सातवाहन कौन थे ? भारतीय इतिहास में उनके देनों या उपलब्धियों का परीक्षण करें?PDF DOWNLOAD

उदय : जिस समय उत्तरी भारत में शुंग तथा कण्व परस्पर राज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे उस समय विन्ध्याचल पर्वतों के दक्षिण में एक नई शक्ति का उत्थान हो रहा था। दक्षिण में दक्षिण-पंथ के स्वामी सातवाहन बन गये थे तथा कलिंग में इस समय चेदि वंश का उत्थान हो रहा था। पुराणों में सातवाहनों को आंध्र अथवा आंध्रभृत्य कहकर सम्बोधित किया गया है जो गोदावरी और कृष्णा के मध्य में निवास करते थे । ऐतरेय ब्राह्मण में आंधों को आर्य संस्कृति से अप्रभावित माना गया है। अशोक ने भी अपने लेखों में आंधों का उल्लेख किया है। प्लिनी के मेगास्थनीज की पुस्तक का उदाहरण देते हुए लिखा है कि आंधों के पास एक विशाल सेना थी । भारतीय साहित्य में इनको शक्ति वाहन के नाम से सम्बोधित किया गया है। सातवाहन, ( शातवाहन सिंह और वाहन जिसका सम्राटों के जो अभिलेख प्रान्त हुए हैं। उनमें अधिकतर या तो शातवाहन या शातकर्णी कहकर इन सम्राटों को सम्बोधित किया गया है। शातवाहनी कुल के अभिलेखों पूना, सांची, मध्य प्रदेश में प्राप्त होते हैं। गौतमीपुत्र शातकर्णी के अभिलेखों में सातवाहन को ब्राह्मण जाति का माना गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम उन्होंने दक्षिण में अपनी शक्ति को विकसित करना प्रारम्भ किया तथा कालान्तर में आन्ध्र पर विजय कर ली। कुछ काल पश्चात् शकों तथा अमीरों के आक्रमणों के कारण पश्चिमी प्रदेश उनके अधिकार से जाते रहे तथा गोदावरी और कृष्णा के मध्य में ही उनकी सत्ता रह गई। कुछ काल के उपरान्त उन्होंने महान् शातकर्णियों के काल में अपनी शक्ति का उत्थान किया। 

राजनीतिक इतिहास : सातवाहन सत्ता का संस्थापक सिमुक को माना जाता है। पुराणों के अनुसार उसने मगध में कण्वों की सत्ता समाप्त की, परंतु इसका स्पष्ट प्रमाण नहीं’ । सातवाहनों का मगध से कोई संबंध नहीं था । पुनः, सिमुक की तिथि भी 271 ई. पू. मानी जाती है जिस समय मगध में मौर्यो का शासन था। वह जैन धर्मावलंबी था । सिमुक के बाद उसका भाई काण्ह राजा बना। वह अशोक का समकालीन था। अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसने मौर्यो की अधीनता मानने से इनकार कर दिया। उसके समय में नासिक में एक गुफा का निर्माण हुआ। उसने अपना प्रभाव नासिक तक बढ़ा लिया था। 

सातवाहनों का पहला प्रभावशाली राजा सातकर्णि प्रथम (230-220 ई. पू.) था। नानाघाट अभिलेख में उसे सातवाहन वंश को बढ़ाने वाला कहा गया है। उसने महाराष्ट्र के महारथी की पुत्री नयनिका से विवाह किया। इससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ी। उसने दक्कन में तो अपना प्रभाव बढ़ाया ही, साथ ही पूर्वी मालवा पर अधिकार किया। उसके राज्य के अंतर्गत मालवा, नर्मदा के दक्षिण का क्षेत्र, विदर्भ, उत्तरी कोंकण, काठियावाड़ तथा ऊपरी दक्कन के भाग सम्मिलित थे। अपनी विजयों के उपलक्ष्य में सातकर्णि ने अश्वमेघ यज्ञ भी करवाया। इस प्रकार, सातकर्णि ने सातवाहनों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा दक्कन में स्थापित की। 

