प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ लिखिए | अथवा वैदिक कालीन शिक्षा प्रणाली का वर्णन करें | BA Notes Pdf

प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी और प्रभावशाली शिक्षा प्रणालियों में से एक मानी जाती है । इसका विकास वैदिक काल से हुआ और यह मुख्य रूप से धार्मिक, नैतिक, और आध्यात्मिक विकास पर आधारित थी । इस प्रणाली का उद्देश्य न केवल विद्वानों का निर्माण करना था, बल्कि एक संपूर्ण और नैतिक व्यक्ति का निर्माण करना था । शिक्षा जीवन के सभी पहलुओं—शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, और नैतिक—का विकास करने का एक साधन थी । इस प्रणाली में ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ समाज के लिए योगदान देने और कर्तव्यों का पालन करने पर विशेष ध्यान दिया जाता था । प्राचीन भारतीय शिक्षा का प्रारंभ वैदिक काल से हुआ, जब वेदों का ज्ञान प्रमुख था और शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी । वेदों के ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से हस्तांतरित किया जाता था ।

  • उपनयन संस्कार  – यह संस्कार उस समय होता था जब बालक को वैदिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु के पास ले जाया जाता था। यह संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तीनों वर्णों के लिए अनिवार्य था। प्राचीन भारत में बिना उपनयन संस्कार के कोई भी वैदिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता था ।
  • समावर्तन संस्कार  – वैदिक शिक्षा ग्रहण करने की समाप्ति पर यह संस्कार होता था । समावर्तन का अर्थ है— ‘घर लौटना’ । इस अवसर पर गुरु द्वारा छात्र को अपने प्रभावशाली उपदेशों के माध्यम से उसके भावी कर्तव्यों के विषय में भी अवगत कराया जाता था । इसके बाद छात्र ब्रह्मचर्य आश्रम का परित्याग करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था ।
  • गुरुकुल प्रणाली प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति का एक प्रमुख तत्व गुरुकुल व्यवस्था थी । इसमें छात्र अपने घर से गुरु के घर पर निवास करके शिक्षा ग्रहण करता था । छात्र गुरु गृह में ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ शिक्षा प्राप्त करता था । गुरुकुल में योग्य तथा चरित्रवान व्यक्ति ही शिक्षा देते थे। इस प्रकार के छात्रों को ‘अन्तेवासी’ अथवा ‘आचार्य कुलवासी’ कहा गया है । गुरुकुल साधारणत: नैसर्गिक सौन्दर्य से सुरभित, जन- पद कोलाहाल दूर प्रकृति के सुरमय कक्ष में स्थित होते थे । छान्दोग्य उपनिषद से पता चलता है कि उद्दालक आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु ने गुरुकुल में रहकर अध्ययन किया था । चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी तक्षशिला के आचार्य चाणक्य के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त की थी । विष्णुपुराण से ज्ञात होता है कि कृष्ण तथा बलराम ने सन्दीवनि के आश्रम में रहकर अध्ययन किया था ।
  • पाठ्यक्रम वैदिक कालीन शिक्षा का मुख्य पाठ्यक्रम वैदिक साहित्य का अध्ययन करना ही था । चारों वेदों का ज्ञान, छन्दशास्त्र का ज्ञान, वैदिक व्याकरण, ब्रह्म विद्या, भूत-विद्या, देव विद्या, नक्षत्र विद्या, तर्क, दर्शन, निधि, आचार, इतिहास, पुराण नागशंसी गाथाएँ, खगोल विद्या का ज्ञान आदि सभी पाठ्यक्रम के अंग थे ।
  • शिक्षण विधि – प्राचीनकाल में शिक्षा विधि प्रायः मौखिक थी । इसके अन्तर्गत पवित्र मंत्रों को कण्ठस्थ करने पर बल दिया जाता था । शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी । छात्र पाठ को कण्ठस्थ करता था उसके बाद उस पर मनन करता था । उच्चारण पर विशेष बल दिया जाता था । वाद-विवाद का भी शिक्षा में स्थान था । गौतम के न्यायसूत्र में ध्यान, पुनर्म्मरण, अभिज्ञान, विचार-साहचर्य तथा पुनरावृत्ति के द्वारा स्मरण कराने पर बल दिया है ।
  • गुरु-शिष्य सम्बन्ध – गुरु और शिष्य के बीच मधुर सम्बन्ध होते थे । गुरु एवं शिष्य पिता-पुत्र के समान आश्रम में स्नेह से रहते थे । गुरु, शिष्य का पिता की तरह ध्यान रखते थे तथा छात्र, गुरु को आदर व सम्मान देते थे । दोनों परिवार के सदस्यों की तरह रहते थे । छात्र गुरु के प्रति बड़ी श्रद्धा व सेवा भाव रखते थे । गुरु की आज्ञा का पालन करना, सेवा करना, दैनिक कार्य करना, भिक्षा माँगना तथा आश्रम की व्यवस्था सम्बन्धी कार्यों में गुरु की सहायता करना छात्रों के प्रमुख कर्तव्य माने जाते थे ।
  • शिक्षा का नि:शुल्क होना: गुरुकुल में शिक्षा मुफ्त दी जाती थी । गुरु शिष्य से कोई शुल्क नहीं लेते थे । शिष्य की शिक्षा पूरी होने के बाद गुरु दक्षिणा दी जाती थी, जो विद्यार्थी की क्षमता और गुरु की इच्छा पर निर्भर करती थी ।
  • आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा: शिक्षा का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान प्राप्त करना था । विद्यार्थी को न केवल ज्ञान बल्कि धर्म, नैतिकता और जीवन की उच्चतर सच्चाइयों से अवगत कराया जाता था । शिक्षा का उद्देश्य जीवन के सभी पहलुओं में संतुलन बनाना था ।

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