प्रश्न – न्याय क्या है ? न्याय की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
‘‘न्याय सामाजिक जीवन की वह व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति के आचरण का समाज के कल्याण के साथ समन्वय स्थापित किया गया है। ‘
व्यक्ति स्वभाव से स्वार्थी होता है। वह सदैव अपने हित को अग्रसर करना चाहता है। यदि उसका आचरण, समाज के व्यापक हितों के अनुकूल हो, तब तो उसके आचरण को न्यायोचित माना जाता है, किन्तु यदि व्यक्ति स्वार्थ के वशीभूत होकर समाज के विपरीत आचरण करने लगता है तो उसके कार्यों को न्यायोचित नहीं कहा जाता। ऐसी स्थिति में समाज यह चेष्टा करता है कि व्यक्ति का आचरण समाज के व्यापक हित के अनुकूल बन जाये। समाज के इसी प्रयत्न को ‘न्याय’ कहा जाता है।
न्याय का अर्थ एवं परिभाषाएँ.
न्याय की अवधारणा प्राचीनकाल से ही राजनीतिक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण विषय रही है परन्तु आधुनिक समय में परम्परागत न्याय की अवधारणा में अनेक मौलिक परिवर्तन हुए हैं। प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने न्याय को आत्मा का गुण बताया है। प्राचीनकाल में न्यायपूर्ण व्यक्ति के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किए गए। व्यक्तियों में उन सद्गुणों की खोज की जाती थी जो उनको न्यायपरायण बना सकें। आधुनिक समय में न्याय की अवधारणा ‘न्यायपूर्ण समाज’ तथा सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों से सम्बद्ध है।
न्याय एक जटिल अवधारणा है। यह शब्द अंग्रजी भाषा के ‘Justice’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Justice शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Jus’ (जस) शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘बाँधना’। इस प्रकार से न्याय अथवा जस्टीशिया का मूल भाव जोड़ना अथवा लगाना, बन्धन अथवा ग्रन्थि है। न्याय प्रमुख रूप से व्यक्तियों को व्यक्तिगत सम्बन्धों की संगठित व्यवस्था में जोड़ने का कार्य है। न्याय का कार्य विभिन्न राजनीतिक मूल्यों का समायोजन करना है। अतः न्याय राजनीतिक मूल्यों का संश्लेषक है।
न्याय को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है—
मेरियम के शब्दों में, “न्याय उन मान्यताओं तथा प्रक्रियाओं का योग है जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे समस्त अधिकार तथा सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जिन्हें समाज उचित समझता है । ”
जे ० एस० मिल के मतानुसार, “न्याय नैतिक नियमों के कुछ वर्गों का नाम है जो अधिक स्पष्ट रूप में मानव कल्याण की आवश्यकताओं से सम्बन्धित हैं और इसी कारण जीवन के पक्ष प्रदर्शन के लिए किसी भी अन्य विषयों की तुलना में वह अधिक निश्चित दायित्व है। ”
बैन तथा पीटर्स के अनुसार, “न्यायपूर्ण कार्य करने का अर्थ यह है कि जब तक भेदभाव किए जाने का कोई उचित कारण न हो, तब तक सभी व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार किया जाए।’
रॉबर्ट टकर के अनुसार, “न्याय का अर्थ है कि जब दो पक्षों अथवा सिद्धान्तों के मध्य संघर्ष हो तो उसका समाधान इस प्रकार से किया जाए कि किसी भी पक्ष के उचित अधिकारों का अतिक्रमण न हो । ‘
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि न्याय स्वयं में पूर्ण अथवा निरपेक्ष अवधारणा नहीं है। समय तथा परिस्थितियों के अनुरूप न्याय की अवधारणा में भी परिवर्तन हो जाता है। न्याय का सम्बन्ध सामाजिक अथवा मानवीय मूल्यों, औचित्य तथा आदर्शों से होता है। व्यापक रूप से न्याय को मानव तथा समाज के समस्त आचरणों के साथ सम्बन्धित किया जाता है। यह अवधारणा न्याय को उत्पत्ति से सम्बन्धित न करके सामाजिक व्यवस्था के साथ सम्बन्धित करती है। संकीर्ण अर्थों में न्याय को केवल कानून के साथ सम्बद्ध किया जाता है। यहाँ न्याय मात्र एक प्रक्रिया के रूप में प्रतीत होता है।
न्याय की प्रमुख विशेषताएँ
विचारकों ने कभी न्याय को व्यक्ति से सम्बद्ध किया है तो कभी समाज से सम्बद्ध किया है। देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार न्याय के स्वरूप में परिवर्तन होते रहे हैं। न्याय की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. न्याय सापेक्ष होता है : न्याय प्रकृति से पूर्ण अथवा निरपेक्ष होने के स्थान पर सापेक्ष होता है। समाज के मूल्यों, मान्यताओं एवं आदर्शों में परिवर्तन हो जाने पर न्याय के स्वरूप में भी मौलिक परिवर्तन हो जाते हैं। समाज में व्याप्त अधिकार तथा सुविधाएँ सापेक्ष होती हैं अर्थात् उनके विषय में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों तथा समाजों की धारणाएँ एकसमान न होकर भिन्न-भिन्न होती हैं।
