भारत पर पारसी (ईरानी) आक्रमणों के परिणामों की विवेचना करें।PDF DOWNLOAD

छठी से चौथी शताब्दी ई० पू० के राजनीतिक जीवन की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना (मगध के उत्थान के अतिरिक्त) है भारत पर विदेशी आक्रमणों का प्रथम चरण । जिस समय पूर्व में मगध साम्राज्यवाद का विस्तार हो रहा था, ठीक उसी समय पश्चिमोत्तर भारत को विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ रहा था। पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश की राजनीतिक स्थिति पूर्व से सर्वथा भिन्न थी । इस क्षेत्र में विकेंद्रीकरण और राजनीतिक अस्थिरता की धारा बलवती थी। गांधार, मद्र, कम्बोज आदि राज्य सदैव एक-दूसरे से लड़ा करते थे। इनमें परस्पर वैमनस्य की भावना थी। इस क्षेत्र में किसी ऐसी शक्तिशाली शक्ति का सर्वथा अभाव था, जो इन परस्परविरोधी राज्यों को एक सूत्र में बाँधकर राजनीतिक एकीकरण कायम कर सके। राजनीतिक विश्रृंखलता की इस स्थिति से प्रभावित होकर ईरानियों और यूनानियों ने भारत पर आक्रमण आरंभ कर दिया। 

भारत पर सबसे पहला आक्रमण पारसियों या ईरानियों का हुआ। हखामनीवंश के शासकों ने पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण कर उसे अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का प्रयास किया। ईरानी आक्रमण के अनेक कारण थे। 

छठी शताब्दी ई० पू० तक ईरानी- साम्राज्य का उदय हो चुका था। वहाँ के शक्तिशाली सम्राटों ने पश्चिम दिशा में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। अब वे भारत की तरफ बढ़ने को लालायित हो रहे थे | पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत की राजनीतिक स्थिति ने इन विदेशी आक्रमणकारियों को भारत-विजय का सुनहरा अवसर प्रदान किया। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त का सामरिक एवं आर्थिक महत्व भी था। इस क्षेत्र पर अधिकार कर भारत में प्रवेश के मार्ग पर नियंत्रण कायम किया जा सकता था। आर्थिक दृष्टिकेण से भी यह इलाका महत्वपूर्ण था। भारत का प्रमुख व्यापारिक मार्ग उत्तरापथ इसी इलाके से होते हुए मध्य एशिया को जाता था। इस मार्ग पर नियंत्रण रहने से मध्य एशियायी व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। इन्हीं कारणों से विदेशी आक्रमणकारियों ने पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण किए। 

ईरानी आक्रमण के प्रभाव (परिणाम) : अनेक विद्वनों की राय है कि ईरानी आक्रमण का भारतीय इतिहास और संस्कृति पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। भारतीय इतिहास की धारा अपनी निश्चित गति से चलती रही । ईरानियों का प्रभाव पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत से तत्काल ही समाप्त हो गया; परंतु ऐसी धारण उचित नहीं है। यद्यपि राजनीतिक दृष्टिकोण से ईरानी प्रभाव के परिणाम स्थायी नहीं निकले, तथापि सांस्कृतिक तौर पर ईरानी प्रभुत्व का भारत पर निश्चय ही प्रभाव पड़ा। अपने 200 वर्षों के प्रभुत्व के दौरान ईरानी और भारतीय एक-दूसरे के नजदीक आए। फलतः, भारतीय संस्कृति को ईरानियों ने प्रभावित किया। 

राजनीतिक प्रभाव : ईरानी आक्रमण का भारतीय इतिहास पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। ईरानी सीमांत – प्रदेश से आगे नहीं बढ़ सके। सीमांत क्षेत्र में भी उनकी विजय का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। शीघ्र ही उनकी सत्ता नष्ट हो गई, परंतु परोक्ष रूप से ईरानी आक्रमण ने भारतीय इतिहास को प्रभावित किया। ईरानी आक्रमण ने सीमात प्रदेश की राजनीतक स्थिति का खोखलापन विदेशियों पर जाहिर कर दिया। वे इस बात को अच्छी तरह समझ गए कि इस क्षेत्र में कोई भी ऐसी संगठित शक्ति नहीं है, जो विदेशियों को रोक सके। फलतः, भारत-विजय की अभिलाषा उनमें बलवती हो गई। ईरानी आक्रमण से प्रेरणा लेकर ही यूनानी विजेता सिकंदर महान ने भारत-विजय की योजना बनाई। उसने अपने आक्रमण के लिए ईरानियों द्वारा अपनाया गया मार्ग ही अपनाया। इस प्रकार ईरानी आक्रमण ने परोक्ष रूप में सिकंदर की भारत-विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 

