प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या करें। 

यह अत्यन्त प्राचीन सिद्धान्त है। इसके अनुसार व्यक्तियों के अधिकार प्राकृतिक और जन्मसिद्ध होते हैं। प्रो० आशीर्वादम के शब्दों में, “अधिकार उसी प्रकार मनुष्य की प्रकृति के अंग हैं, जिस प्रकार उसकी खाल का रंग। इनकी विस्तृत व्याख्या करने या औचित्य बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, ये तो स्वयंसिद्ध हैं । ” 

ये अधिकार स्वयंसिद्ध, निरपेक्ष, पूर्ण, सामाजिक और जन्मजात हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार प्राकृतिक हैं एवं मनुष्य की प्रकृति में निहित हैं तथा ये सदैव से व्यक्ति को प्राप्त थे और समाज में आने से पूर्व प्राकृतिक अवस्था में भी व्यक्ति के पास थे। इन अधिकारों पर व्यक्ति का उसी प्रकार अधिकार होता है जैसा कि तन, मन और मस्तिष्क पर होता है। इन अधिकारों का अस्तित्व राज्य के जन्म से पूर्व भी था, इसलिए राज्य इन्हें छीन नहीं सकता तथा ये राज्य की शक्ति से सीमित न होकर स्वतन्त्र होते हैं। 

हॉब्स, लॉक, रूसो, मिल्टन, वॉल्टेयर, टॉमस पेन व ब्लैकस्टोन आदि विचारक प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादकों ने इसे, व्यक्ति के अधिकारों की उत्पत्ति का मूल मन्त्र माना है। प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त को सबसे पहले यूनानी विचारकों ने प्रतिपादित किया। वे अधिकारों को मनुष्य की प्राकृतिक सम्पत्ति मानते थे तथा इन्हें स्वाभाविक, स्वयंसिद्ध और सामाजिक व्यवस्था का अविभाज्य तत्त्व मानते थे । प्राचीन रोम में भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया गया। अठारहवीं शताब्दी में सामाजिक समझौते के द्वारा प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का. प्रबल समर्थन हुआ। हॉब्स का मत था, “राज्य के निर्माण से पूर्व व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने का अधिकार प्राप्त था।” लॉक के शब्दों में, “हमारी प्राकृतिक अवस्था में भी कुछ प्राकृतिक नियम थे । विवेक हमारा प्रमुख नियम था जो सभी को यह सिद्ध कर देता था कि सभी समान और स्वतन्त्र है इसलिए कोई किसी को न सताए । सभी को जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति (Life, Liberty and Property) का अधिकार प्राप्त था।” रूसो ने भी राज्य के निर्माण से पूर्व कुछ अधिकारों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। 

हरबर्ट स्पेन्सर ने प्राकृतिक अधिकारों को स्वीकार करते हुए लिखा है, “प्रत्येक व्यक्ति सब-कुछ करने को स्वतन्त्र है, यदि वह दूसरों की स्वतन्त्रता नहीं छीनता है। अधिकारों के इस प्राकृतिक सिद्धान्त के आधार पर अमेरिका के स्वतन्त्रता संग्राम की घोषणा में भी जीवन, स्वतन्त्रता और समानता के अधिकारों को अक्षुण्ण घोषित किया गया। फ्रांस की राज्य क्रान्ति ने भी विश्व में स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का उद्घोष किया। इन सबका आधार अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त ही था। इसी सिद्धान्त के आधार पर वर्तमान काल में भी रोटी, कपड़ा, मकान और आजीविका के अधिकारों को प्राकृतिक मानकर उन्हें आधारभूत माना गया है। 

आलोचना : अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है- . 

