आर्थिक भूगोल की परिभाषा प्रस्तुत कीजिए और इसके विषय क्षेत्र की विवेचना कीजिए।PDF Download

आर्थिक भूगोल, मानव भूगोल की एक प्रमुख शाखा है, जिसके अन्तर्गत मानव के आर्थिक क्रिया-कलापों का विश्लेषण किया जाता है। पृथ्वी तल पर प्राकृतिक, जैविक आदि तत्त्वों में भिन्नता मिलने के कारण आर्थिक कार्यों में भी विभिन्नता मिलती है क्योंकि मनुष्य के आर्थिक क्रिया-कलाप इन विभिन्न जैविक, प्राकृतिक और मानवीय तत्त्वों तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों के प्रतिफल होते हैं। इसीलिए आर्थिक कार्यों में क्षेत्रीय विभिन्नता मिलना स्वाभाविक है। रिचार्ड हार्ट शोर्न महोदय ने भूगोल की परिभाषा इसप्रकार दी है- 

•’भूगोल धरातल पर मिलनेवाली क्षेत्रीय विभिन्नताओं का यथार्थ, क्रमबद्ध तथा युक्तिसंगत वर्णन एवं व्याख्या करता है । ” 

इस आधार पर आर्थिक भूगोल की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है- 

•”आर्थिक भूगोल मानव के आर्थिक क्रिया-कलापों में धरातल पर मिलनेवाली क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन करता है। ” 

आर्थिक भूगोल का विषय क्षेत्र परिवर्त्तशील होने के कारण इसकी परिभाषाओं में भी समय के हिसाब से बदलाव आया है। 

आर्थिक भूगोल की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इसप्रकार हैं- 

प्रो० ग्रिगर के अनुसार, “आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि विभिन्न स्थानों पर मानव अपनी प्राकृतिक परिस्थितियों की भिन्नता के साथ किस प्रकार संतुलन स्थापित करता है।” (Economic geography is study of how man makes a living in adjustment to his environment and the difference in those adjustment from place to place.) 

गोत्ज के अनुसार, “आर्थिक भूगोल में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष प्रभाव की वैज्ञानिक विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है । ” 

एन०जी० पाउण्डस के अनुसार, “आर्थिक भूगोल पृथ्वी तल पर मानव की उत्पादक क्रियाओं से संबंधित है। ये उत्पादक क्रियाएँ प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक हैं। ” 

आर० ई० मरफी के अनुसार, “आर्थिक भूगोल मनुष्य के जीविकोर्पाजन की विधियों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर मिलनेवाली समानता का अध्ययन करता है।” (Economic geography has to do with similarities and differences from place to place in the ways people make a living.) 

सी०एफ० जोन्स एण्ड डार्केन्वाल्ड के अनुसार, “आर्थिक भूगोल उत्पादक व्यवसायी का अध्ययन करता है। कुछ प्रदेश विशेष विविध वस्तुओं के उत्पादन और निर्यात में अग्रणी हैं और कुछ दूसरे इन वस्तुओं के आयात और उपयोग में प्रमुख हैं, क्यों? इस बात की भी व्याख्या करता है । ” 

रूडोल्फ वेटेन्स के अनुसार, “आर्थिक भूगोल विभिन्न प्रदेशों में (a) पृथ्वी की संसाधना और (b) मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं की अन्याय क्रिया का अध्ययन एवं प्रमुख रूप से उनसे उत्पन्न सार्थक परिणामों के वितरण की व्याख्या करता है।” 

आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र (Scope of Economic Geography): आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत मानव की आर्थिक क्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है। आर्थिक क्रियाओं का स्वरूप व्यापक होने के कारण आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक है। आर्थिक- क्रियाओं में प्राकृतिक एवं मानवीय तत्त्वों का योगदान रहता है। अतः, ये सब आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं जिनका विवरण नीचे है- 

(1) प्राकृतिक संसाधन : प्राकृतिक संसाधन वे आधारभूत तत्त्व है जिनके अन्तर्गत मनुष्य के लिए उपयोगी प्रकृति प्रदत्त पदार्थ आते हैं। इसके अन्तर्गत अवस्थिति, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, खनिज, ऊर्जा संसाधन, जल आदि आते हैं।. 

