चेदि वंशीय कलिंग के राजा खारवेल की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।PDF DOWNLOAD

अशोक के मरने के बाद आन्ध्र देश की तरह ही कलिंग भी एक स्वतंत्र राज्य हो गया था इसका पुराना राजवंश तो बहुत पहले ही समाप्त हो गया था। इसके बाद वहाँ पुरा चेत अथवा चेदि नामक ब्राह्मण वंश का राज्य कायम हुआ। प्रसिद्ध राजा खारवेल इसी चेदि वंश का शासक था । उदय गिरी की पहाड़ी हाथी – गुफा अभिलेखों के प्राप्त हो जाने से उस काल की बहुत सी बातों की जानकारी इतिहासकारों को हो गयी है। 

खारवेल का प्रारम्भिक जीवन : अभिलेखों के अनुसार खारवेल चेदिवंश का तीसरा सम्राट था। वह व्यायाम का बहुत बड़ा प्रेमी था। इसलिए उसने 15 साल तक लगातार व्यायाम किया था। जिसके फलस्वरूप उसका शरीर बहुत गठीला, विद्या से भी उसको प्रेम था। युवराजों को जिन-जिन विद्याओं की जरूरत पड़ती है उन सभी विद्याओं में वह पारंगत था। लेख, गणित और शास्त्र में तो उसका ज्ञान बेजोड़ था । 11 वर्ष की उम्र में उसने युवराज का पद प्राप्त किया था और 24 वर्ष की अवस्था में उसका राज्याभिषेक हुआ था। थोड़े ही दिनों में उसकी शक्ति की ध्वजा अबाधगति से फहराने लगी। अत: वह एक ख्याति प्राप्त राजा था। 

उसके राज्य काल की मुख्य घटनाएँ – उसके राज्यकाल की मुख्य घटनाएँ निम्नलिखित हैं- 

खारवेल बड़ा ही शूर वीर तथा पराक्रमी राजा था। वह जैन धर्म का पक्का समर्थक था। इसके बाद भी उसके लिए विजय निषेध नहीं थी । उसने अल्पकाल में ही एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली। उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओं में उसके दो अत्यन्त ही सबल शत्रु थे । उत्तर में मौर्य साम्राज्य की सबल शक्ति पताका लहरा रही थी तो दक्षिण में सातवाहन शान से सर ऊँचा किये हुए था। इस दोनों सबल राज्यों के बीच खारवेल का साम्राज्य था। मौका देखकर खारवेल ने इस दोनों को एक साथ ही चुनौती दे दी। मगध को तो उसने दो बार पदाक्रांत किया। एक समय मगध का नन्द राजा कलिंग की शान को चकनाचूर कर ऐक जैन तीर्थकर की मूर्ति को पाटलिपुत्र लेकर चला गया था । इरासे बढ़कर कलिंग के लिए अपमान की कोई दूसरी बात नहीं थी। लेकिन मरता क्या नहीं करता। वह इस अपमान के गरल को पीकर चुपचाप उस समय बैठ गया था। वास्तव में वह कूलिंग के गौरव पर एक काला धब्बा था। इस धब्बा को खारवेल ने मगध को परास्त कर धो डाला । उसने तो मगध को एक नहीं दो बार चकनाचूर किया और उस जैन तीर्थंकर की मूर्ति को उठाकर कलिंग ले गया था। 

आधुनिक उड़ीसा राज्य के पुरी जिले में उदयगिरी पर्वत की हाथीगुम्फा नामक गुफा में एक लेख प्राप्त हुआ था। इसी लेख के अध्ययन से खारवेल राजा के शासन काल के 13 सालों का पूरा-पूरा विवरण प्राप्त होता है जो इस प्रकार हैं- 

