Major History BA Semester 1 Short Question Answer in Hindi
प्रश्न 1 : वेद पर टिप्पणी लिखें ?
उत्तर : वेद प्राचीन भारत के सबसे पुराने और पवित्र ग्रंथ हैं। वेद की गणना विश्व साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ के रूप में की जाती है । ‘वेद’ शब्द का अर्थ है ‘ज्ञान’ । इन्हें ईश्वर द्वारा दिए गए दिव्य ज्ञान का संग्रह माना जाता है। ऋषियों ने यह ज्ञान ध्यान और साधना से पाया और फिर इसे श्रुति परंपरा यानी सुनकर याद करने की विधि से पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया। वेद संख्या में चार हैं—
- ऋग्वेद – इसमें अलग-अलग देवताओं की स्तुति के मंत्र हैं।
- यजुर्वेद – इसमें यज्ञ और पूजा करने की विधि है।
- सामवेद – इसमें मंत्रों को गाकर पढ़ने के तरीके हैं।
- अथर्ववेद – इसमें रोज़मर्रा के जीवन, स्वास्थ्य और तंत्र-मंत्र से जुड़े मंत्र हैं।
वेदों में केवल पूजा-पाठ ही नहीं, बल्कि जीवन जीने के नियम, नैतिक शिक्षा, समाज के नियम, स्वास्थ्य, खगोल विज्ञान और प्रकृति के बारे में भी जानकारी मिलती है।
ये ग्रंथ भारतीय संस्कृति और धर्म की नींव हैं। वेद हमें सिखाते हैं कि सत्य, धर्म और अच्छे कर्म ही जीवन को सफल और सुखी बनाते हैं। आज भी वेद ज्ञान और प्रेरणा के अमूल्य खजाने माने जाते हैं।
प्रश्न 2 : वेदांग पर टिप्पणी लिखें ?
उत्तर : वेदांग प्राचीन भारतीय शिक्षा का वह हिस्सा है, जो वेदों को समझने और उनका सही उपयोग करने में मदद करता है। ‘वेदांग’ का मतलब है – वेद का अंग यानी वेद का हिस्सा। ये वेदों की व्याख्या, अध्ययन और संरक्षण के लिए बनाए गए सहायक शास्त्र हैं।
वेदांग की संख्या छह है —
- शिक्षा – उच्चारण और स्वर सीखने का शास्त्र।
- कल्प – यज्ञ, पूजा और अनुष्ठान की विधि।
- व्याकरण – भाषा और शब्दों के नियम।
- निर्वचन (निरुक्त) – कठिन शब्दों के अर्थ समझाना।
- छंद – मंत्रों और श्लोकों के मात्रिक नियम।
- ज्योतिष – यज्ञ और त्योहार के सही समय की गणना।
इनका उद्देश्य वेदों के ज्ञान को सही रूप में संरक्षित रखना और उसका अर्थ स्पष्ट करना है। वेदांगों के बिना वेदों का सही अध्ययन और प्रयोग कठिन हो जाता है।
इस तरह, वेदांग वेदों के अध्ययन की आधारशिला हैं, जो न केवल धार्मिक कार्यों में बल्कि भाषा, व्याकरण, गणित और खगोल विज्ञान में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
प्रश्न 3 : उपनिषद क्या हैं ?
उत्तर : उपनिषद प्राचीन भारत के महान आध्यात्मिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं, जो वेदों का अंतिम भाग माने जाते हैं। इसलिए इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। ‘उपनिषद’ शब्द का अर्थ है – “गुरु के पास बैठकर गुप्त ज्ञान प्राप्त करना” । ये ग्रंथ साधारण धार्मिक अनुष्ठानों से आगे बढ़कर जीवन, ब्रह्मांड और परम सत्य के रहस्यों को समझाते हैं।
इनका मुख्य विषय आत्मा (जीव) और ब्रह्म (परम सत्य) का संबंध है। उपनिषद बताते हैं कि आत्मा और ब्रह्म अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं – इसे अद्वैत दर्शन कहा जाता है। इनका उद्देश्य मनुष्य को अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाकर मोक्ष दिलाना है, जिससे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल सके।
उपनिषदों में ईश्वर की प्रकृति, आत्मा की अमरता, संसार की उत्पत्ति, कर्म-फल का सिद्धांत और पुनर्जन्म पर गहन चर्चा मिलती है। ये केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि गहरी दार्शनिक शिक्षा देने वाले शास्त्र हैं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति, योग, ध्यान और अध्यात्म पर गहरा प्रभाव डाला है।
मुक्तिकोपनिषद में 108 उपनिषदों का वर्णन मिलता है, इन 108 उपनिषदों में से 10 को प्रमुख उपनिषद माना जाता है, प्रमुख उपनिषद – ईशा, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य और बृहदारण्यक हैं। इनका संदेश आज भी मानव जीवन को सही दिशा देने वाला है।
प्रश्न 4 : पुराण पर टिप्पणी लिखें ?
उत्तर : पुराण प्राचीन भारतीय धर्म, संस्कृति और इतिहास को सरल भाषा में बताने वाले ग्रंथ हैं। ‘पुराण’ का अर्थ है “पुरानी कथा”। इनका मुख्य उद्देश्य लोगों को धर्म, नीति और भक्ति की शिक्षा रोचक कहानियों के माध्यम से देना है, ताकि वे आसानी से समझ सकें।
पुराणों में सृष्टि की उत्पत्ति और अंत, देवताओं और ऋषियों की कथाएँ, राजाओं के वंश, तीर्थों का महत्त्व, व्रत-उपवास और त्योहारों का वर्णन मिलता है। इन्हें वेदों की गूढ़ बातों को साधारण भाषा में समझाने वाला साहित्य भी कहा जाता है।
परंपरा के अनुसार 18 प्रमुख पुराण और 18 उपपुराण माने जाते हैं। प्रमुख पुराणों में विष्णु पुराण, शिव पुराण, भागवत पुराण, मार्कंडेय पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मत्स्य पुराण आदि शामिल हैं।
पुराण केवल धार्मिक आस्था का स्रोत नहीं हैं, बल्कि इनमें उस समय के समाज, संस्कृति, इतिहास, भूगोल और लोकजीवन का भी सुंदर चित्र मिलता है। इन्होंने भारतीय जनजीवन में नैतिकता, भक्ति और एकता की भावना को मजबूत किया। यही कारण है कि आज भी पुराण ज्ञान, श्रद्धा और सांस्कृतिक पहचान के अमूल्य भंडार माने जाते हैं।
प्रश्न 5 : स्मृति पर टिप्पणी लिखें ?