1. ‘प्राकृतिक’ शब्द अस्पष्ट : इस सिद्धान्त का ‘प्राकृतिक’ शब्द अनिश्चित, अपरिभाष्य तथा बहुल अर्थ रखने वाला है। प्रो० रिची के अनुसार, “प्राकृतिक शब्द के कई अर्थ हैं जैसे कि सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड, सृष्टि का वह भाग जहाँ मनुष्य नहीं है, आदर्श या पूर्ण लक्ष्य, अपूर्व, साधारण या औसत।” विचारक इस शब्द का अर्थ तथा प्रयोग अपने-अपने दृष्टिकोण से करते हैं इसलिए इस सिद्धान्त का अर्थ भी अनिश्चित हो जाता है। 

2. प्राकृतिक अधिकारों की सूची पर मतैक्य नहीं : विचारक प्राकृतिक अधिकारों की प्राकृतिकता पर भी एकमत नहीं हैं। कुछ के लिए स्वतन्त्रता प्राकृतिक है, तो दूसरों के लिए समानता । कुछ दासता को प्राकृतिक मानते हैं तथा कुछ सम्पत्ति को कुछ के लिए स्त्री- पुरुष की समानता प्राकृतिक है, तो दूसरों के लिए पुरुषों की श्रेष्ठता प्राकृतिक है। लास्की ने इसी बात को लक्ष्य रखते हुए कहा है, “अधिकारों की कोई स्थायी अथवा अपरिवर्तित सूची निर्मित नहीं की जा सकती।” इसके अतिरिक्त प्राकृतिक अधिकारों में पारस्परिक विरोध पाया जाता है। 

3. प्राकृतिक अधिकारों में पारस्परिक विरोध : प्राकृतिक अधिकारों में भी परस्पर विरोध पाया जाता है । स्वतन्त्रता, समानता व भ्रातृत्व के अधिकार प्राकृतिक होने के कारण निरपेक्ष होने चाहिए । व्यवहार में यह निरपेक्षता सम्भव नहीं है क्योंकि निरपेक्ष अधिकार की मान्यता का अर्थ सबके लिए अनधिकार हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हम सब व्यक्तियों की निरपेक्षता को स्वीकार करें तब यह पूर्ण स्वतन्त्रता आपस में टकराएगी। इस प्रकार सभी व्यक्ति निरपेक्ष रूप से समान नहीं हो सकते। 

4. राज्य एक कृत्रिम संस्था नहीं : इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य और समाज मानव द्वारा निर्मित की गई कृत्रिम संस्थाएँ हैं जिन्होंने मनुष्य को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया है परन्तु सत्य यह है कि राज्य एक स्वाभाविक अथवा प्राकृतिक संस्था है। वह निर्मित नहीं वरन् विकसित संस्था है। राज्य सही अर्थों में अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करता है अपितु उनका संरक्षण करता है। 

5. सामाजिक मान्यता के अभाव में अधिकार सम्भव नहीं : यह सिद्धान्त अधिकारों को सामाजिक मान्यता नहीं देता है, परन्तु समाज के बिना अधिकार सम्भव नहीं होते हैं। वास्तविकता यह है कि बिना सामाजिक मान्यता के अधिकार का अस्तित्व नहीं होता है। गिलक्राइस्ट के अनुसार, “अधिकारों की उत्पत्ति इसी तथ्य से हुई है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं। ” 

6. अधिकारों की निरपेक्षता स्वीकार नहीं : इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार व्यक्ति को प्रकृति की देन होने के कारण निरपेक्ष हैं तथा अधिकारों पर किसी प्रकार का नियन्त्रण अथवा प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता, परन्तु प्रतिबन्धों के अभाव में स्वतन्त्रता उच्छृंखलता में परिवर्तित हो जाती है। अतः अधिकारों की निरपेक्षता मान्य नहीं है। 

प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त की आलोचना से स्पष्ट है कि यह सिद्धान्त इस रूप में मान्य नहीं है। वस्तुतः इस सिद्धान्त की मान्यता तभी हो सकती है जब हम इसका यह अर्थ लगाएँ कि प्राकृतिक अधिकार वे आदर्श तथा नैतिक अधिकार हैं, जिनसे मनुष्य को वंचित नहीं किया जा सकता। 


About The Author

Spread the love

Leave a Comment

error: Content is protected !!