सातकर्णि प्रथम के पश्चात् सातवाहन शक्ति का पतन आरंभ हुआ। सातवाहनों का महाराष्ट्र पर प्रभुत्व बनाए रखने के लिए शकों के साथ लंबा संघर्ष हुआ जिसमें सातवाहन पराजित हुए। महाराष्ट्र पर शकों का प्रभुत्व स्थापित हुआ। सातवाहनवंश का 17 वाँ राजा हाल था जो अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए विख्यात है। उसने गाथाशप्तशती की रचना की। वृहतकथा का लेखक गुणाढ्य उसका समकालीन था। 

सातवाहन शक्ति एवं प्रतिष्ठा का पुनर्संस्थापक गौतमीपुत्र सातकर्णि था, (106–130 ई.)। नासिक से प्राप्त अभिलेख से उसकी सैनिक विजयों का पता लगता है। इस अभिलेख के अनुसार वह “क्षहरातवंश का विनाशक तथा सातवाहनवंश की प्रतिष्ठा का पुनर्सस्थापक” था। उसने दिग्विजय की नीति अपनाई । उसने नहपान को पराजित किया तथा महाराष्ट्र पर पुनः अधिकार स्थापित किया। रानी गौतमी बलश्री के अभिलेख से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि ने शकों, यवनों और पह्नवों को नष्ट किया। उसके साम्राज्य में असिक, असक, मूलक, सूरथ, कुकर, पारियात्र, अपरांत, अनूप, विदर्भ तथा आकर आवन्ति के क्षेत्र सम्मिलित थे। वह विध्य से मलय तक के पर्वतों तथा पूर्वी और पश्चिमी घाटों का स्वामी था। गौतमीपुत्र एक पूर्व सातवाहन साम्राज्य इतना विशाल और संगठित कभी नहीं हुआ था। गौतमीपुत्र एक समाजसुधारक और प्रजापालक भी था। उसने क्षत्रियों के मान और दर्प को कुचलकर ब्राह्मणों और हीन लोगों की प्रतिष्ठा स्थापित की तथा सामाजिक कुरीतियों को समाप्त किया। उसने वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित की। नासिक के पास उसने एक गुफा का दान किया तथा साधुओं को दान में जमीन दी । 

सातवाहनवंश का एक अन्य प्रभावशाली राजा वाशिष्ठीपुत्र पुलुमयी (130–159 ई.) था। उसने विरासत में पाए साम्राज्य की रक्षा की तथा कृष्णा नदी के मुहाने का प्रदेश तथा वैल्लारी जिला को विजित कर उसे साम्राज्य में मिला लिया। अभिलेखों में उसे ‘दक्षिणपथेश्वर’ कहा गया है। उसने शक क्षत्रप रुद्रदामन की पौत्री से विवाह किया। यज्ञ श्री सातकर्णि (174–230 ई.) सातवाहनवंश का अंतिम प्रभावशाली राजा था। उसका शकों से संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में वह विजयी हुआ। उसने पश्चिमी भारत तथा नर्मदा घाटी से शकों को बाहर निकाल दिया तथा उनके द्वारा जीते गए अनेक प्रदेशों पर पुनः अधिकार जमा लिया। उसके राज्य की सीमा का विस्तार बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक था। 

सामाजिक दशा : सातवाहनों के गृहों लेखों में उस काल की जाति प्रथा का बहुधा उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि सातवाहनों का समाज चार जातियों में विभाजित किया था, किन्तु ये जातियाँ आर्यों की जातियों से भिन्न थीं। प्रथम जाति में महारथी (महाराष्ट्रीय), महाभोज एवं महासेनापति (प्रमुख सीमांत) होते थे। द्वितीय जाति आमात्य, राजामात्य, महापात्र, भाण्डागारिक, निगम, सार्थवाह और श्रेष्ठियों की होती थी । तीसरी जाति में लेखक, वैध, कृषक, स्वर्णकार, गन्धिक आदि लोग आते थे। और चौथी जाति में माली, लुहार, दास और मछुए थे, सातवाहन काल में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। समाज में इन्हें गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। आवश्यकता पड़ने पर स्त्रियाँ शासन की बागडोर अपने हाथ में संभाल लेती थी। सातवाहनों के समाज में एक अत्यंत महत्वपूर्ण रीती का प्रचलन दृष्टिगोचर होता है माता के नाम पर सम्राट अपना नाम घोषित करते थे। यद्यपि उत्तर भारत में भी माता का नाम आता है, किन्तु सम्राट अपना नाम भी उसके साथ देता है । यथा, वैदेही – पुत्र अजातशत्रु’ किन्तु सातवाहनों के समाज में द्रविड़ों के प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होते थे । यहाँ के शासक केवल अपना नाम ही नहीं लिखते गौतमी – पुत्र, वाशिष्ठी पुत्र अथवा कौशुकी पुत्र आदि के साथ सातकर्णी जुड़ा रहता है और वे सब नाम प्राचीन ब्राह्मण ऋषियों के गोत्री से लिये गये हैं। 