(2) जनसंख्या : यह भी आर्थिक भूगोल का आधारभूत तत्त्व है क्योंकि सभी क्रिया- कलाप जनसंख्या के द्वारा ही जनसंख्या के लिए होते हैं। इसमें उसके वितरण एवं घनत्व, जनांकिकी विशेषताएँ, आयुवर्ग, शिक्षा, तकनीक तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ आती हैं। जो मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित करती हैं। 

(3) आर्थिक क्रियाएँ : मनुष्य के वे कार्य जिनसे विविध वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है तथा वे मानव के लिए उपयोगी होते हैं, आर्थिक कार्य कहे जाते हैं। इसके अन्तर्गत उत्पादन, विनिमय एवं वितरण आदि आते हैं। 

(a) उत्पादन-संबंधी आर्थिक क्रियाएँ : उत्पादन-संबंधी आर्थिक क्रियाओं को मुख्यत: तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है- 

(i) प्राथमिक उत्पादन : इसके अन्तर्गत मनुष्य के वे कार्य आते हैं जिनमें प्रकृति से प्राप्त पदार्थों का सीधा उपयोग किया जाता है जैसे- मछली पकड़ना, लकड़ी काटना, कृषि आदि । 

है। 

(ii) द्वितीयक उत्पादन : इसके अन्तर्गत आनेवाले कार्य प्राथमिक उत्पादन पर आधारित होते हैं, जैसे लकड़ी से फर्नीचर बनाना, कपास से सूत या कपड़ा बनाना आदि। 

(iii) तृतीयक उत्पादन : प्राथमिक एवं द्वितीयक क्रियाओं से प्राप्त पदार्थों को बाजार के माध्यम से उपभोक्ताओं तक पहुँचाना तृतीयक क्रिया-कलाप के अन्तर्गत आता इसमें उत्पादन तथा वितरणं क्रिया में सहयोग देनेवाली सेवाएँ जैसे- प्रबन्ध, लिपिक, लेखाकार, सुरक्षाकर्मी आदि आते हैं। कहीं-कहीं इन्हें चतुर्थ तथा पंचम वर्गों में भी रखा जाता है। 

(b) विनिमय : इसके अन्तर्गत स्थानान्तरण तथा हस्तानान्तरण की क्रियाएँ आती हैं। स्थानांतरण का तात्पर्य स्थान परिवर्त्तन से है अर्थात् साधन का उत्पादन स्थल तक जाना और उत्पादित पदार्थ को उपभोक्ताओं तक पहुँचाना आदि। इसमें परिवहन के साधन जल, स्थल वायु तथा रेल-मार्ग आदि आते हैं। हस्तान्तरण का तात्पर्य अधिकार परिवर्तन से है। इसके अन्तर्गत व्यापार आता है। 

(c) वितरण आर्थिक कार्यों में वितरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। किसी देश या प्रदेश में उत्पादन एवं विनिमय के परिणामस्वरूप समुचित आर्थिक विकास होता है या नहीं, यह वितरण पर आधारित है। वितरण व्यवस्था असमान होने के कारण ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर विकसित एवं विकासशील देशों में सामाजिक दृष्टिको से विषम होता जा रहा है। यही बात राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तर पर भी लागू होती है। इसप्रकार आर्थिक भूगोल में क्षेत्रीय असंतुलन कैसे दूर किया जाय इसका भी अध्ययन किया जाता है। 

