मानवाधिकार से आप क्या समझते हैं ? भारतीय संविधान एवं न्यायिक निर्णयों के सन्दर्भ में मानवाधिकार की स्थिति स्पष्ट करें। 

मानवाधिकारों की घोषणा सर्वप्रथम अमेरिका तथा फ्रांस की क्रान्तियों के पश्चात् हुई। उसके पश्चात् मानव के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को विश्व समुदाय के द्वारा स्वीकार किया गया। 1941 ई० में अमेरिकी कांग्रेस में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने मानव को चार- स्वतन्त्र अधिकारों को प्रदान करने का समर्थन किया- 

(1) भाषण तथा विचार अभिव्यक्ति का अधिकार, 

(2) धर्म तथा विश्वास का अधिकार, 

(3) अभाव से स्वतन्त्रता का अधिकार, 

(4) भय से स्वतन्त्रता का अधिकार। 

ये चारों अधिकार मानव के व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास के लिए आवश्यक हैं तथा विश्व के सभी व्यक्तियों को प्रत्येक दशा में प्राप्त होने चाहिए। अटलाण्टिक चार्टर से लेकर द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के पूर्व अनेक सम्मेलनों में मित्र राष्ट्रों के द्वारा मानव के विभिन्न अधिकारों तथा आधारभूत स्वतन्त्रताओं पर बल दिया गया। 

मानवाधिकार का तात्पर्य 

(Meaning of Human Rights) 

संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के चार्टर ने मानवाधिकार के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें स्पष्ट की गई हैं- 

( 1 ) चार्टर की प्रस्तावना में ‘मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरवपूर्ण महत्त्व में पुरुष तथा महिलाओं के लिए समान अधिकारों की बात व्यक्तं की गई है। 

(2) अनुच्छेद 1 में उल्लेख है, “मानवाधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा जाति, लिंग, भाषा तथा धर्म के भेदभाव के बिना मूलभूत अधिकारों को बढ़ावा देना तथा प्रोत्साहित करना । ” 

(3) अनुच्छेद 13 में मौलिक स्वतन्त्रताओं को प्रदान करने की बात कही गई है। इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 55, 56 तथा 62 में मानवाधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की सुरक्षा पर विशेष बल दिया गया है। चार्टर के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र को मानवाधिकारों के सम्बन्ध में केवल प्रोत्साहन देने का ही अधिकार है, कोई कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है। 

इस दृष्टि से व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा उसके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए राज्य नागरिकों को जो सुविधाएँ प्रदान करता है उनका नाम अधिकार है। विश्व शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इन अधिकारों का अत्यधिक महत्त्व है। 

“मावाधिकार से व्यक्ति के जीवन (प्राण), स्वतन्त्रता, समानता एवं गरिमा से सम्बन्धित ऐसे अधिकार अभिप्रेरित हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत अथवा अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सन्निहित हैं तथा भारत के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय हैं। ‘ 

मानवाधिकारों की यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक एवं विस्तृत है। इसमें अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं एवं अभिसमयों में समाहित तथा भारतीय संविधान द्वारा प्रत्याभूत जीवन, स्वतन्त्रता, समानता तथा वैयक्तिक गरिमा से सम्बद्ध अधिकारों को सम्मिलित किया गया है। इसका मूल लक्ष्य मानव जीवन तथा उसकी गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखना है। 

मानवाधिकार संविधान एवं न्यायिक निर्णयों के सन्दर्भ में 

(Human Rights in the Context of Constitution and Judicial Decisions) 

मानवधिकार को हम संविधान एवं न्यायिक निर्णयों के सन्दर्भ में निम्न प्रकार समझ सकते हैं- 

संविधान द्वारा प्रत्याभूत अधिकार : संविधान के भाग 3 में मानवाधिकारों (मौलिक अधिकार) से सम्बन्धित अधिकार प्रमुखतया निम्नलिखित हैं- 

समता का अधिकार (अनु० 14 से अनु० 18 तक) 

(1) राज्य, भारत के राज्य-क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। 

(2) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। 

(3) सार्वजनिक स्थलों के प्रयोग अथवा प्रवेश पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। 

(4) ‘अस्पृश्यता’ से उत्पन्न किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा । 

(5) राज्य सेना अथवा शिक्षा सम्बन्धी सम्मान के अतिरिक्त और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा। 

स्वतन्त्रता का अधिकार ( अनुच्छेद 19 से अनुच्छेद 22 तक) : मानवाधिकारों के संरक्षण की श्रृंखला में दूसरा महत्त्वपूर्ण मूल अधिकार स्वतन्त्रता का अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 19 में नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, शान्तिपूर्वक तथा निरायुध सभा अथवा सम्मेलन करने, संघ बनाने, भारत के राज्य-क्षेत्र में सर्वत्र आबाध विचरण करने, भारत के किसी भी भाग में बसने अथवा निवास करने की स्वतन्त्रताओं से विभूषित किया गया है। 

मानवाधिकारों से सम्बद्ध यह एक अहम् मूल अधिकार है । विख्यात विधिवेत्ता एन० ए० पालकीवाला ने स्पष्ट रूप से कहा है कि “स्वतन्त्रता मानव के हृदयं में निवास करती है । व्यक्ति की मृत्यु से पूर्व उसकी मृत्यु नहीं हो सकती । जब स्वतंन्त्रता की मृत्यु हो जाती है, तब कोई भी संविधान, विधि अथवा न्यायालय न तो उसे बचा सकता है और न ही कोई सहायता प्रदान कर सकता है।” पालकीवाला के इन विचारों से स्वतन्त्रता के मूल अधिकारों का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। वर्षों की दासता के उपरान्त देशवासियों ने स्वतन्त्रता के इन्हीं अधिकारों का सुनहरा स्वप्न सँजोया था । 

यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 19 में विभिन्न प्रकार की स्वतन्त्रताओं का उल्लेख किया गया है परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपने विभिन्न फैसलों में मानवाधिकार से सम्बन्द्ध अनेक प्रकार के अधिकारों का उल्लेख किया है; जैसे—जीवन का अधिकार, नागरिकता का अधिकार, मताधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, राज्य के साथ संविदा करने का अधिकार, सेवा में बने रहने का अधिकार, हड़ताल करने का अधिकार आदि। 

1. अपराधों के लिए दोषंसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण : मानवाधिकारों की शृंखला में संविधान के अनुच्छेद 20 के द्वारा प्रत्याभूत दोषसिद्धि के विरुद्ध संरक्षण का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है- 

(i) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करके समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी  प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नही किया है या उससे अधिक अपराध सिद्धि का भाग नहीं होगा जो उस अपराध के लिए किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी । 

(ii) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित तथा दण्डित नहीं किया जाएगा। 

(iii) किसी अपराध के लिए अभियुक्त के रूप में आरोपित किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। 

2. प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण: प्राण तथा दैकि स्वतन्त्रता का संरक्षण ही वस्तुतः मानवाधिकारों का संरक्षण है। यह वह अधिकार है, जो मानव को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 21 के अनुसार, “किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण अथवा दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं । 

समय-समय पर न्यायालयों के समक्ष ऐसे अनेक वाद आए हैं जिनमें प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकार में भी व्यापक व्यवस्था की गई। ऐसा कोई विषय शेष नहीं रहा जो मानव की गरिमा की रक्षा न करता हो, स्वास्थ्य की सुरक्षा, सामाजिक न्याय, फुटपाथ पर आजीविका कमाना, बँधुआ मजदूरों का पुनर्वास, नारी निकेतन का रख-रखाव, स्वच्छ पर्यावरण, स्वतन्त्र विचरण, निःशुल्क विधिक सहायता आदि अनेक विषयों पर उच्चतम् न्यायालय ने अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं तथा अपने निर्णयों में इनहें प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के क्षेत्र की सीमा में लाने का प्रयास किया है। 

कुल मिलाकर मूल अधिकारों का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि सभी मानवाधिकार इसमें समाहित हो गए हैं। 

3. कुछ दशाओं में गिरफ्तारी तथा निरोध में संरक्षण : अनुच्छेद 22 में गिरफ्तारी के विरुद्ध निम्नलिखित संरक्षणों का उल्लेख किया गया है- 

(i) गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार होगा। 

(ii) वह स्वेच्छा से किसी भी वकील से परामर्श कर सकेगा। 

(iii) गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना ऐसे व्यक्ति को 24 घण्टों से अधिक निरुद्ध नहीं रखा जा सकेगा। 

किसी भी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घण्टों से अधिक निरुद्ध न रखने की व्यवस्था प्रमुख रूप से पुलिस अधिकारियों की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए की गई है जिससे वे गिरफ्तारी के अधिकार का दुरुपयोग न कर सकें। 

शोषण के विरुद्ध अधिकार : मानवाधिकार यदि सबसे अधिक किसी तत्त्व से प्रभावित हुए हैं तो वह शोषण एवं अत्याचार से हुए हैं। भारत की अधिकांश अशिक्षित एवं निर्धन जनता अतीत से ही शोषण का शिकार रही है। सबल व्यक्तियों के द्वारा निर्बल एवं निर्धन वर्गों के व्यक्तियों का प्रारम्भ से ही शोषण किया जाता रहा है। निःसन्देह यह : व्यवस्था मानवीय मूल्यों के प्रतिकूल रही है। निवारण के लिए संविधान में शोषण के विरुद्ध 

अधिकार को समाहित किया गया है। अनुच्छेद 23 व 24 इसी से सम्बन्धित है। 

(1) मानव का दुर्व्यपार, बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात् श्रमं प्रतिषिद्ध किया जाता है तथा इस उपबन्ध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। 

(2) चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने अथवा खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या अन्य किसी परिसंकटमय नियोज़न में नहीं लगाया जाएगा। 

इस प्रकार से इन अनुच्छेदों के द्वारा महिलाओं तथा बच्चों का अनैतिक व्यापार, दास प्रथा, बेगार व बलात् श्रम सभी अब निषिध कर दिए गए हैं। 

न्यायिक निर्णय : इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय तथा विभिन्न उच्च न्यायालयां के द्वारा ऐसे अनेक निर्णय अभिनिर्णीत किए गए हैं जिनमें मानवाधिकारों की सुरक्षा के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। इस प्रकार संविधान के भाग 3 में वर्णित मूल अधिकार मूलतः मानवाधिकारों की सुरक्षा करते हैं। सच तो यह है कि वर्तमान समय में मूल अधिकारों एवं मानवाधिकारों का क्षेत्र इतना अधिक विस्तृत हो गया है कि दोनों एक-दूसरे के पर्याय एवं पूरक समझे जाने लगे हैं। 


About The Author

Spread the love

Leave a Comment

error: Content is protected !!