । 

प्रक्रियात्मक न्याय : प्रक्रियात्मक न्याय का विचार कानून के संदर्भ में काफी प्रभावशाली रहा है। प्रक्रियात्मक न्याय उस प्रक्रिया में निष्पक्षता के विचार की तरफ संकेत करता है जो झगड़ों को सुलझाती है तथा संसाधनों का आबंटन करती है। 

यह विचार काफी लोकप्रिय रहा है क्योंकि निष्पक्ष प्रक्रिया निष्पक्ष परिणामी की उत्तम गारंटी है। इस न्याय का संबंध निष्पक्ष प्रक्रिया द्वारा निर्णयों का निर्माण एवं कार्यान्वयन से है । यदि इस प्रकार की प्रक्रियाएँ अपनाई जायें तो लोगों को सम्मान एवं प्रतिष्ठा के साथ देखती हैं तो लोग कानून के प्रति आश्वस्त अनुभव करते हैं और इस प्रकार ऐसे परिणामों को स्वीकार करना भी आसान हो जाता है जो लोगों को पसंद नहीं होते । 

प्रक्रियात्मक न्याय का एक पक्ष न्याय के प्रशासन तथा कानूनी कार्यवाही के विवरण संबंधी चर्चा से संबंधित है । इस प्रकार के प्रक्रियात्मक न्याय को भारत में कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया (procedure established by law), अमरीका के कानून की उचित प्रक्रिया (due process of law), आस्ट्रेलिया में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता (procedural fairness) तथा कनाडा में प्राथमिक न्याय (primary law) के नाम से पुकारा जाता है। इसके अतिरिक्त प्रक्रियात्मक न्याय के विचार को गैर-कानूनी संदर्भों में भी लागू किया जा सकता है जहाँ झगड़ों के निवारण एवं सामाजिक लाभ एवं हानि को बांटने के लिए कुछ- एक प्रक्रियाओं की आवश्यकता पड़ सकती है। 

जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक A Theory of Justice में प्रक्रियात्मक न्याय के तीन स्वरूप स्पष्ट किये हैं । न्याय की प्राथमिकताओं को निश्चित करने के बाद रॉल्स तीन प्रकार के न्याय में भेद करते हैं। ये हैं : 

(i) पूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय (Perfect Procedural Justice), 

(ii) अपूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय ( Imperfect Procedural Justice) और 

(iii) शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय (Pure Procedural Justice) 

पूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय का संबंध उन परिस्थितियों से होता है जहाँ निष्पक्ष वितरण का स्वतंत्र आधार हो तथा ऐसी प्रक्रिया भी हो जिससे इस संबंध में निष्पक्षता सुनिश्चित की जा सके। अपूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय का अर्थ है वे परिस्थितियाँ जहाँ निष्पक्ष न्याय का आधार स्वतंत्र तो है परंतु ऐसी विधि (law) का अभाव हो जिससे इसे सुनिश्चित किया जा सके; ऐसी स्थिति में अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि किसी विधि विशेष से अपेक्षित नतीजा निकलने की आशा संभावना मात्र है। शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय का संबंध उस स्थिति से है जहाँ निष्पक्ष निष्कर्ष का कोई स्वतंत्र आधार नहीं होता, केवल निष्पक्ष विधियों और प्रक्रियाओं का ही आधार होता है। प्रक्रियात्मक न्याय को तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं— 

1. परिणाम प्रारूप 2. संतुलन प्रारूप 3. साझेदारी स्वरूप। 

प्रक्रियात्मक एवं तात्विक न्याय में अन्तर 

सामाजिक जीवन में न्याय का स्वरूप कैसा हो..? इस संदर्भ में समकालीन चिंतन के अंतर्गत प्रक्रियात्मक न्याय एवं तात्विक न्याय के सामर्थकों में मतभेद पाया जाता है। 