आर्थिक दशा : सातवाहन काल में आर्थिक दशा उन्नत थी। इस काल में शासकों ने सिक्कों का प्रचलन किया। ये सिक्के सोने, चाँदी तथा ताँबें से निर्मित होते थे । इस काल के अनेक सिक्के उपलब्ध हुए हैं तथा लेखों में भी सम्राटों के दान के प्रसंग में सिक्कों के नामों का उल्लेख किया गया है। इस काल में पण, कार्षापण, आदि सिक्कों का उल्लेख मिलता है। नासिक के लेख में उषवदात ने 70,000 कर्षापण ब्राह्मणें को दान किये थे। नानाघाट लेख में 2,000 कार्षापण दक्षिणा में दिये गये थे। सातवाहन काल में भारत का विदेशों से व्यापार समुन्नत दशा में था । व्यापारियों ने अपनी श्रेणियों का निर्माण करके स्वतंत्र रूप से व्यापार प्रारंभ कर दिया। तिलपीषक, कुलरिक (कुम्हार), कोलिक (जुलाहे), बंसकार (बांस का काम करनेवाले), कांसाकार और यांत्रिक आदि की श्रेणियों का उल्लेख भिन्न-भिन्न लेखों में वर्णित है, जिससे प्रतीत होता है कि छोटे-छोटे कार्य करनेवाले लोगों ने भी अपनी श्रेणियाँ निर्मित कर ली थीं। श्रेणियों में बैंक का कार्य भी सम्पन्न होता था। ये ब्याज पर ऋण भी दिया करती थीं तथा बहुत से लोग इनमें अपना धन जमा किया करते थे। इन श्रेणियों का सम्राट भी बहुत सम्मान करते थे। तथा इनके आंतरिक झगड़ों का निर्णय थे श्रेणियाँ स्वयं ही करती थीं। सम्राट उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। 

धर्म : सातवाहनों ने ब्राह्मण धर्म को राज्याश्रम दिया था। इस काल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान का युग चल रहा था। गौतमी – पुत्र शातकर्णी ने वर्णाश्रम धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की। शातकर्णी ने कई यज्ञों को सम्पन्न किया था। इस समय अश्वमेघ और राजसूय यज्ञ पुनः प्रचलित हो गये तथा कई सातवाहन सम्राटों के लेखों में अन्य महत्वपूर्ण यज्ञों का भी उल्लेख मिला है जो संम्राटों ने सम्पन्न किये थे। गवामयन, आप्तीर्याम, अगिरसासयनम, शाततिरात्र आदि यज्ञ। इस काल में शैव एवं वैष्णव धर्मों का प्रचार हुआ। इस काल में अनेक विदेशियों ने हिन्दू-धर्म को अपना लिया । लेखों के द्वारा हेलियोकोरस, रुद्रमान, इन्द्राग्निदत्त आदि नामों का उल्लेख मिलता है। जिन्होंनें हिन्दू-धर्म अपना लिया था। यह काल हिन्दू धर्म की उदारता एवं सहिष्णुता का काल होते हुए भी सातवाहन सम्राटों ने बौद्ध एवं जैन धर्म की भिक्षुओं को अनेक गुफायें दान कीं। विदेशियों का भारतीयकरण इस युग की अन्य महत्वपूर्ण घटना है। डॉ० डी० आर० भण्डारकर के शब्दों में, “गुहा लेखों में यवनों की अनेक बार चैत्यों अथवा आश्रमिक स्थानों के सम्बन्ध में दान देते हुए दिखाया गया है। कालों में दो यवनों के नाम दिये गये हैं, एक का नाम सिंहध्वज है और दूसरे का नाम धर्मदेव है । जुनार में तीन यवनों के नाम हैं- ईषिल, चित्त, और चन्द्र । नासिक में केवल एक यवन का नाम स्पष्ट रूप से दिया गया है । इन्द्राग्निद्रत्त, जो धर्मदेव का पुत्र था। वे सब बौद्ध बन गये तथा इनमें से एक को छोड़कर सभी ने हिन्दू नाम धारण कर लिये ।” अनेक भारतीयों ने विदेशियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जिनके कारण भारतीय एवं विदेशी संस्कृतियों का सम्न्वय हो सका। हिन्दू-धर्म के अतिरिक्त बौद्ध धर्म भी इस काल में उन्नत दशा में था, क्योंकि इस काल की प्रमुख कलाकृतियाँ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं। यद्यपि सम्राट हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, किन्तु उनकी प्रजा अधिकतर बौद्ध थी तथा इस काल में असंख्य चैत्यों एवं विहारों का निर्माण हुआ। 

