भारत को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता से होनेवाली सम्भावित हानियों का वर्णन करें। PDF DOWNLOAD

 विश्व व्यापार संगठन की (WTO) सदस्यता से सम्भावित हानियाँ :

आलोचकों का मत है कि WTO का सदस्य बनने से भारत जैसे अर्द्ध-विकसित देशों को हानि उठानी पड़ेगी। WTO की सदस्यता से भारत को निम्नलिखित खतरे हो सकते हैं- 

1. कृषि क्षेत्र के लिए खतरा : WTO की सदस्यता से भारत को कृषि में अग्र प्रकार की हानियाँ होने की सम्भावना है- 

(i) इससे किसानों को कृषि सम्बन्धी तकनीक एवं उनत बीजों के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मोहताज हो जाना पड़ेगा। किसान फसल से उन्नत बीज का संचय नहीं कर सकेंगे और उन्हें हर बार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कीटनाशक खाद, कृषि यंत्र इत्यादि ऊँची कीमतों पर खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। खतरे से सम्बन्धित उन्नत तकनीक का लाभ बड़े कृषक ही उठा पायेंगे। इन सबका सम्मिलित प्रभाव यह होगा कि छोटे किसान जो संख्या में अधिक हैं, अपनी भूमि बेचने को विवश हो जायेंगे और ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या और भी अधिक बढ़ जायेगी । 

(ii) समझौते के बाद कृषि क्षेत्र को मिलनेवाली सब्सिडी या ऐसी सहायता कम हो जायेगी जिससे निर्धन किसानों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। 

(iii) खाद्यानों की देश में खपत का 3 प्रतिशत अनिवार्य रूप से आयात करने की शर्त लगायी गयी है जिसका देश के भुगतान सन्तुलन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। 

(iv) इस समझौते के अनुसार वैज्ञानिक एवं कृषक ब्राण्ड बीजों का प्रयोग व्यापारिक उद्देश्य से नहीं कर सकेंगे, ऐसी स्थिति में विदेशी महँगे बीजों को किसान ही खरीद सकेंगे। उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग छोटे तथा सीमान्त कृषकों के लिए कठिन होगा। इससे आर्थिक विषमता की खाई बढ़ने की प्रबल सम्भावना है 

(v) पर्यावरण संरक्षण की आड़ में भारत में निर्मित अनेक कृषि पदार्थों का विकसित देशों द्वारा किया जानेवाला आयात कम होगा। 

(vi) यदि पर्यावरण-सम्बन्धी विनियमों (Environmental Regulations) को गैट में शामिल कर लिया जाता है तो इससे भारत के खाद्य विधायन (Food Processing) तथा बागवानी (Horticulture) जैसे निर्यात प्रधान क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारतीय खाद्य पदार्थों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में आसानी से स्वीकार नहीं किया जायेगा। उदाहरणार्थ, अमेरिकी स्वास्थ्य नियमों के अनुसार खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों के अवशेष का स्तर शून्य होना आवश्यक है लेकिन ‘भारतीय उत्पादन इस शर्त को पूरा नहीं करते। 

(vii) पौधों की किस्म का संरक्षण ‘स्वे-जेनेरिस’ कानून द्वारा निर्धारित किया गया है। भारत के किसानों को नयी तथा उत्तम किस्म के पौधों को प्राप्त करने के लिए काफी धन खर्च करना पड़ेगा तथा उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भरता बढ़ जायेगी। 

2. व्यापार से संबंधित विनियोग उपाय (ट्रिप्स) के विपक्ष में तर्क : (i) WTO के अनुसार भारत विदेशी विनियोग पर कोई नियंत्रण नहीं लगा सकेगा। इसके फलस्वरूप बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में अपने उद्योग स्थापित करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होंगी। इनका घरेलू उद्योगों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा यह देश की राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करेगा। 

(ii) विदेशी विनियोग की खुली छूट से देश से पूँजी का पलायन होगा और रुपये के मूल्य में गिरावट आने लगेगी। कुल मिलाकर व्यापार-सम्बन्धी विनियोग उपायों का समझौता राष्ट्रीय सरकारों की निर्णयात्मक शक्ति को कम कर देगा। 

3. बौद्धिक सम्पदा अधिकारों (ट्रिप्स) का दुष्प्रभाव : (i) यह औषधियों, कृषि, पौधे और पशु आदि से संबंधित पेटेण्ट प्रणाली के अन्तर्गत क्षेत्र का विस्तार होगा। विकसित देशों के पास अनुसन्धान और विकास के असीम साधन हैं, इसलिए उन्हें पेटेण्ट करवाने की अधिक सुविधा होगी। 