उत्तर : स्मृति प्राचीन भारतीय धर्म और समाज से जुड़े नियमों और परंपराओं का संग्रह है। ‘स्मृति’ शब्द का अर्थ है याद किया हुआ ज्ञान। इन्हें श्रुति (वेदों) के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण धर्मग्रंथ माना जाता है। जहाँ श्रुति को ईश्वर प्रदत्त माना गया है, वहीं स्मृति ऋषियों द्वारा समाज की आवश्यकताओं के अनुसार रची गई है।
स्मृति ग्रंथों में धर्म, नीति, आचार-विचार, कानून, दंड व्यवस्था, विवाह, उत्तराधिकार, तीर्थ, व्रत और सामाजिक आचरण के नियम बताए गए हैं। इनका उद्देश्य समाज में अनुशासन, न्याय और सदाचार बनाए रखना था।
प्रसिद्ध स्मृतियों में मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति, पाराशर स्मृति आदि शामिल हैं। इनमें से मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण माना जाता है।
स्मृति का स्वरूप लचीला था, इसलिए समय और परिस्थिति के अनुसार इन नियमों में बदलाव होता रहा। इस कारण स्मृति ग्रंथों ने भारतीय समाज को लंबे समय तक संगठित और स्थिर बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई।
संक्षेप में, स्मृति प्राचीन भारत की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था का लिखित रूप है, जिसने लोगों को सही आचरण, न्याय और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
प्रश्न 6 : भारतीय साहित्य में महाकाव्य ( रामायण एवं महाभारत ) की विवेचना करें |
उत्तर : भारतीय साहित्य में महाकाव्यों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। महाकाव्य केवल साहित्यिक रचनाएँ ही नहीं, बल्कि संस्कृति, धर्म, नैतिकता और जीवन के आदर्शों का दर्पण भी होते हैं। भारतीय परंपरा में दो महाकाव्य विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं – रामायण और महाभारत। ये दोनों न केवल धार्मिक ग्रंथ हैं, बल्कि इतिहास, समाज, राजनीति, दर्शन और संस्कृति का अद्भुत संगम भी प्रस्तुत करते हैं।
रामायण
रामायण महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित एक महान संस्कृत महाकाव्य है, जिसमें लगभग 24,000 श्लोक और सात कांड हैं। यह महाकाव्य अयोध्या के राजकुमार भगवान राम के जीवन, उनके आदर्श चरित्र और धर्मपालन की कथा को वर्णित करता है।
रामायण में भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में दर्शाया गया है, जो सत्य, धर्म, त्याग और करुणा के प्रतीक हैं। इसमें सीता की पतिव्रता, लक्ष्मण की सेवा-भावना, भरत की त्याग-भावना और हनुमान की अटूट भक्ति का प्रेरणादायक चित्रण है। रावण द्वारा सीता हरण और उसके पश्चात राम-रावण युद्ध इस महाकाव्य का मुख्य प्रसंग है।
रामायण केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि यह जीवन के नैतिक और सामाजिक आदर्शों का मार्गदर्शन करने वाला ग्रंथ है। इसमें बताया गया है कि अंततः सत्य और धर्म की ही विजय होती है। यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति और मूल्यों का अमर प्रतीक है, जो आज भी लोगों को प्रेरणा प्रदान करता है।
महाभारत
महाभारत महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित विश्व का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण संस्कृत महाकाव्य है, जिसमें लगभग 1,00,000 श्लोक और 18 पर्व हैं। यह ग्रंथ केवल युद्ध की कथा नहीं, बल्कि जीवन, धर्म, राजनीति और नैतिकता का गहन मार्गदर्शन प्रदान करता है।
महाभारत की मुख्य कथा पांडवों और कौरवों के बीच कुरुक्षेत्र के युद्ध पर आधारित है, जो सिंहासन के अधिकार के साथ-साथ धर्म और अधर्म के संघर्ष का प्रतीक है। इसमें भीष्म, द्रोण, कर्ण, विदुर, द्रौपदी और श्रीकृष्ण जैसे महान पात्रों का चरित्र चित्रण अत्यंत प्रभावशाली है।
महाभारत का सबसे महत्वपूर्ण भाग भगवद्गीता है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्तव्य, भक्ति, आत्मज्ञान और धर्म के महत्व का उपदेश दिया। इस ग्रंथ में नीति, कूटनीति, त्याग, साहस और मानवीय गुण-दोषों का अद्भुत चित्रण है।
महाभारत भारतीय संस्कृति का अमूल्य धरोहर है, जो यह संदेश देता है कि अन्याय और अधर्म का अंत निश्चित है, और धर्म की सदैव विजय होती है।
दोनों महाकाव्य न केवल धार्मिक और नैतिक शिक्षा देते हैं, बल्कि समाज, राजनीति, युद्ध, संस्कृति और दर्शन का भी अद्भुत चित्र प्रस्तुत करते हैं। भारतीय साहित्य में इनका महत्व अमर है और ये आज भी लोगों को प्रेरणा और मार्गदर्शन देते हैं।
प्रश्न 7 : आरण्यक से क्या आशय है ?