इसप्रकार किसी भी क्षेत्र के विभिन्न आर्थिक क्रिया-कलाप आपस में संबंधित होते हैं जो एक भू-दृश्य का निर्माण करते हैं। अतः, आर्थिक भूगोल का मुख्य उद्देश्य आर्थिक भू-दृश्य का विश्लेषण एवं उसकी व्याख्या करना है। 

आर्थिक भूगोल का विकास क्रम (Systematic development of Economic Geography) : आर्थिक भूगोल का विकास मनुष्य के आर्थिक कार्यों के विकास से संबंधित है। वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक एवं प्राविधिक क्रांति आदि के कारण मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि हुई जिससे आर्थिक क्रिया-कलाप विकसित हुए। 

आर्थिक भूगोल का एक विषय के रूप में विकास लगभग 20 वीं शताब्दी में हुआ। वास्तव में आधुनिक भूगोल के साथ ही आर्थिक भूगोल का भी प्रारम्भ माना जाता है। आर्थिक भूगोल के विकास को हम तीन युगों में बाँट सकते हैं, लेकिन इसके विभाजन का आधार कोई स्पष्ट सीमा-रेखा नहीं है बल्कि यह मान्यताओं एवं प्रवृत्तियों पर आधारित है। 

(1) प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व का समय : 1862 ई० में एण्ड्री के विश्व व्यापार का भूगोल’ नामक पुस्तक से वाणिज्य भूगोल की शुरुआत हुई, यह आर्थिक भूगोल का प्रारम्भिक स्वरूप था। जर्मन विद्वान ‘ गोत्ज’ ने 1882 ई० में सर्वप्रथम आर्थिक भूगोल को वाणिज्य भूगोल से भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया तथा आर्थिक भूगोल को निम्नलिखित ढंग से परिभाषित किया- “आर्थिक भूगोल विश्व के विभिन्न भागों की उन विशेषताओं का अध्ययन करता है, जिनका वस्तुओं के उत्पादन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।” 

इसप्रकार आर्थिक भूगोल के अध्ययन में उत्पादन पर प्राकृतिक तत्त्वों का प्रभाव भी जुड़ गया लेकिन यह स्वरूप सीमित ही था। ग्रेटब्रिटेन में चिसोल्य, अमेरिका में ह्वाइट बेक और स्मिथ की अगुवाई में वाणिज्य भूगोल ही लोकप्रिय रहा। 

(2) अन्तर्विश्व युद्ध काल : प्रथम विश्वयुद्ध के समय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बाधा पड़ने तथा औद्योगिक दृष्टि से विकसित देशों के लिए कच्ची सामग्री के नये उत्पादन स्रोतों की तरफ ध्यान गया। 

दूसरी तरफ, जर्मनी, जापान आदि साम्राज्यवादी देश अधिकाधिक कच्ची सामग्री सम्पन्न एवं विस्तृत बाजार सिद्ध होनेवाले देशों पर अधिकार करने को उत्सुक हो गये जिस कारण गोत्ज के आर्थिक भूगोल की मान्यता बढ़ने लगी। 1920 ई० तक विभिन्न उत्पादनों पर प्राकृतिक तत्त्वों का नियंत्रण ही दर्शाया जाता रहा, लेकिन 1920 के पश्चात् निर्यातवाद की तीव्र आलोचना हुई और उत्पादन पर प्राकृतिक तत्त्वों के साथ-साथ मानवीय तत्त्वों को भी प्रमुखता दी गयी। 1925 ई० में सं०रा० अमेरिका से इकोनामिक ज्याग्राफी नामक शोध पत्रिका का प्रकाशन किया गया, जिसने आर्थिक भूगोल के अध्ययन को व्यापकता प्रदान की। बेकर ने उ० अमेरिका के कृषि प्रदेशों का विस्तृत विश्लेषण किया। द्वितीय विश्वयुद्ध तक विशेष रूप से प्राथमिक उत्पादन का ही अध्ययन होता रहा। 