(ii) विदेशी विनियोग की छूट, पेटेण्ट के लिए रायल्टी आदि के भुगतान से देश में पूँजी का बर्हिगमन होगा और देश का भुगतान संतुलन प्रतिकूल हो जायेगा। 

(iii) विकासशील देशों में पेटेण्ट किये हुए कच्चे माल का आयात करना पड़ेगा तथा निर्यात को आघात पहुँचेगा। 

4. सेवाओं के सामान्य समझौते (गैट्स) से हानि : गैट्स समझौता विकसित देशों के अनुकूल है क्योंकि यह उन्हीं सेवाओं के उदारीकरण पर जोर देता है जिनका लाभ विकसित देशों को मिलता है। हमारी बैंकिंग, बीमा, यातायात, शिक्षा तथा होटल आदि व्यवस्थाएँ कम्पनियों की सेवाओं से प्रतियोगिता नहीं कर सकेंगी। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे इन सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत स्वदेशी संस्थाएँ बन्द हो जायेंगी और हमारी आर्थिक स्वतंत्रता छिन जायेगी।

5. आर्थिक नीतियों के निर्माण में गतिरोध : WTO के बनने से विकासशील देशों की सरकारों को अपनी स्वतंत्र आर्थिक एवं गैर-आर्थिक नीतियों के निर्माण में गतिरोध आयेगा क्योंकि उदारीकरण के चलते इन देशों को अपनी अर्थव्यवस्था विकसित राष्ट्रों के लिए खोलनी पड़ेगी। सिंगापुर अधिवेशन के निर्णयों ने स्पष्ट कर दिया हैं कि WTO एक “धनिकों का क्लब” है। 

6. आर्थिक शोषण : बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को विकासशील राष्ट्रों में पूँजी विनियोजन की छूट मिलने से इन राष्ट्रों के आर्थिक शोषण में वृद्धि होगी। गैर समझौते में व्यवस्था है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देशी कम्पनियों के समान ही माना जाना चाहिए। समझौते के प्रावधानों से विकासशील राष्ट्रों को अपने उद्योगों को संरक्षण प्रदान में कठिनाई आयेगी । 

7. सामाजिक शोषण : अप्रैल, 1994 में मराकेश (मोरक्को, अफ्रीका) में अमेरिका ने अनेक सामाजिक प्रश्नों, जैसे- बल, श्रम, मानवीय अधिका, बंधुआ श्रम को रोजगार से जोड़ने की. बात पर जोर डाला। विकसित देशों को विकासशील राष्ट्रों की नीची मजदूरी दरों के विश्व बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है। विकासशील देशों की वस्तुएँ सस्ती पड़ती हैं। इसी कारण अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने भारत के कालीन निर्यात को बाधित करने का प्रयास किया है। आलोचकों का मत है कि वह सामाजिक कण्डिका हारकिन बिल (Harkin Bill) की ही एक कड़ी है जे संयुक्त राज्य के श्रम विभाग से इस बात के लिए आग्रह करता है कि ऐसी वस्तुओं की हर वर्ष पहचान की जाए जो बाल श्रम (Child Labour) से बनाई जाती हैं और उन देशों की भी पहचान की जाए जो इनका निर्माण करते हैं। इस बिल के पास हो जाने पर संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ऐसी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगा देगी। इसतरह भारत द्वारा निर्यात किये जानेवाले कालीनों, हीरे-जवाहरात, टेक्सटाइल, सिले-सिलाए वस्त्र, चाय आदि के निर्यात पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ेगा। 