कला : इस काल की कलाकृतियाँ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं। इस काल में चयन (भिक्षुओं के निवास स्थान) तथा चैत्यगृह (बौद्ध मंदिर) अधिकतर निर्मित किये गये। चयन में एक विशाल कमरा बना होता था। उसके चारों ओर भिक्षुओं के निवास करने के लिए छोटे- छोटे कमरे बना होते थे। जिनमें एक एक पत्थर की बेंच भिक्षुओं के शयन करने के लिए बनी थी। शयन गुफाओं को काट-काटकर निर्मित होते थे तथा उनके व्यय के लिए एक-दो गॉव दान कर दिये जाते थे। जिसकी आय से हमेशा उस चयन का व्यय चलता रहे । भिक्षुकगण वहाँ पर केवल वर्षा ऋतु में निवास करते थे। और समय तो वे घूम-घूमकर धर्म प्रचार में ही व्यतीत करते थे । बहुधा ये चयन किसी विशेष सम्प्रदाय के भिक्षुओं को दे दिये जाते थे तथा अन्य सम्प्रदाय के भिक्षु यहाँ निवास नहीं कर सकते थे। उदाहरणार्थ, पुलुमावि ने सहसंधिक सम्प्रदाय के लिए गुहायें निर्मित कराई थीं तथा शातकर्णी की माता ने भद्रायाण भिक्षु संघ को गुहायें दान की थी। चैत्यगृह के सुन्दर उदाहरण बराबर की पहाड़ियों में उपलब्ध होते हैं। चैत्य-गृह में मेहराबदार छत तथा खिड़कियाँ बनी होती थीं। प्रत्येक चैत्य में एक आंगन और उसके चारों ओर संकीर्ण बरामदे होते थे। तथा एक छोटा स्तूप भी होता था । भारहूत तथा सांची स्तूप इस काल की कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तथा उड़ीसा के पर्वतों में से काट – छाटकर बहुत-सी गुहाओं का इस काल में निर्माण किया गया। 

साहित्य : सातवाहन सम्राट साहित्य के पोषक एवं आश्रयदाता थे। उनके काल में प्राकृत को प्रोत्साहन मिला तथा हाल की ‘सत्तशतक’ नामक पुस्तक इसी में रचित हुई । गुणाढ्य ने पैशाची भाषा में ‘वृहत्कथा’ की रचना की। एलेन महोदय का मत है कि इसी युग में सर्ववर्मन नामक एक विद्वान के द्वारा व्याकरण ‘कातन्त्र’ की रचना भी की गई। इसके अतिरिक्त व्याकरण, वैद्यक, दर्शन एवं ज्योतिष शास्त्रों पर भी इस काल में साहित्यिक ग्रंथों की रचना की गई। यद्यपि इस काल के अन्य साहित्यिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं होते, किन्तु सातवाहन सम्राटों के दरबार में विद्वानों को आश्रय मिलता था तथा इन विद्वानों ने उच्च कोटि के साहित्यिक ग्रंथों की रचना की थी । 



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