खारवेल ने गद्दी पर बैठते ही कलिंग नगर में कुछ सार्वजनिक हित का कार्य किया। इस कार्य में एक लाख मुद्राऍ खर्च हुई थी जिससे प्रजा का काफी कल्याण हुआ था। उसने प्रजा के आमोद-प्रमोद के साधन जुटाने में 25 लाख खर्च किया था। इन सभी कार्यों को करने के बाद उसने अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष में सातवाहन राज्य पर आक्रमण किया था और असिक नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। तीसरे साल में उसने अपनी प्रजा के मनबहलाव के लिए नाच-गान, नाटक और भोज आदि का उचित प्रबंध किया। चौथे साल में उसने राष्ट्र को और भोजकों को अपनी सत्ता को स्वीकार करने के लिए लाचार किया। पाँचवें साल में उसने एक बहुत बड़ा सार्वजनिक कल्याण का कार्य किया। वह नन्द राजा के उद्घाटित नहर को तनसुलिये मार्ग से अपने नगर में ले आया था। छठवें वर्ष में उसने एक लाख खर्च कर ग्रामवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए बहुत से साधनों को जुटाया। उसके सातवें वर्ष के कार्यों का पता नहीं है आठवें वर्ष में उसने गोरथागिरि पर धावा बोला और राजगृह के लोगों की शांति और व्यवस्था को भंग किया। गोरथागिरि राजगृह के लिए एक दुर्ग था, 38 लाख की लागत से निर्मित ‘महाविजय प्रसाद’। उसके शासन काल के 9वें वर्ष उसने जो किया था, उसका पता इतिहासकारों को नहीं है। 11वें साल में उसने पलायित दुश्मनों के लूट मालों को अपने अधिकार में किया जिसमें बहुत सा रत्न हीरा और मोती आदि था। पिथुन्डक प्राचीन नगर को नष्ट-विनष्ट कर वहीं की भूमि को गदहों के हल से जोतवा दिया। इसके बाद उसने तमिल राष्ट्रों के संघ को तोड़-फोड़ दिया। उसने 12वें साल में एक विशाल सेना लेकर उत्तरापथ पर आक्रमण किया और वह अपनी सेना के सभी हाथियों और घोड़ों की गंगा के पवित्र जल में स्नान कराकर, मंगध के लोगों के दिल में दशहत पैदा कर दिया था। अपनी सेना को स्नान कराकर उसने मगध के राजा वृहस्पति मित्र को अपने चरणों पर लोटने के लिए विवश किया था और जैन तीर्थंकर की मूर्ति को नन्द राजा से छीनकर कलिंग वापस ले गया था। उसी साल उसने पाण्डवों के राज्य को भी हस्तगत किया। इस विजय से खारवेल मालोमाल हो गया था क्योंकि उसमें उसको लाखों की संख्या में रत्न और मणि मुद्राएँ हाथ लगी थी। उसने 13 वें साल में कुमारी पर्वत और अन्य पर्वतों पर जैन साधुओं के निवास के लिए 15 लाख खर्च कर बहुत सी गुफाएँ बनवाई थी। इस तरह से वह आजीवन अपनी प्रजा के कल्याण में लगा रहा। 

खारवेल का व्यक्तित्व : इस तरह खारवेल के 13 वर्षों के कार्य का लेखा-जोखा प्राप्त है। उसके कार्यों को मद्देनजर रखते हुए यह कहा जा सकता है कि उसका व्यक्तित्व अद्वितीय था। यह ठीक है कि वह जैन था परन्तु अन्य धर्मों के प्रति उसका विचार उदार था। उसने प्रायः सभी धर्मों के पूजा गृहों की मरम्मत करवाई थी । अत: वह एक महान धर्म – प्रेमी था। कला और साहित्य के प्रति तो उसका प्रेम प्रशंसनीय है। इसी वजह से वह राजर्षि कहलाता था। उसकी सेना विशाल थी । उसने इस सेना के द्वारा बहुत से प्रदेशों को जीता था । वह अपने समय का सबसे महान श्रेष्ठ और प्रभावशाली राजा था। उसने जनता के हित के लिए अनेक कार्य किये। उसका शासन प्रजा के लिए मंगलकारी था। वह अपनी प्रजा का प्रेम प्राप्त करने के लिए दिन-रात व्यस्त रहा करता था। वह एक बेजोड़ दानी था। यह ठीक है कि उसने अपने साम्राज्य विस्तार जितना करना चाहिए था उतना नहीं किया परन्तु उसका साम्राज्य संगठन बहुत ही ठोस था। साम्राज्य विस्तार के अभाव में वह एक महान साम्राज्य निर्माता नहीं कहा जा सकता। अतः उसके अनुसार वह एक सुयोग्य शासक नहीं था। 

खारवेल के तिथिक्रम का निरूपण : खारवेल की तिथि के संबंध में इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। कुछ इतिहासकार उसका समय दूसरी सदी ई० पू० का प्रथम चरण मानते हैं। परन्तु उनका यह विचार पूर्णरूपेण गलत है । खारवेल राजा की उपाधि ‘महाराज’ विदेशी शासकों की देन थी। दूसरी शताब्दी में सभी यूनानी राजा ‘महाराजा’ की उपाधि रखते थे। वृहस्पति मित्र का समय शुंगों के (187-151 ई० पू०) के बाद होना चाहिए । इसी तरह से वृहस्पति मित्र के समकालीन नरेश खारवेल का समय भी बाद का ही होना चाहिए । हाथीगुम्फा की लिपि से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम शताब्दी ई० पू० में उत्कीर्ण हुआ होगा। उस समय की कला की वस्तुओं से भी खारवेल की तिथि निर्धारित करने में मदद मिलती है। मंचुपरी गुहा के स्थापत्य के मदामेधवाहन शासन में उत्कीर्ण कराया गया था । इससे भी उसकी तिथि निर्धारित की जा सकती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भरहुत के स्थापत्य से यह काफी बाद के हैं। अत: इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि महामेध वंश का शासनकाल, जिसका खारवेल तृतीय राजा था, शुंग वंश के शासन काल के बाद का था। इस तरह खारवेल का शासन काल पहली शताब्दी ई० पू० में है। 


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