उत्तर : आरण्यक वेदों का वह विशेष भाग है, जिसे वन या एकांत स्थान में अध्ययन और चिंतन के लिए बनाया गया था। “आरण्यक” शब्द संस्कृत के आरण्य से बना है, जिसका अर्थ है — वन से संबंधित। इन ग्रंथों को विशेष रूप से वानप्रस्थ आश्रम के लोगों के लिए रचा गया था, जब व्यक्ति गृहस्थ जीवन के उत्तरार्ध में संसार के कार्यों से अलग होकर आध्यात्मिक साधना और आत्मचिंतन में लग जाता है।
आरण्यकों में ब्राह्मण ग्रंथों की तरह यज्ञ और अनुष्ठानों की चर्चा तो होती है, लेकिन यहाँ जोर केवल बाहरी कर्मकांड पर नहीं, बल्कि उनके आंतरिक अर्थ और आध्यात्मिक महत्व पर दिया गया है। इनमें ध्यान, तप, संयम, प्रकृति के साथ सामंजस्य, और ब्रह्मविद्या की शिक्षा मिलती है।
इनका अध्ययन अक्सर प्रकृति की शांति में, जंगल के वातावरण में किया जाता था, क्योंकि माना जाता था कि एकांत और शांति में ही मन एकाग्र होकर सत्य और ब्रह्म को समझ सकता है।
संक्षेप में, आरण्यक वेदों का वह आध्यात्मिक सेतु है जो कर्मकांड से आगे बढ़कर ज्ञान और दर्शन की ओर ले जाता है, और मनुष्य को बाहरी पूजा से आंतरिक साधना की ओर प्रेरित करता है।
प्रश्न 8 : सामवेद पर चर्चा करे |
सामवेद चारों वेदों में तीसरा वेद है। इसका नाम ‘साम’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है गान या संगीत। इस वेद में मुख्य रूप से ऋग्वेद के मंत्रों को संगीतबद्ध करके प्रस्तुत किया गया है, ताकि इन्हें यज्ञ और पूजा के समय गाकर पढ़ा जा सके।
सामवेद को “संगीत का जनक” भी कहा जाता है, क्योंकि भारतीय शास्त्रीय संगीत की जड़ें इसी में मानी जाती हैं। इसमें लगभग 1,875 मंत्र हैं, जिनमें से अधिकांश ऋग्वेद से लिए गए हैं, लेकिन इन्हें गाने के लिए विशेष स्वर और लय के साथ व्यवस्थित किया गया है।
सामवेद का उपयोग विशेष रूप से सोमयज्ञ और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता था। इसका उद्देश्य केवल देवताओं की स्तुति करना ही नहीं, बल्कि संगीत के माध्यम से भक्ति और आध्यात्मिक भावना को जागृत करना भी है।
इस वेद में स्वर, ताल और लय का महत्व बताया गया है, जिससे यह न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि संगीत और कला के इतिहास में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामवेद हमें यह सिखाता है कि संगीत और भक्ति मिलकर मनुष्य के मन और आत्मा को शुद्ध और प्रसन्न करते हैं।
प्रश्न 9 : ऋग्वेद पर टिप्पणी लिखें ?
उत्तर : ऋग्वेद चारों वेदों में सबसे प्राचीन और मूल वेद है। इसे “वेदों का जनक” भी कहा जाता है, क्योंकि अन्य वेदों का आधार भी यही है। ऋग्वेद का शाब्दिक अर्थ है “ऋचाओं के ज्ञान का संग्रह” । इसका रचना काल लगभग 1500 ईसा पूर्व माना जाता है।
ऋग्वेद में कुल 10 मंडल (भाग) हैं, जिनमें लगभग 1028 सूक्त और 10,000 से अधिक मंत्र हैं। ये मंत्र विभिन्न देवताओं की स्तुति में रचे गए हैं, जैसे – अग्नि, इंद्र, वरुण, सूर्य आदि। इन मंत्रों में प्रकृति के तत्वों की महिमा, यज्ञ की महत्ता और मानव जीवन के आदर्श मूल्यों का वर्णन है।
ऋग्वेद में केवल धार्मिक स्तुतियाँ ही नहीं, बल्कि उस समय के समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति, युद्ध, कृषि, पशुपालन और शिक्षा से संबंधित जानकारी भी मिलती है। यह वेद हमें सिखाता है कि प्रकृति और मानव का संबंध गहरा है, और जीवन में सत्य, धर्म और परिश्रम का पालन आवश्यक है।
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति, भाषा और इतिहास का प्राचीनतम दस्तावेज है, जो आज भी ज्ञान, आस्था और प्रेरणा का अमूल्य स्रोत माना जाता है।
प्रश्न 10 : बौद्ध दर्शन पर टिप्पणी लिखे ?
उत्तर : बौद्ध दर्शन भगवान गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित है। गौतम बुद्ध ने लगभग ढाई हजार साल पहले भारत में लोगों को जीवन जीने का सही मार्ग बताया। बौद्ध दर्शन का मुख्य उद्देश्य है – दुखों को दूर करना और शांति व ज्ञान प्राप्त करना।
बुद्ध ने सिखाया कि जीवन में दुख का कारण हमारी इच्छाएं और मोह हैं। जब हम अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करते हैं और सही आचरण अपनाते हैं, तो हम दुख से मुक्त हो सकते हैं। उन्होंने “चार आर्य सत्य” बताए – (1) जीवन में दुख है, (2) दुख का कारण है, (3) दुख का अंत संभव है, (4) दुख से मुक्ति का मार्ग है। इस मुक्ति के मार्ग को “अष्टांगिक मार्ग” कहा जाता है, जिसमें सही विचार, सही वाणी, सही कर्म, सही आजीविका, सही प्रयास, सही स्मृति और सही ध्यान शामिल हैं।
बौद्ध दर्शन अहिंसा, करुणा, सत्य और संयम पर जोर देता है। इसमें पूजा-पाठ से ज्यादा अच्छे आचरण और ज्ञान को महत्व दिया जाता है। इसका मानना है कि हर इंसान अपने प्रयास से मोक्ष यानी निर्वाण प्राप्त कर सकता है। आज भी बौद्ध दर्शन पूरी दुनिया में शांति, भाईचारा और आत्मज्ञान का संदेश देता है।
प्रश्न 11 : जैन साहित्य पर टिप्पणी लिखे ?
