सिन्धु सरस्वती सभ्यता का आर्थिक जीवन
उत्खनन द्वारा प्राप्त किये गये भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता के निवासियों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी। यद्यपि समृद्धि प्राप्त करने हेतु उन्होंने विभिन्न साधनों का प्रयोग किया था, किन्तु कृषि ही सर्वप्रमुख साधन प्रतीत होता है।’ तत्कालीन आर्थिक जीवन का वर्णन निम्नवत् है :-
- कृषि – कृषि हड़प्पा सभ्यता के लोगों की अर्थव्यवस्था का मूल आधार था । खेतों की उर्वरता के कारण यहाँ अनाज की कमी नहीं थी । कपास की भी खेती होती थी जिससे लोग अपने लिए कपड़े बनाते थे । अनाज पीसने के लिए चक्कियों व कूटने हेतु ओखलियों के उपयोग के साक्ष्य मिलते हैं। सर्वप्रथम यहीं के निवासियों के कपास की खेती आरम्भ की । मेसोपोटामिया में यहीं से कपास जाता था जिसे वे ‘सिन्धु’ नाम से उच्चारित करते थे । यूनानियों ने कपास को ‘सिन्डन’ कहा जो कि सिन्धु का ही यूनानी रूपान्तर है ।
हल द्वारा खेतों की जुताई के साक्ष्य कालीबंगा से मिले हैं । हल द्वारा खेत की जुताई के साथ-साथ एक ही खेत में एक साथ दो-दो फसल उगाने की कला से भी इस सभ्यता के लोग परिचित थे । इस बात का भी संकेत मिलता है कि सिंचाई के लिए नदियों के साथ-साथ बाँध तथा नहरें भी बनायी गयी होंगी ।
उर्युक्त सभी साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता में एक उन्नत कृषि तकनीक का संकेत देते हैं।
- पशुपालन – कृषि के साथ-साथ हड़प्पावासियों की अर्थव्यवस्था का आधार पशुपालन भी था, इस तथ्य के भी पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं । यहाँ प्राप्त मुद्राओं पर अंकित बैलों से विदित होता है कि यहाँ दो प्रकार के बैल थे – (1) कूबड़दार बड़े सींग वाले एवं (2) बिना कूबड़ के छोटे सींग वाले ।
कुत्ता, हाथी, सूअर, गधा एवं ऊँट इनके प्रमुख पालतू जानवर थे । कुत्ता शिकार के काम भी आता था । इनके अलावा बिल्ली, बन्दर, खरगोश, हिरण, मुर्गा, मोर, तोता, उल्लू एवं हंस आदि के चित्र भी यहाँ प्राप्त मूर्तियों, खिलौनों एवं मुहरों पर मिले हैं।
- शिल्प तथा उद्योग-धन्धे – कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त विविध प्रकार के शिल्प एवं उद्योग-धन्धों के प्रति भी हड़प्पा संस्कृति के लोगों का स्पष्ट रुझान दृष्टिगोचर होता है। खुदाई में प्राप्त कताई-बुनाई के उपकरणों (तकली, सुई) की प्राप्ति स्पष्ट संकेत देती है कि कपड़ा बुनना यहाँ का एक प्रमुख उद्योग रहा होगा ।
कुम्भकार लोग मिट्टी के बर्तन बनाने हेतु चाक का व्यवहार करते थे, इसके अतिरिक्त हाथ से भी सामग्री बनाते थे । मोहनजोदड़ो में कुम्भकारों के मुहल्ले का भी पता चलता है ।
स्वर्णकारों का व्यवसाय भी उन्नत अवस्था में था । आभूषणों के निर्माण में उन्होंने काफी निपुणता प्राप्त की थी। वे लोग चाँदी के आभूषणों के साथ-साथ बर्तन भी बनाते थे, परन्तु सोने के केवल आभूषण बनाये जाते थे । शंख, सीप, घोंघा, हाथी दाँत से भी उपकरणों का निर्माण करना वे जानते थे ।
ताँबे तथा काँसे का प्रयोग मानव एवं पशु मूर्तियाँ बनाने में किया जाता था । खुदाई में ताँबे – काँसे के उपकरण बहुतायत में प्राप्त हुए हैं । इनमें घरेलू तथा कृषि सम्बन्ध उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, कड़ाही तथा प्रसाधन सामग्रियाँ प्रमुखता से मिलती हैं। वे लोग धातु को पीटकर चादर बनाने की कला से परिचित थे । अतः धातु उद्योग भी काफी उन्नत अवस्था में था ।
बढ़ईगिरी के व्यवसाय के भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। लकड़ी से मूर्तियाँ आदि बनायी जाती थीं । लकड़ी से निर्मित गाड़ी के पहियों तथा तख्तों के अवशेष मिलते हैं।
ईंट उद्योग भी विकसित अवस्था में था, घर ईंटों के बने होते थे । पकी ईंटों का प्रयोग इस सभ्यता की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। नाव बनाने में भी हड़प्पा सभ्यता के निवासी प्रवीण थे ।
चन्हूदड़ो तथा लोथल में मनका बनाने का कारखाना के साक्ष्य मिले हैं। दोनों ही स्थानों से कच्ची धातुएँ, भट्टियाँ, गुरिया आदि मिले हैं। चन्हूदड़ो में सेलखड़ी की मुहरें तथा चर्ट के बने बटखरे भी मिले हैं। इनके अलावा लोथल एवं बालाकोट का सीप उद्योग भी विकसित था ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हड़प्पा सभ्यता में शिल्प तथा उद्योग-धन्धे काफी उन्नत अवस्था में थे एवं उनके आर्थिक जीवन का प्रमुख आधार भी थे ।
- व्यापार तथा वाणिज्य (Trade and Commerce)
कृषि, पशुपालन, उद्योग-धन्धों के साथ-साथ सैन्धव निवासियों की व्यापार तथा वाणिज्य में काफी रुचि थी । उनके आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही व्यापार काफी उन्नत थे । इस सभ्यता के प्रमुख स्थल हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो ही व्यापार के प्रसिद्ध केन्द्र थे । दोनों के बीच की दूरी 483 किलोमीटर थी, किन्तु परस्पर व्यापारिक मार्गों द्वारा जुड़े हुए थे । व्यापार प्रमुखतः जल मार्ग द्वारा होता था, किन्तु थल मार्गों से भी वे परिचित थे । सिक्कों का प्रचलन न होने के कारण सम्भवतः वस्तु विनिमय के माध्यम से व्यापार होता था ।
सैन्धववासी तौल के लिए विभिन्न बाँटों का प्रयोग करते थे जिनमें 1, 2, 4, 8, 16, 32 एवं 64 का अनुपात होता था । वे सर्वाधिक प्रयोग 16 इकाई के बाँट का करते थे ।