2. न्याय प्रक्रियाओं से सम्बन्धित : जहाँ कानून को व्यक्ति के साथ सम्बन्धित करके देख जाता है, वहाँ न्याय को एक प्रक्रिया के रूप मैं देखा जाता है। न्याय को कानून बनाने के तरीकों, न्यायसंगत कानूनों, न्यायालयों की न्यायिक प्रक्रिया, स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायिक व्यवस्था, कानून तथा न्यायालयों के समक्ष नागरिक समानता के रूप में देखा जाता है। समाज की मान्यताएँ कानूनों के रूप में अभिव्यक्त होती हैं।
3. न्याय मान्यताओं से सम्बन्धित : न्याय का सम्बन्ध मान्यताओं तथा विचारों से होता है। प्रत्येक युग में न्याय-अन्याय तथा उचित – अनुचित की धारणाएँ विद्यमान रहती हैं।
4. न्याय भेदभावरहित धारणा : न्याय इस धारणा पर आधारित होता है कि समाज में किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी आधार पर कोई भेदभाव न हो । आधुनिक समय में न्याय का दृष्टिकोण सामाजिक न्याय की भावना है। सामाजिक न्याय की अवधारणा स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व के आदर्शों पर निर्भर होती है परन्तु शासन के द्वारा समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान तथा कल्याण के लिए जो अतिरिक्त व्यवस्थाएँ की जाती हैं, उन्हें अन्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।
5. निष्पक्षता पर आधारित : न्याय निष्पक्षता पर आधारित होता है। न्याय व्यक्ति- व्यक्ति के मध्य धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्मस्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता है । निष्पक्ष न्याय के लिए आधुनिक समय में संविधान के द्वारा ऐसे प्रावधान किए जाते हैं जिससे न्यायालय स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष भूमिका का निर्वाह कर सके।
6. न्याय मानवीय व्यवहार में ही सम्भव : न्याय-अन्याय अथवा पक्षपात – निष्पक्षता का प्रश्न केवल मानवीय व्यवहार को ही प्रभावित करता है। पशुओं के समाज में न्याय का कोई महत्त्व नहीं होता है।
7. न्याय बन्धुता पर आधारित : न्याय विश्व में भातृत्व एवं बन्धुता के भाव को विकसित करने का प्रयास करता है। न्याय समाज से प्रान्तीयता, प्रदेशवाद तथा साम्प्रदायिकता तथा संकीर्ण धार्मिक भावनाओं को समाप्त करने का प्रयास करता है।
8. न्याय का सम्बन्ध ‘ सुनीति’ से होता है : न्याय ‘सुनीति’ से सम्बद्ध होता है। सुनीति के सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकारों अथवा सुविधाओं का वितरण करते समय व्यक्तियों की आवश्यकता, उनकी विशेष योग्यताओं तथा क्षमता पर अधिक ध्यान देना चाहिए। अरस्तू ने न्याय के सम्बन्ध में वितरणात्मक (Distributive) सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए स्पष्ट किया था कि न्याय वह होता है जिसमें राजनीतिक पदों की प्राप्ति की योग्यता राज्य के प्रति की गई सेवा के अनुरूप हो ।
9. न्याय समानता पर आधारित : समाजवादी उसी सामाजिक व्यवस्था को न्यायपूर्ण मानते हैं, जहाँ आर्थिक समानता के सिद्धान्त को लागू किया जा सके। समाजवादी चिन्तक समाज से आर्थिक विषमता, गरीबी, बेरोजगारी आदि को समाप्त करना चाहते हैं ।
10. प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान : विद्वानों का यह मत है कि प्रत्येक व्यक्ति की कुछ सीमाएँ होती हैं जो प्रकृति द्वारा निर्धारित की जाती है। किसी भी व्यक्ति से उसकी क्षमता से अधिक कार्य नहीं लिया जा सकता है। जैसे एक अस्वस्थ व्यक्ति अपनी क्षमतानुरूप ही कार्य कर सकता है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि न्याय प्रत्येकं सामाजिक व्यवस्था के लिए न केवल आवश्यक, वरन् अपरिहार्य भी है। न्याय का सम्बन्ध मानवीय मूल्यों से है जो उसकी प्रकृति में निहित है। न्याय के द्वारा इन मानवीय मूल्यों की सुरक्षा होती है। न्याय सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। न्याय समाज एवं राज्य के स्वरूप पर भी निर्भर करता है।
न्याय के मूलभूत तत्व
(Basic Elements of Justice)
न्याय के मूलभूत सिद्धांत निम्नलिखित हैं—
1. निष्पक्षता : न्यायाधीश को राग-द्वेष को छोड़कर सभी नागरिकों को समान दृष्टि से देखना चाहिए। किसी के साथ पक्षपात नहीं होना चाहिए।
2. कानून के समक्ष समानता : कानून सबके लिए एक से होने चाहिए। कोई व्यक्ति कानून के परे न माना जाये। बड़े-से-बड़ा व्यक्ति भी यदि कानून का उल्लंघन करे तो उसे उसी प्रकार दण्डित किया जाना चाहिए जैसे किसी सामान्य नागरिक को किया जायेगा।
3. नागरिक स्वतंत्रता : किसी व्यक्ति को तब तक दण्डित नहीं किया जाये, जब तक सरकार द्वारा स्थापित न्यायालय में यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित न हो जाये कि उसने कोई अपराध किया है। अभियुक्त को अपने बचाव का पूरा-पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। न्यायाधीश को यह मानकर चलना चाहिए कि व्यक्ति निरपराध है, जब तक कि सत्यता प्रमाणित न हो जाये । ( A man is innocent, unless proved otherwise.)