उत्तर : जैन साहित्य प्राचीन भारत का महत्वपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक साहित्य है। यह मुख्य रूप से जैन धर्म के सिद्धांतों, नैतिकता, धर्म, जीवन और तपस्या पर आधारित है। जैन साहित्य की भाषा प्राचीन काल में प्राकृत और बाद में संस्कृत में भी रही।
इस साहित्य में प्रमुख ग्रंथों में आगम, अमनुस्मृति, तत्वार्थसूत्र और पंचांगसूत्र शामिल हैं। जैन साहित्य का उद्देश्य लोगों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे मूल्यों का पालन करना सिखाना है। इसमें जीवन और आत्मा के स्वरूप, जन्म और मृत्यु, कर्म और मोक्ष का विस्तृत वर्णन मिलता है।
जैन साहित्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि दार्शनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसमें ध्यान, तपस्या, धर्म और ज्ञान के मार्गों का विस्तार से उल्लेख किया गया है। जैन संतों और आचार्यों ने इसे सरल भाषा में लिखा ताकि आम लोग भी समझ सकें।
जैन साहित्य भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर का हिस्सा है और हमें नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
प्रश्न 12 : अभिलेख किसे कहते हैं ? अथवा , अभिलेख के महत्व पर प्रकाश डालें |
उत्तर : अभिलेख इतिहास का एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय स्रोत हैं। यह पत्थर, ताम्र, मिट्टी या किसी धातु पर लिखी स्थायी लिपि होती है, जिसमें किसी राजा, राज्य या समाज की महत्वपूर्ण घटनाओं, युद्धों, धर्म, नियम और समाज के जीवन का विवरण मिलता है। अभिलेखों से हमें अतीत के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्षों की सही जानकारी मिलती है।
इतिहासकार अभिलेखों के माध्यम से यह जान सकते हैं कि किस राजा का शासन कब और कहाँ था, किन युद्धों या विजय का विवरण है, नगरों, मंदिरों या जलाशयों का निर्माण किसने कराया और उस समय की आर्थिक स्थिति कैसी थी। अभिलेख भाषा, लिपि और शब्दों के प्रयोग से उस युग की संस्कृति और धार्मिक जीवन की भी झलक देते हैं।
अभिलेखों का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इन्हें आसानी से मिटाया या बदलना संभव नहीं था, इसलिए ये इतिहास का भरोसेमंद प्रमाण माने जाते हैं। भारत में अशोक के ताम्रपत्र, पाटलिपुत्र और खजुराहो के अभिलेख इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। अभिलेख हमें अतीत को समझने और सही इतिहास जानने में मदद करते हैं।
प्रश्न 13 : भारत के पर्यायों का उल्लेख करें | अथवा, भारतवर्ष की अन्य नामों की संक्षिप्त चर्चा करें |
उत्तर : भारत के कई पर्यायवाची नाम हैं, जो इसके गौरवशाली इतिहास और संस्कृति को दर्शाते हैं। मुख्य पर्याय इस प्रकार हैं:
- भारत: यह आधिकारिक नाम है, जो प्राचीन राजा भरत के नाम पर रखा गया है।
- इंडिया: यह अंग्रेज़ी नाम है, जो ‘सिंधु नदी’ के प्राचीन नाम ‘इंडस’ से बना है।
- हिंदुस्तान: फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘हिंदुओं की भूमि’। यह नाम मुग़ल काल में बहुत प्रचलित हुआ।
- आर्यावर्त: प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में प्रयुक्त नाम, जिसका अर्थ है ‘आर्यों का निवास स्थान’।
- जम्बूद्वीप: प्राचीन हिंदू और बौद्ध ग्रंथों में भारत के लिए प्रयुक्त एक और नाम, जिसका अर्थ है ‘जामुन के वृक्षों का द्वीप’।
- भारतवर्ष: सबसे प्राचीन नाम, जो राजा भरत के नाम पर ‘भरत का वर्ष (क्षेत्र)’ के रूप में जाना जाता था।
ये सभी नाम भारत की विविधतापूर्ण परंपरा और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की ओर इशारा करते हैं।
प्रश्न 14 : महाजनपद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर : प्राचीन भारत में जब छोटे-छोटे जनपद संगठित होकर बड़े राज्यों के रूप में विकसित हुए, तो उन्हें महाजनपद कहा गया। “महाजनपद” शब्द संस्कृत के दो शब्दों “महान” (बड़ा) और “जनपद” (लोगों का निवास स्थान) से मिलकर बना है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास भारत में कुल सोलह महाजनपद अस्तित्व में थे, जिनका उल्लेख बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय और जैन ग्रंथों में मिलता है।
ये सोलह महाजनपद थे — मगध, कोसल, वत्स, अवंति, काशी, कुरु, पांचाल, मत्स्य, चेदि, वज्जि, मल्ल, अस्सक, अंगा, सुरसेन, कंबोज और गांधार। प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी, राजा, प्रशासन और सेना थी। कुछ राज्यों में राजतंत्र व्यवस्था थी, जबकि कुछ में गणतंत्र प्रणाली प्रचलित थी।