सिंगापुर अधिवेशन (1996) में अमेरिका ने विकासशील राष्ट्रों से आयात किये जाने वाले माल पर बदले से संबंधित शुल्क ( Counter Vailing Duty) लगाये जाने का प्रस्ताव किया था जिससे कि इन देशों की निम्न मजदूरी दरों से उत्पन्न प्रतिस्पर्द्धा का सामना किया जा सके। इसके अर्थ को एक उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है। यदि भारत में एक कमीज की कीमत ₹ 200 तथा अमेरिका में उसकी कीमत ₹ 500 है तो इस अन्तर का मुख्य कारण श्रम लागत में अन्तर है। इस तुलनात्मक लाभ को दूर करने के लिए भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात पर शुल्क अदा करना होगा ताकि इस लागत लाभ को निष्प्रभावी बनाया जा सके। यदि यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत तथा अन्य विकसित राष्ट्रों द्वारा अपना माल अमेरिका तथा यूरोपीय समुदाय के सदस्य देशों में बेचा जाना कठिन हो जाता लेकिन अमेरिका पर दबाव पड़ने के कारण यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। यदि विकसित देश अपने इस प्रस्ताव को पास कराने में निकट भविष्य में सफल हो जाते हैं तो “विकासशील राष्ट्रों” के समक्ष अपनी निर्यात वृद्धि के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन हो सकती हैं। विकसित राष्ट्रों का दबाव है कि विकासशील राष्ट्र अपने मजदूरों की मजदूरियों में वृद्धि करें, ताकि उनका माल विश्व बाजारों में प्रतिस्पर्द्धात्मक नहीं रहे। निर्गुट एवं अन्य विकासशील देशों के श्रम मन्त्रियों के पाँचवें सम्मेलन में जो जनवरी, 1995 में दिल्ली में हुआ, सामाजिक कण्डिका को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया गया। सम्मेलन में यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी कि “प्रस्तावित सम्बन्ध में व्यापार-उदारीकरण के लाभ समाप्त हो जायेंगे और बेरोजगारी की समस्याएँ बढ़ जायेंगी।” दिल्ली घोषणा ने इस प्रस्ताव के दबाव डालनेवाले पक्ष की आलोचना की और यह उल्लेख किया—श्रम मानदण्डों के मुद्दे पर किसी प्रकार का दबाव अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ के संविधान का उल्लंघन है। इस घोषणा में इस बात पर बल दिया गया है कि “एकपक्षीय दबाव के आर्थिक उपायों का प्रयोग करके विकसित देश तीसरी दुनिया के देशों से आर्थिक अथवा राजनैतिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं जो स्वीकार्य नहीं है।” 

विकसित देशों से समर्थित इसप्रकार की सामाजिक कण्डिका के गूढ़ार्थ को समझाते हुए श्रम मानदण्ड और व्यापार में सम्बन्ध का कड़ा विरोध करते हुए भारत के केन्द्रीय वाणिज्य मन्त्री ने स्पष्ट रूप से कहा था – “मैं यह बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि 1. जहाँ हम अन्तर्राष्ट्रीय श्रम मानदण्डों (International Labour Standard) के लिए पूर्णतया वचनबद्ध हैं, वहीं हम इस प्रयास को बिल्कुल उचित नहीं मानते जो ऐसे क्षेत्रों में सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा में विद्यमान नहीं हैं। व्यापार नीति को सभी चिन्ताओं का न्यायकर्त्ता नहीं माना जा सकता। इस सामाजिक कण्डिका को G-15 के देशों के प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। इन देशों ने स्पष्ट किया कि प्रस्ताव से इनकी अर्थव्यवस्थाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इससे इनके भुगतान शेष की समस्या और विकट बन जायेगी । ” 

8. पर्यावरण मुद्दे : विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों के लिए पर्यावरण सम्बन्धी कुछ कठिनाइयाँ पैदा कर रहे हैं। ये राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों से ऐसी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगाने की बात कर रहे हैं जिनसे पर्यावरण प्रदूषित होता है। पर्यावरण प्रदूषण से होनेवाले नुकसान की क्षतिपूर्ति की माँग भी ये राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों से कर रहे हैं। आलोचकों का दृष्टकोण है कि पिछली दो शताब्दियों में प्रदूषित वातावरण से होनेवाले कुल नुकसान का 3/4 भाग विकसित राष्ट्रों ने किया है। विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों पर पर्यावरण प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए नवीन तकनीकी अपनाने का दबाव डाल रहे हैं। ये राष्ट्र प्रदूषण का नया तर्क देकर निर्माताओं को बहकाकर विकासशील राष्ट्रों के सामने समस्याएँ पैदा करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, जब भारतीय स्कर्ट संयुक्त राज्य अमेरिका में अत्यन्त लोकप्रिय होने लगी तो यह दुष्प्रचार किया जाने लगा कि ये स्कर्ट ज्वलनशील पदार्थ से बनाये गये हैं, परन्तु ये आरोप मिथ्या सिद्ध हुए और तब अमेरिकी नीति-निर्धारकों को इस पर लगाये गये प्रतिबन्ध को हटाना पड़ा। इसीप्रकार जर्मनी ने भारत पर एजोरंगों के प्रयोग पर आरोप लगाया। इसीतरह यूरोपीय संघ के देशों ने भारतीय टैक्सटाइल निर्यात पर डम्पिंग विरोधी शुल्क लगा दिया जिससे इन देशों में भारतीय टेक्सटाइल्स की कीमत बढ़ गई। इससे हमारे निर्यात पर दुष्प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। चूँकि इस क्षेत्र द्वारा कुल निर्यात का लगभग 32 प्रतिशत जुटाया जाता है, इसलिए संरक्षणवादी नीतियों का टैक्सटाइल उद्योग पर गम्भीर प्रभाव पड़ेगा और इसके परिणामस्वरूप हमारी कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ेगा जो इस क्षेत्र से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। 


 


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