प्रक्रियात्मक न्याय मूलतः औपचारिक अथवा वैधानिक न्याय हैं। समकालीन उदारवादी विचारक इस न्याय पद्धति में विश्वास रखते हैं। इस न्याय व्यवस्था के समर्थक यह मानते हैं कि सेवाओं, पदों एवं वस्तुओं इत्यादि के वितरण की प्रक्रिया या विधि न्यायपूर्ण होनी चाहिए। किसे क्या मिलता है, यह विवाद का विषय नहीं है। दूसरे शब्दों में इस अवधारणा में प्रक्रिया पर बल दिया जाता है; परिणाम में नहीं। इसके उलट तात्विक न्याय के समर्थकों की मान्यता है कि उपरोक्त सेवाओं, पदों एवं वस्तुओं इत्यादि का वितरण न्यायपूर्ण होना चाहिए । इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु इसकी प्रक्रिया में आवश्यक समायोजन किया जाना चाहिए। इस प्रकार प्रक्रियात्मक न्याय से अभिप्राय औपचारिक या वैधानिक न्याय से मिलता-जुलता तथा तत्विक न्याय से तात्पर्य सामाजिक-आर्थिक न्याय से है। प्रक्रियात्मक न्याय में जहाँ क्षमता पर बल दिया जाता है, आवश्यकता पर नहीं, वही तात्विक न्याय में व्यक्ति की मूलभूत आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयत्न करते हुए अवसर की समानता पर बल दिया जाता है। प्रक्रियात्मक न्याय में बाजारवादी अर्थव्यवस्था था पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसके अनुसार बाजार व्यवस्था स्वमेव उत्पादन के तत्त्वों को आकर्षित करके उनके सर्वश्रेष्ठ प्रयोग की परिस्थितियाँ पैदा कर देती हैं। प्रक्रियात्मक न्याय के चिंतकों में हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903), एफ. ए हेयक (1899- 1992), मिल्टन फ्रीडमैन (1912-2006) तथा रॉबर्ट नॉजिक (1938-2002) के नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त जॉन रॉल्स (1921-2002) ने प्रक्रियात्मक न्याय को सामाजिक न्याय के सिद्धांत के साथ जोड़कर न्याय के संदर्भ में विस्तृत सिद्धांत प्रस्तुत किया है। प्रक्रियात्मक न्याय सिद्धांत जाति, धर्म, रंग, लिंग, क्षेत्र, भाषा एवं संस्कृति इत्यादि के आधार पर समाज में मनुष्यों के बीच में किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करता है। यह सिद्धांत समाज में सब मनुष्यों की समान गरिमा और समान महत्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टिकोण से यह एक प्रगतिशील विचार प्रतीत होता है परंतु यह विचार बाजारवादी अर्थव्यवस्था एवं पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को महत्त्वपूर्ण मानते हुए इस मान्यता पर विश्वास करता है कि सबके लिए समान नियम बना देने से समाज के सभी सदस्य अपने परस्पर संबंधों को न्यायपूर्ण विधि से समायोजित कर लेंगे तथा सरकार को इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। इस विचार के संदर्भ में हर्बर्ट स्पेंसर तर्क देते हैं कि सरकार को दिव्यांगों की भी कोई सहायता नहीं करनी चाहिए, अपितु जो कोई भी जीवन संघर्ष में असक्षम सिद्ध हो उसे मर- खप जाने देना चाहिए। एफ. ए. हेयक तर्क देते हैं कि सरकार को जनकल्याण के उद्देश्य से बाजार अर्थव्यवस्था के नियंत्रण के विचार का त्याग कर देना चाहिए। मिल्टन फ्रीडमैन का मानना है कि ‘मुक्त विनिमय अर्थव्यवस्था’ को प्रतिस्पर्धात्मक पूँजीवाद ही सहारा देता है । अतः सरकार को केवल उन्हीं कार्यों का उत्तरदायित्व लेना चाहिए, जिन्हें बाजारवादी अर्थव्यवस्था नहीं संभाल पाती। सरकार का कार्य बाजार अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करना नहीं होता, बल्कि उसे जनकल्याण, सामाजिक सुरक्षा एवं बाजार के विनिमय से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए। 

रॉबर्ट नॉजिक ने अपनी पुस्तक ‘एनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया’ में न्याय के अपने सिद्धांत की व्याख्या की है। नॉजिक संपत्ति के अधिकार को सर्वप्रमुख मानवाधिकार मानते हुए यह तर्क देते हैं कि राज्य का प्रमुख कार्य संपत्ति की रक्षा करना है। उनके मतानुसार, राज्य को अपने नागरिकों की संपत्ति के अधिग्रहण एवं पुनर्वितरण का अधिकार प्राप्त नहीं है। क्योंकि वे मूलतः इसके सेवार्थी थे। समाज में कोई भी संपत्ति ‘उत्पादन’ एवं ‘स्वैच्छिक हस्तांतरण’ के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप जो विषमताएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें वितरण के स्तर पर परिवर्तित करने का प्रयास अन्यायपूर्ण होगा। नॉजिक का मत है कि कराधान (कर लगाना) को भी उसी सीमा तक न्यायोचित माना जा सकता है, जहाँ तक वह ‘न्यूनतम राज्य’ के खर्च उठाने के लिए आवश्यक हो। इस संदर्भ में वे कल्याणकारी राज्य का कड़ा विरोध करते हैं। प्रक्रियात्मक न्याय के आलोचकों का मत है कि इस न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी त्रुटि है कि, इसने न्याय की संकल्पना को व्यक्तिवाद के संदर्भ में प्रस्तुत किया है, मनुष्य के सामाजिक प्राणी के संदर्भ में नहीं किया। समाज में विभिन्न व्यक्तियों की स्थिति विषम होती है। इसलिए एवं असमतामूलक समाज में न्याय का प्रक्रियावादी स्वरूप असंगत सिद्ध होता है। : 

प्रक्रियात्मक न्याय के विपरीत तात्विक न्याय या सामाजिक न्याय का विचार मार्क्सवाद एवं समाजवाद के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। यह एक ऐसे साम्यवादी समाज की कल्पना करते हैं, जिसमें उत्पादनों के साधनों पर पूरे समाज का नियंत्रण है। अतः यह अवसर की समानता की बजाय, सभी के लिए समान परिस्थितियों का समर्थन करते हैं। इनका मानना है कि आर्थिक जीवन में खली प्रतिस्पर्धा ऐसी असमानताओं को जन्म देती है। जिससे निर्धन वर्ग धनवान वर्ग द्वारा निर्धारित शर्तों पर कार्य करने के लिए मजबूर हो जाता है । राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में भी निर्धन वर्ग को हीन स्थिति का सामना करना पड़ता है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि तात्विक न्याय का लक्ष्य यह है कि सामाजिक विकास का लाभ कुछ चुनिंदा लोगों के हाथ में ही सिमट कर न रह जाए बल्कि उसे समाज में कमजोर, वंचित एवं अभावग्रस्त स्तर तक पहुँचाने का प्रबंध किया जाए। 


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