इन महाजनपदों में मगध सबसे शक्तिशाली राज्य बनकर उभरा, जिसने आगे चलकर पूरे उत्तर भारत को अपने अधीन कर लिया। इस काल में कृषि, व्यापार, नगरों और सिक्कों का विकास हुआ, जिससे आर्थिक प्रगति तेज हुई।
महाजनपद काल ने भारत में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एकता की नींव रखी। इन्हीं राज्यों से आगे चलकर मौर्य, शुंग और गुप्त साम्राज्य जैसे बड़े साम्राज्य विकसित हुए, जिन्होंने भारत के इतिहास में स्वर्ण युग की रचना की।
प्रश्न 15 : वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत लिखिए |
उत्तर : “वसुधैव कुटुम्बकम” एक प्राचीन भारतीय सिद्धांत है, जिसका अर्थ है — “सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार है।” यह विचार उपनिषद से लिया गया है| इस सिद्धांत का मूल भाव यह है कि संपूर्ण मानव समाज, चाहे वह किसी भी देश, धर्म, जाति या भाषा से जुड़ा हो, एक ही परिवार का हिस्सा है।
वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत मानवता, समानता, करुणा और विश्व बंधुत्व की भावना को प्रकट करता है। यह हमें सिखाता है कि मनुष्य को केवल अपने स्वार्थ, परिवार या समाज तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे पूरे विश्व के कल्याण के लिए सोचना चाहिए। जब हम सभी मनुष्यों को एक परिवार मानते हैं, तब घृणा, हिंसा, भेदभाव और युद्ध जैसी बुराइयाँ समाप्त हो जाती हैं।
इस सिद्धांत का आधुनिक युग में भी बहुत महत्व है। आज जब पूरी दुनिया विज्ञान और तकनीक के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ चुकी है, तब वसुधैव कुटुम्बकम की भावना वैश्विक शांति और सह-अस्तित्व के लिए आवश्यक है।
भारतीय संस्कृति में यह विचार सर्वे भवन्तु सुखिनः और अहिंसा परमो धर्मः जैसे सिद्धांतों से जुड़ा हुआ है। यह केवल एक विचार नहीं, बल्कि मानव जीवन की एक जीवनशैली है, जो हमें एक-दूसरे से प्रेम और सम्मान करना सिखाती है।
प्रश्न 16: आयुर्वेद पर टिप्पणी लिखे ?
उत्तर : आयुर्वेद भारत की सबसे पुरानी और महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति है। “आयु” का मतलब है जीवन और “वेद” का मतलब है ज्ञान, यानी यह जीवन को स्वस्थ, लंबा और खुशहाल बनाने का ज्ञान है। इसकी शुरुआत हजारों साल पहले ऋषि-मुनियों ने की थी।
आयुर्वेद में बीमारी से बचने और इलाज करने के लिए प्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें जड़ी-बूटियों, पौधों, सही आहार, योग और ध्यान का महत्व है। आयुर्वेद मानता है कि हमारे शरीर में तीन तरह की शक्तियां होती हैं – वात, पित्त और कफ। जब ये संतुलन में रहती हैं, तो हम स्वस्थ रहते हैं, और असंतुलन होने पर बीमारियां हो जाती हैं।
इस पद्धति में इलाज केवल बीमारी को खत्म करने का नहीं, बल्कि उसकी जड़ को दूर करने का प्रयास किया जाता है। इसमें सही खान-पान, नियमित दिनचर्या और प्राकृतिक उपचार पर जोर दिया जाता है। आज भी आयुर्वेद भारत और दुनिया में लोगों के बीच लोकप्रिय है, क्योंकि यह बिना नुकसान के, शरीर और मन को स्वस्थ रखने का आसान तरीका देता है।
प्रश्न 17 : आर्यभट्ट पर टिप्पणी लिखे ?
उत्तर : आर्यभट्ट प्राचीन भारत के महानतम गणितज्ञ और खगोलशास्त्री माने जाते हैं । इनका जन्म पाटलिपुत्र में लगभग 476 ई. में हुआ था । उन्होंने अपने अद्भुत ज्ञान से गणित और खगोल विज्ञान दोनों क्षेत्रों में भारत को विश्व स्तर पर प्रसिद्ध किया। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभटीय’ में लगभग 121 श्लोक हैं, जिनमें गणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति और ग्रहों की गति से संबंधित वैज्ञानिक सिद्धांतों का वर्णन मिलता है।
आर्यभट्ट ने सबसे पहले यह सिद्ध किया कि पृथ्वी गोल है और अपने अक्ष पर घूमती है, जिसके कारण दिन और रात होते हैं। उन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहणों की वैज्ञानिक व्याख्या दी और बताया कि यह चंद्रमा या पृथ्वी की छाया के कारण होते हैं, न कि किसी दैवी शक्ति से। उन्होंने ‘π’ (पाई) का मान 3.1416 के समीप बताया, जो आधुनिक गणना के लगभग समान है।
गणित में आर्यभट्ट ने शून्य, दशमलव पद्धति और स्थानिक मान प्रणाली की अवधारणा को विकसित किया, जिसने आगे चलकर पूरे विश्व की गणना प्रणाली को बदल दिया।
उनके वैज्ञानिक विचार आज भी प्रेरणास्रोत हैं। आर्यभट्ट ने न केवल भारत को बल्कि पूरे विश्व को यह सिखाया कि ज्ञान और तर्क के माध्यम से सत्य की खोज की जा सकती है। वे वास्तव में भारत के गौरव और वैज्ञानिक परंपरा के प्रतीक हैं।
प्रश्न 18 : सुश्रुत संहिता पर टिप्पणी लिखें ?
