प्रश्न- भारत को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता से होनेवाले सम्भावित लाभों का वर्णन करें।
भारत को WTO की सदस्यता से सम्भावित लाभ : भारत को तथा इसी प्रकार के अन्य विकासशील देशों को WTO के सदस्य बनने से मिलनेवाले सम्भावित लाभ निम्नलिखित हैं-
1. निर्यात व्यापार में वृद्धि : (i) WTO का सदस्य बने रहने से भारत के 124 देशों के साथ बहुपक्षीय समझौते सम्भव हो जायेंगे। इन देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते नहीं करने पड़ेंगे; (ii) इसके अलावा सीमा शुल्क की दरों में कमी और मण्डियाँ खुलने से व्यापार में वृद्धि होती है। अनुमान है कि WTO समझौते के फलस्वरूप विश्व व्यापार में वृद्धि होगी। 1994- 95 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना से पूर्व, भारत का वार्षिक निर्यात 26.33 अरब डॉलर का था, जो अब 2002-03 में दोगुना होकर 51.70 अरब डॉलर का रहा है। विज्ञप्ति के अनुसार वस्तुओं एवं वाणिज्यिक सेवाओं के कुल वैश्विक निर्यात में भारत का अंश 1995 में 0.61 प्रतिशत था, जो बढ़कर 2001 में 0.86 प्रतिशत हो गया है। इसी अवधि में वस्तुओं एवं वाणिज्यिक सेवाओं के वैश्विक आयात में भारत का अंश 0.78 प्रतिशत से बढ़कर 0.99 प्रतिशत हो गया है । विज्ञप्ति के अनुसार विश्व व्यापार संगठन के टेक्सटाइल्स – सम्बन्धी समझौते से भी भारत पर्याप्त रूप से लाभान्वित हुआ है।
कृषिगत पदार्थों के निर्यात के बढ़ने के भी नये अवसर उत्पन्न हुए हैं क्योंकि – विदेशों में कृषि पर सब्सिडी कम होगी, साथ ही कृषिगत निर्यातों पर भी सब्सिडी घटेगी जिससे भारतीय माल के बिकने की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी।
2. बद्ध एवं सिले- सिलाये कपड़े के निर्यात में वृद्धि : वस्त्रों एवं सिले- सिलाये कपड़ों के बहुतन्त्रीय समझौते के अन्तर्गत 1974 से कपड़ों के व्यापार पर जो कोटा – सम्बन्धी प्रतिबन्ध लागू थे, वे 2005 तक समाप्त कर दिये गए हैं। कोटा निर्धारण प्रक्रिया समाप्त हो जाने से भारत को अपने वस्त्रों एवं सिले- सिलाये कपड़ों के निर्यात में वृद्धि करने में मदद मिलेगी।
3. सेवा क्षेत्र को लाभ : WTO प्रस्ताव के अन्तर्गत सेवा क्षेत्र के व्यापार को शामिल कर लेने से भारत जैसे विकासशील देशों को लाभ प्राप्त होगा। इस प्रस्ताव के अनुसार विकसित देश विकासशील राष्ट्रों में अनेक व्यापारिक एवं सेवा के प्रतिष्ठानों, जैसे—बैंक, यातायात, होटल आदि खोलेंगे। इसके बदले में विकसित राष्ट्र भारत को अपनी वस्तुएँ बेचने के लिए व्यापक बाजार उपलब्ध करायेंगे
4. व्यापार – सम्बन्धी बौद्धिक सम्पदा अधिकार या ट्रिप्स : WTO के बनने से पहले डंकल प्रस्ताव में कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, ट्रेड सीक्रेट्स, औद्योगिक डिजाइन, विद्युत आपूर्ति, भौगोलिक संकेतांक और पेटेंट्स को बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अन्तर्गत रखा गया है। इस प्रस्ताव से भारत को कोई विशेष हानि होनेवाली नहीं है क्योंकि केवल पेटेंट्स को छोड़ अन्य सभी क्षेत्रों में भारत की न्यायिक और प्रशासनिक पद्धति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की है।