प्रशासनिक प्रभाव : भारतीय शासकों ने हखामनी सम्राटों की अनेक प्रथाओं को अपना लिया। मौर्यकाल में ईरानी प्रभाव परिलक्षित होता है। मेगास्थनीज के विवरण (इण्डिका) से इन प्रथाओं की पुष्टि होती है। चंद्रगुप्त मौर्य ने ईरानी राजाओं की ही तरह बाल धोने का उत्सव मनाना आरंभ किया, स्त्री- अंगरक्षकों को नियुक्त किया एवं सुरक्षा के उद्देश्य से एकांत स्थान में रहना आरम्भ किया। इसी प्रकार इरानी व्यवस्था के अनुरूप ही साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों ( क्षत्रपी) में विभक्त कर उनका शासन ‘क्षत्रपों’ या प्रांतीय गवर्नरों को सौप दिया गया। यह प्रथा बाद में शक- कुषाण शासकों के समय में और अधिक विकसित हुई। ईरानी अधिकारियों को भारत में प्रशासनिक पद भी सौंपे गए। 

सांस्कृतिक प्रभाव : भारतीय संस्कृति भी ईरानी संबंधों से लाभान्वित हुई। इसका सबसे स्पष्ट प्रभाव लिपि पर पड़ा। अनेक इतिहासकारों का विचार है कि ईरानी प्रभुत्व के दौरान भारत के उन क्षेत्रों में अरामाइक लिपि का प्रचार हुआ, जो हखामनी साम्राज्य के अंतर्गत थे। इसी लिपि के आधार पर खरोष्ठी लिपि का विकास हुआ, जो अरबी की तरह दाएँ से बाएँ की तरफ लिखी जाती थी। यह लिपि भारत में तीसरी शताब्दी ई० पू० से ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रचलित रही। भारतीयों ने ईरानियों से ही पवित्र अग्नि जलाने की प्रधा भी अपनाई । ईरानी संपर्क के कारण अनेक भारतीय ईरान गए। उन्हें सैनिकों के रूप में हखामनी सेना में स्थान मिला। भाड़े के सिपाही के रूप में वे ईरान की ओर से यूनानियों से लड़े भी। 

आर्थिक प्रभाव : ईरान और भारत के संबंधों ने दोनों देशों में व्यापारिक संबंध भी बढ़ाए। भारतीय व्यापारी अपना माल लेकर हखामनी साम्राज्य के विभिन्न भागों में जाने लगे। इससे परस्पर व्यापार की प्रगति हुई । व्यापारियों के साथ ही अनेक भारतीय दार्शनिक एवं चितक भी ईरान गए। इनलोगों ने ईरानियों के माध्यम से यूनानियों से भी संपर्क स्थापित किया। ईरानियों ने भारत में चाँदी के सिक्के का प्रचलन भी आरंभ किया। कुछ विद्वानों का विचार है कि भारत में सिक्कों का प्रचलन ईरानियों के आगमन के साथ ही हुआ, परंतु ऐसी धारणा भ्रामक है। 

भौगोलिक खोजों को प्रोत्साहन : ईरानी आक्रमण के परिणामस्वरूप भौगोलिक खाजों को प्रोत्साहन मिला। डेरियस प्रथम जिस समय भारत-विजय की योजना बना रहा था उसी समय उसने स्काईलेक्स नामक नाविक को सिंधु निदी के जलमार्ग का पता लगाने को भेजा था। स्काईलेक्स की भौगोलिक खोज ने ईरान और भारत के बीच संपर्क सुगम बना दिया। ईरान द्वारा भारतीय यूनान के संपर्क में भी आए। यह भी कहा जाता है कि ईरान के रास्ते कुछ भारतीय दार्शनिक यूनान पहुँने और वहाँ सुकरात से भेंट की । 

भारतीय कला पर प्रभाव : ईरानी संपर्क ने भारतीय कला को भी प्रभावित किया। मौर्यकालीन कला पर ईरानी कला का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अनेक विद्वानों का विचार है कि अशोक ने शिलालेख खुदवाने की प्रेरणा ईरान से ही प्राप्त की। पत्थर को चिकना करने की कला भी भारतीयों ने ईरान से ही सीखी। मौर्ययुगीन मूर्तिकला पर भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है। अशोक स्तंभों के शीर्ष पर पाई जानेवाली घण्टानुमा आकृतियाँ भी ईरान से ही अनुकृत की गई। यह भी कहा जाता है कि पाटलिपुत्र में स्थित ईरानी आक्रमण ने इस प्रकार भारतीय इतिहास और संस्कृति को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चंद्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद पर्सीपोलिस के राजमहल के ढाँचे पर ही तैयार किया गया था। ईरानी आक्रमण ने इस प्रकार भारतीय इतिहास और संस्कृति को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। 



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