उत्तर : सुश्रुत संहिता प्राचीन भारत की एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक ग्रंथ है, जिसकी रचना महान वैद्य आचार्य सुश्रुत ने की थी। इसे भारतीय चिकित्साशास्त्र का आधार माना जाता है। सुश्रुत को “शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का जनक” कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने शल्य चिकित्सा के अनेक सिद्धांतों और तकनीकों का उल्लेख इस ग्रंथ में किया है।
सुश्रुत संहिता में मानव शरीर रचना (एनाटॉमी), रोगों के प्रकार, औषधियों के प्रयोग, और शल्य चिकित्सा की विधियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें लगभग 300 प्रकार के शल्य उपकरणों और 120 से अधिक प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। सुश्रुत ने प्लास्टिक सर्जरी, नेत्र शल्य, प्रसूति शल्य तथा हड्डियों के उपचार के भी अनेक तरीके बताए थे।
इस ग्रंथ में स्वच्छता, रोग-निवारण, आहार-विहार और स्वास्थ्य संरक्षण पर भी विशेष बल दिया गया है। उन्होंने बताया कि रोग से बचाव, उपचार से अधिक महत्वपूर्ण है।
सुश्रुत संहिता न केवल भारत की, बल्कि पूरे विश्व की चिकित्सा परंपरा में एक मील का पत्थर है। आधुनिक शल्य चिकित्सा की नींव इसी ग्रंथ के सिद्धांतों पर टिकी मानी जाती है। सुश्रुत का योगदान भारतीय विज्ञान और चिकित्सा जगत की अमर धरोहर है।
प्रश्न 19 : चरक संहिता पर टिप्पणी लिखें ?
चरक संहिता प्राचीन भारत का एक अत्यंत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक ग्रंथ है, जिसकी रचना महान वैद्य आचार्य चरक ने की थी। यह ग्रंथ भारतीय चिकित्साशास्त्र का मूल आधार माना जाता है। इसमें स्वास्थ्य, रोग, निदान, औषधि, आहार-विहार और जीवनशैली से संबंधित गहन वैज्ञानिक सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है।
चरक संहिता का मुख्य उद्देश्य मानव शरीर को स्वस्थ रखना और रोगों की रोकथाम करना है। आचार्य चरक ने इस ग्रंथ में बताया कि स्वास्थ्य केवल शरीर की नहीं, बल्कि मन और आत्मा की संतुलित अवस्था का नाम है। उन्होंने त्रिदोष सिद्धांत (वात, पित्त और कफ) को प्रस्तुत किया, जो आज भी आयुर्वेद का आधार है।
इस ग्रंथ में सैकड़ों प्रकार की औषधियों, जड़ी-बूटियों और उपचार विधियों का वर्णन मिलता है। चरक ने चिकित्सा को केवल रोग-उपचार नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला बताया। उन्होंने चिकित्सक के गुण, रोगी की प्रकृति और उपचार की प्रक्रिया पर विशेष बल दिया।
चरक संहिता आज भी चिकित्सा जगत के लिए प्रेरणास्रोत है। यह भारतीय वैज्ञानिक परंपरा का उज्ज्वल उदाहरण है, जिसने विश्व को प्राकृतिक चिकित्सा और संतुलित जीवन का मार्ग दिखाया।
प्रश्न 20 : अथर्वेद पर टिप्पणी लिखें |
अथर्ववेद चारों वेदों में चौथा वेद है, जिसे जीवन का वेद भी कहा जाता है। यह वेद अन्य वेदों की तुलना में अधिक व्यवहारिक और जनजीवन से जुड़ा हुआ है। इसमें न केवल धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ-विधियों का वर्णन है, बल्कि चिकित्सा, स्वास्थ्य, ज्योतिष, वास्तु, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र तथा लोकजीवन की समस्याओं से संबंधित विषयों पर भी चर्चा की गई है।
अथर्ववेद में लगभग 20 कांड और 730 सूक्त हैं, जिनमें लगभग 6,000 मंत्र संकलित हैं। इसमें मानव जीवन के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण के लिए अनेक उपदेश दिए गए हैं। इस वेद में बीमारियों के निवारण के लिए औषधियों और मंत्रों का उल्लेख मिलता है, जिससे यह प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) की नींव माना जाता है।
अथर्ववेद में शांति, अहिंसा, परिवारिक जीवन, शिक्षा और समाज में एकता जैसे मानवीय मूल्यों को विशेष महत्व दिया गया है। यह वेद हमें सिखाता है कि मनुष्य का वास्तविक सुख केवल आध्यात्मिकता में नहीं, बल्कि स्वस्थ, समृद्ध और संतुलित जीवन में निहित है।
इस प्रकार, अथर्ववेद भारतीय संस्कृति, विज्ञान और चिकित्सा ज्ञान का अद्भुत संगम है, जो आज भी मानव कल्याण का मार्गदर्शन करता है।
प्रश्न 21 : संस्कृति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर : संस्कृति किसी भी समाज की जीवन-शैली, परंपराओं, विचारों, विश्वासों, आचरण, कला, भाषा और सामाजिक मान्यताओं का समग्र रूप होती है। यह वह पहचान है, जो किसी समुदाय को दूसरे समुदायों से अलग बनाती है। संस्कृति केवल रीति-रिवाज़ों या त्योहारों तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह मनुष्य के सोचने, बोलने, व्यवहार करने और जीवन जीने के तरीके को भी प्रभावित करती है।
संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती है। बच्चे अपने परिवार, समाज और परिवेश से भाषा, व्यवहार, पहनावा, भोजन और नैतिक मूल्यों को सीखते हैं। इसी प्रक्रिया से समाज में निरंतरता बनी रहती है। संस्कृति स्थिर नहीं होती; समय, परिस्थितियों और विज्ञान-प्रौद्योगिकी के प्रभाव से इसमें परिवर्तन आता रहता है।
भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है, जहाँ विविधता में एकता की विशिष्ट परंपरा दिखाई देती है। इसमें धर्म, दर्शन, कला, संगीत, योग, आयुर्वेद और सामाजिक सद्भाव का अद्भुत संगम मिलता है।