(3) युद्धोत्तर काल : भूगोल में मानव तथा वातावरण के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन लम्बे काल से होता रहा है। दूसरे विषयों में भी इसका अध्ययन होता रहा। इस आधार पर विद्वानों ने अनुभव किया कि भूगोल की कोई पृथक विषय-वस्तु नहीं है। अतः, विद्वानों का ध्यान इस तरफ गया। 1925 ई० में कार्लसवार ने भूगोल का स्वतंत्र अस्तित्त्व स्थापित करने के लिए ही इसे क्षेत्रीय विषमता’ का अध्ययन करनेवाला विषय बताया। 1936 में हार्ट शोर्ट ने इसका अनुमोदन तथा प्रतिपादन किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मर्फी महोदय ने आर्थिक भूगोल को मनुष्य के जीविकोपार्जन की विधियों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर मिलनेवाली समानता एवं विषमता का अध्ययन करनेवाला विषय बताया। तदन्तर नगरीकरण और औद्योगीकरण की तीच प्रगति के कारण आर्थिक भूगोल का क्षेत्र प्राथमिक उत्पादन से बढ़कर वस्तु निर्माण, उद्योग, परिवहन, व्यापार आदि तक विस्तृत हो गया। वर्तमान समय में तकनीकी क्रांति तथा परिवहन एवं संचार माध्यमों के विकास से अन्तर्राष्ट्रीयकरण को बढ़ावा मिल रहा है जिससे संसाधन संरक्षण तथा प्रादेशिक आर्थिक विकास पर ध्यान दिया जा रहा है। समाज एवं परिस्थितियों के सन्दर्भ में आर्थिक क्रियाओं के अध्ययन का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। 

आर्थिक भूगोल उपागम ( Approaches to the Subject of Economic Geography) : आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र एवं विकास-क्रम आदि के आधार पर इसके उपागमों को तीन वर्गो में बाँट सकते हैं- 

(1) क्रमबद्ध उपागम ( Systematic Approach) : इस उपागम के अन्तर्गत किसी भी आर्थिक कार्य या वस्तु की विश्व वितरण संबंधी सामान्य विशेषताओं का अध्ययन किया जाता । यह उपागम दो प्रकार का होता है- 

(i) पण्यवस्तु उपागम : जिसके अन्तर्गत प्रत्येक उत्पादन वस्तु, जैसे— गेहूँ, चावल, कोयला, लोहा आदि के विश्व वितरण प्रतिरूप का अलग-अलग अध्ययन किया जाता है। 

(ii) व्यवसायगत उपागम : इसके अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु का अलग-अलग विश्लेषण न करके, प्रत्येक व्यवसाय का अलग-अलग विश्लेषण करते हैं, जैसे- प्राथमिक संग्रह एवं आखेट, कृषि, उद्योग, खनन आदि। 

(2) प्रादेशिक उपागम : इस उपागम के अन्तर्गत पहले विश्व को कुछ प्रदेशों में बाँटने का प्रयास किया जाता है। उसके पश्चात् प्रत्येक प्रदेश का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। आर्थिक भूगोल के प्रारम्भिक युग में इस उपागम का व्यवहार अधिक होता था। 

(3) सैद्धान्तकि उपागम : इस उपागम के अन्तर्गत किसी भी वस्तु अथवा प्रदेश के विशेषताओं एवं वितरण प्रतिरूप अर्न्तसम्बन्ध का विश्लेषण कुछ प्रतिपादित सिद्धान्तों के सन्दर्भ में किया जाता है। इस उपागम में प्रमुख उद्देश्य सिद्धांतों की व्याख्या करना होता है, वितरण प्रतिरूप का विश्लेषण नहीं | 

इस प्रकार उपर्युक्त तीनों उपागम एक-दूसरे के पूरक हैं। इनके संतुलित उपयोग से है आर्थिक भूगोल का अध्ययन सही ढंग से किया जा सकता है। 


About The Author

Spread the love

Leave a Comment

error: Content is protected !!