भारतीय संविधान में वर्णित समानता के अधिकार को स्पष्ट करें।

समानता का अधिकार ( अनुच्छेद 14 से 18 अनुच्छेद) : समानता लोकतन्त्र का एक प्रमुख सिद्धान्त है। समानता के अभाव में वास्तविक रूप से लोकतन्त्रात्मक शासन की स्थापना होनी असम्भव है। अतः भारतीय संविधान में समानता सम्बन्धी अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। समानता सम्बन्धी अधिकार निम्नलिखित हैं- 

1. कानून के समक्ष समानता : संविधान के 14वें अनुच्छेद के अनुसार भारतीय राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता अथवा कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। कानून के समक्ष समानता ब्रिटिश सामान्य विधि की देन है। यह विधि के शासन की अभिव्यक्ति है। यह समानता के नकारात्मक पक्ष को अभिव्यक्ति करता है। कानून का समान संरक्षण वाक्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है। इसका अर्थ समानों में समानता (Equality among equals) से लगाया जाता है। यह समानता के सकारात्मक पक्ष को अभिव्यक्त करता है। इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि यदि कानून कर लगाने के सम्बन्ध में धनी त निर्धन में तथा सुविधाएँ प्रदान करने में स्त्रियों तथा पुरुषों में भेद करता है तो इसे कानून के समक्ष समानता का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है। कानून के समान संरक्षण के आधार पर राज्य व्यक्ति-व्यक्ति के बीच भेदभाव कर सकता है। विद्वानों ने इसे संरक्षणात्मक भेदभाव की संज्ञा प्रदान की है। 

2. धर्म, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के भेदभाव का अन्त: संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। इस अधिकार का अभिप्राय यह है कि केवल धर्म, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा। कोई भी नागरिक इन आधारों पर (i) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों, मनोरंजन के स्थानों या (ii) सरकार द्वारा स्थापित किए हुए कुओं, तालाबों, सड़कों तथा सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग करने से वंचित नहीं किया जा सकता है अर्थात् प्रत्येक भारतीय नागरिक इन स्थानों का समान रूप से उपयोग कर सकता है। 

3. सरकारी सेवाओं के विषय में अवसर की समानता : संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुसार केवल धर्म, जाति, वर्ण आदि के आधार पर राज्य के अन्तर्गत किसी रोजगार, नियुक्ति और किसी उच्च पद को प्राप्त करने के सम्बन्ध में किसी नागरिक के साथ भेदभावपूर्ण नीति का प्रयोग नहीं किया जाएगा। इस अधिकार के अन्तर्गत भारत का प्रत्येक नागरिक राज्य का उच्च पद प्राप्त कर सकता है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष । 

4. अस्पृश्यता का अन्त: संविधान के अनुच्छेद 17 के अनुसार, अस्पृश्यता का सदैव के लिए अन्त कर दिया गया है। इस अधिकार के अन्तर्गत किसी नागरिक को अस्पृश्यता के आधार पर किसी अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा। जो व्यक्ति ऐसा करने का प्रयत्न करेगा, राज्य की ओर से उसे दण्ड दिया जाएगा। इस अनुच्छेद के द्वारा अस्पृश्यता को दण्डनीय अपराध बनाया गया है। सार्वजनिक सेवा प्रदान करने के समय व्यक्ति अस्पृश्यता के आधार पर किसी व्यक्ति को सेवा प्रदान करने से मना नहीं कर सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो उसको राज्य के द्वारा दण्डित किया जा सकता है। 

इसके साथ ही अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़ा वर्ग को उन्नति करने के लिए संविधान ने अनेक प्रकार के विशेष सुविधाएँ भी प्रदान की हैं। उदाहरण के लिए सरकारी सेवाओं एवं पदों के लिए इनके लिए स्थान सुरक्षित किए गए हैं। इन्हें निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने की छूट दी गई है और सरकार की ओर से आर्थिक सहायता भी दी जाती है। 

संविधान में यह भी उल्लेख है कि इन प्रयत्नों को किसी न्यायालय द्वारा इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकेगा कि इसके अनुसार किसी वर्ग विशेष को राज्य के राज्य के द्वारा विशेष सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं। संविधान के अन्तर्गत आरक्षण की व्यवस्था को इस अनुच्छेद के आधार पर ही लागू किया जा सका है। 

5. उपाधियों का अन्त: संविधान के अनुच्छेद 18 के अनुसार उपाधियाँ समानता के मार्ग में बाधक होती हैं तथा समाज में विषमता उत्पन्न करती हैं। इसलिए सेना तथा शिक्षा सम्बन्धी उपाधियों के अतिरिक्त अन्य सभी उपाधियों को समाप्त किया गया है, जो ब्रिटिश शासनकाल में प्रदान की जाती थी। संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि, कोई भी भारतीय किसी विदेशी राज्य से किसी भी प्रकार की कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है। किन्तु विदेशी, जो भारत सरकार के अधीन सेवा में हो, वह केवल राष्ट्रपति की अनुमति से ही किसी विदेशी राज्य की उपाधि ग्रहण कर सकता है। इस सम्बन्ध में डॉ॰ अम्बेडकर ने कहा है, “यह कोई अधिकार नहीं वरन् नागरिक बने रहने के लिए व्यक्ति पर लगाया गया एक कर्त्तव्य हैं। ” 

समानता के अधिकार के कुछ अपवाद 

संविधान में यह भी उल्लेख किया गया है कि उपयुक्त समानता के अधिकारों का प्रयोग नागरिक पूर्ण निरपेक्षता के साथ नहीं कर सकते हैं। इन अधिकारों की भी कुछ सीमाएँ हैं। राज्य निम्नलिखित दशाओं में इन अधिकारों की उपेक्षा कर सकेगा- 

(1) राज्य महिलाओं तथा बच्चों की सुविधा के लिए विशेष नियमों का निर्माण कर सकता है और सार्वजनिक स्थानों में प्रविष्ट होने के लिए महिलाओं और दलित वर्ग के लिए विशेष सुविधाएँ देने हेतु कानून बना सकता है। 

(2) समाज के कुछ वर्गों के लिए सरकारी सेवाओं में स्थान सुरक्षित किए जा सकते हैं। 

(3) संविधान द्वारा राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि यदि वह चाहे तो किसी पद के लिए निवास तथा स्थान- सम्बन्धी योग्यता को निर्धारित कर सकता है। 

(4) राज्य सामाजिक तथा शिक्षा की दृष्टि से अनुसूचित जाति तथा पिछड़ी जातियों के लिए विशेष नियमों का निर्माण कर सकता हैं। 

इस प्रकार समानता के मौलिक अधिकार का संवैधानिक तथा मानवीय दृष्टिकोण से व्यापक महत्त्व है। विशेषकर अस्पृश्यता का उन्मूलन संविधान की एक अमूल्य देन है, क्योंकि यह गाँधी जी के दिव्य स्वप्न को पूर्ण करने में सहायक सिद्ध हुआ है। 


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