पेटेंट्स के सम्बन्ध में यह आशंका है कि इससे दवाइयों की कीमत में थोड़ी वृद्धि हो सकती है, परन्तु इस सम्बन्ध में भी निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं-
(i) इस संगठन के तहत दवा में उत्पाद (प्रोडक्ट) पेटेंट होंगे यानि किसी दूसरी उत्पादन प्रक्रिया से बनाकर बेचने की छूट होगी। चौदह वर्षों तक केवल वही कम्पनी उस दवा को बनाकर बेच सकेगी जिसने उसकी खोज की हो । अतः, हमें चौदह वर्ष (समझौतों, की समय सीमा) तक तो नुकसान होगा लेकिन पुरानी अनेक दवाओं के निर्यात से हमें लाभ होगा। इस समझौते से हमें सैकड़ों वर्षों तक लाभ मिलेगा।
(ii) पेटेंट्स – सम्बन्धी दूसरे प्रावधान 10 वर्ष की अवधि के बाद लागू होंगे। यदि भारतीय वैज्ञानिकों को पर्याप्त सुविधा दी जाये तो वे नयी और अच्छी दवाइयों का निर्माण इस अवधि में कर सकते हैं।
(iii) भारत में कुल उपलब्ध दवाइयों में से केवल 10 प्रतिशत से 25 प्रतिशत दवाईयाँ ही पेटेंट सूची के अन्तर्गत हैं। अतएव, अत्यधिक आशंकित होने की बात नहीं है।
5. प्रति- राशिपातन से लाभ : गैट समझौते में व्यवस्था की गयी है कि यदि राशिपातन आयात, आयातकर्त्ता देश के घरेलू उद्योग को हानि पहुँचाता है तो अनुबन्धित सदस्यों को अधिकार है कि वे राशिपातन-विरोधी उपायों को अपनायें। भारत में कई देशों द्वारा अपने उत्पादों का राशिपातन किया जाता है। इन नियमों से यहाँ की सरकार को राशिपातन के खिलाफ नियम बनाने में मदद मिलेगी।
6. स्वेई- जेमेरिस व्यवस्था से लाभ : पौध प्रजनकों के अधिकारों की व्यवस्था के माध्यम से किसानों को ज्यादा सुधरे हुए और परिष्कृत बीज बाजार में मिल सकेंगे और इससे भारत के कृषि अनुसन्धान संस्थानों को ही ज्यादा लाभ मिलेंगे। ‘स्वेई जेनेरिस’ व्यवस्था से कृषि क्षेत्र में अनुसन्धान और विकास निवेश बढ़ेगा और अधिक उपज देनेवाली बेहतर किस्मों का विकास होगा।
7. अन्य व्यवस्था से लाभ : (i) विदेशी मुद्रा भण्डारों में वृद्धि : भारत के निर्यातों एवं विशेषज्ञों की सेवाओं के निर्यात से होनेवाली वृद्धि से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होगी तथा देश में एक मजबूत विदेशी मुद्रा – कोष बनेगा।
(ii) विदेशी निवेश में वृद्धि : समझौते में विदेशी निवेश कम्पनियों को घरेलू कम्पनियों के बराबर रखे जाने की व्यवस्था है। इससे देश में विदेशी निवेश बढ़ेंगे।
(iii) विदेशी वस्तुओं को उपलब्धता : गैट समझौते से उदारीकरण को जो बल मिलेगा, उससे देश में विदेशी वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ जायेगी। देश के नागरिकों को अनेक वस्तुएँ सस्ते दामों पर उपलब्ध होने लगेंगी।
(iv) रोजगार वृद्धि : भारत के व्यापार में वृद्धि के कारण 7 लाख व्यक्तियों के लिए अतिरिक्त रोजगार सृजन की सम्भावना है। निर्यात बढ़ने से रोजगार व आमदनी बढ़ना भी स्वाभाविक है।