यदि किसी अभियुक्त के विषय में यह स्पष्ट न हो सके कि उसने अपराध किया है अथवा नहीं हो तो ऐसी स्थिति में ‘सन्देह का लाभ अभियुक्त को जाता है।’ (Benefit of doubt goes to accused.)
4. त्वरित न्याय : न्याय के वितरण में देर नहीं होनी चाहिए। यदि न्याय प्राप्त करने में देर होती है तो न्याय का महत्व समाप्त हो जाता है (Justice delayed is justice denied.)
5. सस्ता न्याय : यदि न्याय प्राप्त करना अत्यधिक व्यय साध्य हो जायेगा सामान्य लोग न्याय से वंचित रहने लगेंगे। अत्यधिक व्यय की आशंका से वे न्यायालय की शरण में नहीं जायेंगे और चुपचाप अन्याय, अत्याचार तथा उत्पीड़न सहते रहेंगे।
उपसंहार : जिस देश में नागरिक अपने आपको अन्यायग्रस्त अनुभव करने लगते उस देश में शांति और सुव्यवस्था चिरस्थायी नहीं रह सकती । अत्याचार सहने की एक सीमा होती है और जब अत्याचार सीमा से अधिक बढ़ जाते हैं तो विद्रोह और क्रांति की परिणति होती है। अतः देश और समाज को क्रांति से बचाने का एकमात्र उपाय वहाँ न्याय की स्थापना करना है।
न्याय के प्रकार
न्याय के प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं-
1. प्राकृतिक न्याय : इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य को कुछ अधिकार प्रकृति से प्राप्त होते हैं। उन अधिकारों से उसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए । यही प्राकृतिक न्याय है।
इंग्लैण्ड के महान विद्वान् लॉक ने तीन प्राकृतिक अधिकार माने हैं-जीवन, स्वतंत्रता तथा सम्पत्ति । ये अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होने चाहिए।
अमेरिका के स्वतंत्रता घोषणा पत्र में लिखा है, “हम इन सत्यों को स्वयं सिद्ध मानते हैं कि सब मनुष्य स्वतंत्र और समान पैदा हुए हैं, उन्हें उनके रचयिता ने कुछ अधिकार प्रदान किये हैं जो अदेय हैं। इन अधिकारों में हैं – स्वतंत्रता, समानता तथा सुख प्राप्त करने का प्रयास।’”
2. कानूनी न्याय : आजकल ‘कानूनी न्याय’ को ही ‘न्याय’ माना जाता है। कानूनी भाषा में ‘कानून की व्यवस्था’ को ही ‘न्याय की व्यवस्था’ कहा जाता है अर्थात् ‘कानून’ और ‘न्याय’ एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गये हैं।
कानूनी न्याय के दो रूप हैं-
(a) सरकार द्वारा बनाये हुए कानून न्यायोचित होने चाहिए। वे अन्यायपूर्ण न हों अर्थात् उनके कारण व्यक्तियों पर अत्याचार न हो ।
(b) वे सब नागरिकों पर समान रूप से लागू किये जायें। कोई व्यक्ति कानून के ऊपर न हो अर्थात् जो कोई कानून तोड़े उसे उचित दण्ड दिया जाये। किसी के साथ पक्षपात न किया जाये।
3. राजनीतिक न्याय : राजनीतिक न्याय से तात्पर्य यह है कि सभी नागरिकों को उन्नति के लिए समान अवसर प्राप्त हों (Equall opportunites for all), समान काम के लिए समान वेतन (Equal pay for equal work), नागरिकों को वाणी, भाषण तथा लेख की स्वतंत्रता प्राप्त हो, वे अपने संघ या समुदाय बना सकें तथा प्रत्येक नागरिक को सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार हो। समाज में कोई विशिष्ट या अभिजात्य वर्ग (Elite) नहीं होना चाहिए
4. सामाजिक न्याय : सामाजिक न्याय से तात्पर्य यह है कि जाति, वंश, नस्ल, धर्म आदि के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न किया जाये । स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त हों और समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव न हो । वर्तमान युग में सामाजिक न्याय का विचार बहुत ही लोकप्रिय है।
5. आर्थिक न्याय : आर्थिक न्याय से तात्पर्य यह है कि समाज में यह नहीं होना चाहिए कि कुछ लोग बहुत अमीर हों और कुछ लोग बहुत अधिक गरीब। जीवन की चरम आवश्यकताएँ सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होनी चाहिए।