इस प्रकार, संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व, समाज के विकास और राष्ट्र की पहचान का महत्वपूर्ण आधार है। यह हमें सामाजिक मूल्यों से जोड़ती है और बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा देती है।
प्रश्न 22 : परम्परा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर : परम्परा का तात्पर्य हस्तान्तरण से है । अंग्रेजी में इसे ‘Tradition’ कहते हैं । परम्परा शब्द लैटिन शब्द ‘ट्रेडर’ से लिया गया है जिसका अर्थ है, संचार करना या सौंपना ।
जब एक पीढ़ी की संस्कृति एवं सांस्कृतिक मूल्य आने वाली पीढ़ी में हस्तान्तरित होते हैं तब यह परम्परा बन जाती है । इस प्रकार परम्परा सामाजिक विरासत का एक अभौतिक अंग है एवं इसकी निरन्तरता पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा बनी रहती है । परम्परा का सम्बन्ध अतीत से है । परम्पराओं के पालन से वर्तमान पीढ़ी को अतीत की मान्यताओं के साथ फिर से जुड़ने का मौका मिलता है ।
गिन्सबर्ग के अनुसार, “परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।”
प्रश्न 23 : ब्राह्मी लिपि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर : ब्राह्मी लिपि प्राचीन भारत की सबसे पुरानी और महत्वपूर्ण लिपियों में से एक है। यह भारतीय उपमहाद्वीप में लिपिकीय परंपरा की आधारशिला मानी जाती है और अधिकांश आधुनिक भारतीय लिपियों (देवनागरी, तमिल, बंगाली आदि) की जननी है। ब्राह्मी लिपि का उपयोग लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर चौथी-पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक होता रहा ।
इसका सबसे प्राचीन प्रमाण मौर्य सम्राट अशोक के शिलालेखों में मिलता है। अशोक ने अपने धर्मोपदेश और आदेश जनता तक पहुँचाने के लिए इस लिपि का उपयोग किया। ब्राह्मी लिपि में बाएँ से दाएँ लिखा जाता था, और यह एक ध्वन्यात्मक लिपि थी, जिसमें स्वर और व्यंजन दोनों का स्पष्ट उल्लेख होता था ।
ब्राह्मी लिपि का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है कि इसने भारतीय इतिहास और संस्कृति को समझने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसकी deciphering (पढ़ने की विधि) 19वीं शताब्दी में जेम्स प्रिंसेप ने की थी। यह लिपि भारतीय इतिहास और लिपिकीय विकास का अमूल्य हिस्सा है ।
प्रश्न 24 : खरोष्ठी लिपि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर : खरोष्ठी लिपि प्राचीन भारत की एक प्रमुख लिपि थी, जिसका उपयोग गांधार क्षेत्र (वर्तमान पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान) में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक हुआ। यह लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी, और इसका विकास अक्कादियन और अरामी लिपियों के प्रभाव से हुआ माना जाता है।
खरोष्ठी लिपि मुख्यतः अशोक के शिलालेखों और बौद्ध धर्म के ग्रंथों में पाई जाती है। यह लिपि प्राचीन गांधार कला और संस्कृति का अभिन्न अंग थी और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में उपयोगी सिद्ध हुई। इसमें ध्वनियों का अभिव्यक्तिकरण सरल था, लेकिन यह ब्राह्मी लिपि की तुलना में कम विकसित थी।
खरोष्ठी लिपि का उपयोग मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी भारत और मध्य एशिया में सीमित था। इसका पतन गुप्तकाल में हुआ, जब ब्राह्मी और उसकी शैलियों ने इसे प्रतिस्थापित कर दिया। खरोष्ठी लिपि भारतीय लिपि विकास और सांस्कृतिक इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है ।
प्रश्न 25 : विक्रमशिला विश्वविद्यालय पर टिप्पणी लिखें |
उत्तर : प्राचीनकालीन शिक्षा केन्द्रों में विक्रमशिला का तीसरा स्थान था । आधुनिक बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में विक्रमशिला स्थित था । इसकी स्थापना पाल वंशी राजा धर्मपाल ने की थी । उसी ने यहाँ पर अनेक बौद्ध मन्दिरों एवं विहारों का निर्माण करवाया था । नालन्दा विश्वविद्यालय के समान इसकी ख्याति भी सर्वत्र थी । पाल नरेश धर्मपाल ने यहाँ पर 108 अध्यापकों को शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया था । यहाँ के शिक्षक अपने-अपने विषयों के प्रकाण्ड पण्डित थे, जिन्होंने अनेकानेक ग्रन्थों की रचना की थी और तिब्बती भाषा में उनका अनुवाद किया था । यहाँ बौद्ध धर्म और दर्शन के अतिरिक्त मुख्य रूप से व्याकरण, न्याय, तत्वज्ञान, तन्त्र और कर्मकाण्ड आदि की शिक्षा दी जाती थी । यह विश्वविद्यालय 450 वर्षों तक शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र बना रहा लेकिन 1203 ई. में बख्तियार खिलजी ने दुर्ग समझकर इस पर आक्रमण कर दिया और बर्बरतापूर्वक इसका विध्वंस कर दिया ।
प्रश्न 26 : गांधार कला पर टिप्पणी लिखे |
उत्तर : गांधार कला शैली का विकास कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल में हुआ । चूँकि यह भारतीय कला एवं यूनानी कला का मिश्रण है इसी कारण इसे ‘इन्डोग्रीक कला’ भी कहा जाता है । इस कला की मूर्तियाँ गांधार, तक्षशिला, अफगानिस्तान, चीन, कोरिया, जापान व अन्य अनेक स्थानों से प्राप्त हुई हैं । इस कला शैली में महात्मा बुद्ध की केशविहीन सिर एवं आभूषणहीन शरीर वाली मूर्तियाँ सबसे प्रमुख हैं, इनमें शरीर की बनावट मूछें, नसें इत्यादि बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाई गई हैं।