निष्कर्ष : उपर्युक्त आशंकाएँ वर्त्तमान की ओर स्पष्ट संकेत करती हैं कि WTO के अच्छे परिणाम हमारे सामने नहीं आ रहे हैं जैसाकि निम्नांकित विवरण से स्पष्ट हो जायेगा-
1. भारतीय कृषि तथा उद्योग पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगा है। भारत की टेक्सटाइल वस्तुओं, चमड़े की वस्तुओं, चाय, कॉफी तथा अन्य वस्तुओं के निर्यात पर विकसित देशों द्वारा किसी-न-किसी प्रकार की बाधाएँ खड़ी की जा रही हैं। विकासशील देशों में कम मजदूरी लागत (Low Wage Cost) पर बनी नीची लागत वाली वस्तुओं को पर्यावरण संरक्षण के नाम पर विदेशी बाजारों में पहुँचने से रोकने का प्रयास किया जा रहा है।
2. विकसित देशों द्वारा उत्पन की जानेवाली गैर व्यापारिक बाधाओं का भारत सहित अन्य विकासशील देशों द्वारा विरोध किया जा रहा है। विकासशील देशों की सरकारें तथा कम्पनियाँ पर्यावरण मानक Environmental Standards ) हेतु लिये जानेवाले प्रमाण- पत्र ISO 14000 को गम्भीरता से ले रही हैं।
3. सकल राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर में, 80 के दशक की तुलना में, कोई विशेष उनति नहीं हुई है।
4. कृषि विकास की दर बढ़ने के बजाय घटी है।
5. विदेश व्यापार का घाटा घटने के बजाय अत्यधिक तेजी से बढ़ा है।
6. सरकारी व्यय और ऋण में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।
7. कृषकों और गैर कृषकों के बीच आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी है।
8. गरीबी रेखा से नीचे जीवन निर्वाह करनेवालों की संख्या में कमी के बजाय वृद्धि हुई है।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार समझौता राष्ट्रीय अर्थतन्त्र को सुधारने में पूरी तरह विफल रहा है। सुधार के निर्णय, वे चाहे किसी व्यक्ति अथवा राष्ट्र के हो, सफल तभी होते हैं जब वे अपने विवेक से लिये जाते हैं। हमारे तथाकथित सुधार वे हैं जो विदेशी शक्तियों ने हमारे ऊपर ‘विश्व व्यापार समझौते’ के नाम पर थोप दिये हैं। उनकी रुचि केवल इसमें है कि उनकी पूँजी और उत्पादों के लिए भारत के द्वार खुल जायें। उन्हें इसमें कोई रुचि नहीं है कि देश में जनसाधारण की दशा सुधरे, कृषि विकास गतिशील हो और पूरी अर्थव्यवस्था के लिए एक ठोस आधार बन सके।
निराशाजनक परिणामों का मूल कारण यह है कि हमारी प्रतिस्पर्द्धा करने की शक्ति अत्यन्त कम है। अमेरिका जैसे आधुनिकतम जानकारियों और नवीनतम यन्त्रों से सुसज्जित देशों का मुकाबला ऐसे देश नहीं कर सकते जिनमें आधी आबादी निरक्षर हो तथा जो अभी भी पुराने यन्त्रों पर निर्भर हों। यह बात न केवल औद्योगिक क्षेत्र के लिए लागू है बल्कि कृषि क्षेत्र पर भी लागू होती है।
समझौता वही सार्थक होता है जो लगभग बराबर शक्तिवालों के बीच होता है। वस्तुत: अति सम्पन्न और अति विपन्न के बीच न तो कोई न्यायसंगत समझौता सम्भव है और न ही उसपर अमल किया सकता है। भारत का कुल निर्यात भी विश्व के निर्यात का केवल 0.6 प्रतिशत ही है। सोचने की बात यह है कि जिस देश का पूरे विश्व की आय में और विश्व व्यापार में योगदान क्रमशः केवल 1.2 और 0.6 प्रतिशत ही हो, उसकी बात कौन सुनेगा?