प्रश्न- संगीतज्ञ त्यागराज की जीवनी लिखें |
उत्तर- संगीतज्ञ त्यागराज दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत परंपरा के सबसे महान और पूजनीय संगीतकारों में से एक माने जाते हैं। उनका पूरा नाम कवीत्यागराज था, और उनका जन्म 1767 में तमिलनाडु के तंजावुर जिले के तिरुवयरु नामक स्थान पर हुआ। उनके पिता रामब्रह्म एक विद्वान, वेद–अध्येता और संगीत–रुचि वाले व्यक्ति थे। इसी कारण त्यागराज बचपन से ही संगीत और अध्यात्म की ओर आकर्षित रहे। उनका जीवन भक्ति, साधना और संगीत के प्रति समर्पण का अनूठा उदाहरण है।
त्यागराज बचपन से ही राम–भक्ति में डूबे रहते थे। उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की। बाद में उन्होंने स्वामी सोन्धी वेंकटरमण शास्त्री से कर्नाटक संगीत की गहरी शिक्षा ली। कम उम्र से ही वे तान, स्वरों और कृतियों की रचना में अत्यंत निपुण माने जाते थे। कहा जाता है कि आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने भगवान राम के लिए भजनों की रचना शुरू कर दी थी।
त्यागराज एक साधक और भक्त–संगीतकार थे। उन्होंने जीवन के अधिकांश वर्ष पूजा, भजन और संगीत–साधना में बिताए। वे किसी दरबार या राजा के आश्रय में नहीं रहे, जबकि कई राजाओं ने उन्हें धन, यश और सम्मान का निमंत्रण दिया। परंतु त्यागराज ने कहा—“धन और वैभव से बढ़कर मेरे लिए भगवान राम का नाम और संगीत की भक्ति है।” इसी कारण वे सरलता, संतोष और आध्यात्मिकता का जीवन जीते रहे।
त्यागराज की सबसे बड़ी पहचान उनकी संगीत–रचनाएँ हैं। उन्होंने लगभग 600 से अधिक कृतियाँ (भक्ति–रचनाएँ) रचीं, जिन्हें “त्यागराज कृतियाँ” कहा जाता है। ये सभी कृतियाँ मुख्यतः भगवान राम को समर्पित हैं। उनकी रचनाओं में भाव, भक्ति और संगीत–वैभव का अद्भुत मेल मिलता है। “एंदरो महाानुभावुलु”, “नागुमोमु”, “सीतानगरम”, “राघुनायक”, “सामजवरगमना”, “शांति मुले” आदि उनकी कुछ प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
उनकी रचनाएँ कर्नाटक संगीत का आधार मानी जाती हैं। आज भी संगीत–विद्यार्थी त्यागराज की कृतियों को सीखते हैं और बड़े संगीतज्ञ मंचों पर उनकी ही कृतियों को प्रमुखता से गाते हैं। त्यागराज के संगीत में राग की शुद्धता, भाव की गहराई और अध्यात्म की अनुभूति एक साथ मिलती है। उनकी संगीत–शैली में भक्ति–रस के साथ रागों की उत्कृष्ट प्रस्तुति का अद्भुत सामंजस्य मिलता है।
त्यागराज हर वर्ष तिरुवयरु में आयोजित “त्यागराज आराधना” महोत्सव के माध्यम से याद किए जाते हैं। यहाँ दुनिया भर के संगीतज्ञ एक साथ मिलकर उनकी प्रसिद्ध कृति “पंचरत्न कृतियों” का गायन करते हैं। यह समारोह त्यागराज की संगीत माधुर्यता और भक्ति – भावना का प्रतीक है।
1847 में त्यागराज जी का देहावसान हुआ, परंतु उनकी संगीत–परंपरा आज भी जीवित है। उन्होंने संगीत को भक्ति और आध्यात्मिक साधना का मार्ग बनाया। त्यागराज की रचनाएँ सदैव भारतीय संगीत – परंपरा को समृद्ध और गौरवान्वित करती रहेंगी।