प्रश्न 27 : मथुरा कला पर टिप्पणी लिखें |
उत्तर : मथुरा कला भारतीय मूर्तिकला की एक मौलिक शैली है, जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व से गुप्त काल तक अपने उत्कर्ष पर रही । यह कला शैली मथुरा क्षेत्र में विकसित हुई और बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म से प्रेरित थी । इसकी प्रमुख विशेषता मूर्तियों में सजीवता, सौम्यता और आध्यात्मिकता का समावेश है।
मथुरा कला में लाल बलुआ पत्थर का व्यापक उपयोग हुआ, और मूर्तियाँ अधिकतर भावपूर्ण और मांसल थीं । बुद्ध और तीर्थंकरों की मूर्तियों में सरलता और गरिमा, जबकि हिंदू देवताओं में अलंकरण और भव्यता का समावेश देखा गया। यह शैली भारतीय संस्कृति और धर्मों की सहिष्णुता और समावेशिता को दर्शाती है।
मथुरा कला ने भारतीय मूर्तिकला की आधारशिला रखी और आगे गुप्तकालीन कला के विकास में योगदान दिया । इसकी स्वदेशीता और गहराई इसे भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनाती है ।
प्रश्न 28 : प्राकृत भाषा पर टिप्पणी लिखे |
उत्तर : प्राकृत भाषाएँ प्राचीन भारत की साधारण बोलचाल की भाषाएँ थीं, जो संस्कृत के समानांतर विकसित हुईं। ये भाषाएँ मुख्यतः लोकभाषाएँ थीं, जिनका उपयोग जनसामान्य द्वारा संवाद और साहित्य में किया जाता था। प्राकृत शब्द का अर्थ है “प्राकृतिक” या “स्वाभाविक,” जो इन भाषाओं की सहजता और सरलता को दर्शाता है। प्रमुख प्राकृत भाषाओं में पाली, अर्धमागधी, शौरसेनी, और महाराष्ट्री शामिल हैं। इनका उपयोग बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों, जैसे त्रिपिटक और जैन आगमों में व्यापक रूप से हुआ। संस्कृत की तुलना में प्राकृत भाषाएँ अधिक सरल थीं और जटिल व्याकरणिक नियमों से मुक्त थीं। प्राकृत भाषा में लिखे गए नाटकों और काव्यों, जैसे शूद्रक के मृच्छकटिकम् और कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम्, में इसका विशिष्ट स्थान है। यह भाषा शासकों के प्रशासनिक दस्तावेजों और शिलालेखों (जैसे अशोक के शिलालेख) में भी प्रयुक्त होती थी । प्राकृत भाषाएँ भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्होंने आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
प्रश्न 29 :नालंदा विश्वविद्यालय पर टिप्पणी लिखे |
उत्तर : नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत की शिक्षा-परंपरा का एक अद्वितीय और गौरवपूर्ण प्रतीक है। यह विश्व का पहला आवासीय एवं अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय माना जाता है, जहाँ हजारों विद्यार्थी और विद्वान दूर-दूर के देशों—चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत, श्रीलंका और मध्य एशिया से शिक्षा प्राप्त करने आते थे। नालंदा केवल शिक्षा का केंद्र नहीं था, बल्कि ज्ञान, शोध, दर्शन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का महान केंद्र भी था।
यहाँ बौद्ध दर्शन, चिकित्सा विज्ञान, गणित, ज्योतिष, साहित्य, व्याकरण, राजनीति और कला सहित अनेक विषयों की उच्च स्तर की शिक्षा दी जाती थी। विशाल पुस्तकालय “धर्मगंज” में लाखों पांडुलिपियाँ सुरक्षित थीं, जो उस समय के ज्ञान-विज्ञान की समृद्धि को दर्शाती थीं।
12वीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिया गया, जिससे विश्व ने एक महान ज्ञान-केन्द्र खो दिया। लेकिन नालंदा की शैक्षणिक परंपरा, शोध की भावना और वैश्विक दृष्टि आज भी प्रेरणा देती है।
इसी ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए आधुनिक नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, ताकि प्राचीन शिक्षा-भावना को नया जीवन मिले। नालंदा विश्व ज्ञान परंपरा का अनमोल रत्न है, जो भारत की बौद्धिक श्रेष्ठता का सशक्त प्रमाण है।
प्रश्न 30 : तक्षशिला विश्वविद्यालय पर टिप्पणी लिखे |
उत्तर : तक्षशिला प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र और सांस्कृतिक धरोहर स्थल था, जो वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी क्षेत्र में स्थित है। इसे विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है, जहाँ वैदिक साहित्य, आयुर्वेद, गणित, खगोलशास्त्र, राजनीति, और धर्मशास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन किया जाता था।
तक्षशिला छठी शताब्दी ईसा पूर्व से पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक ज्ञान और शिक्षा का प्रमुख केंद्र रहा। यहाँ चाणक्य, पाणिनी, और चरक जैसे महान विद्वानों ने शिक्षा ग्रहण की और अपने शिष्यों को शिक्षित किया। यह शिक्षा संस्थान केवल भारत तक सीमित नहीं था, बल्कि ईरान, ग्रीस, और चीन से भी विद्यार्थी यहाँ आते थे।
गांधार क्षेत्र के हिस्से के रूप में, तक्षशिला कला और संस्कृति के आदान-प्रदान का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था। इसका पतन पाँचवीं शताब्दी में हूणों के आक्रमण के कारण हुआ। तक्षशिला भारतीय इतिहास में शिक्षा और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है ।
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