पूर्व वैदिक या ऋग्वैदिक काल में सामाजिक, आर्थिक जीवन की विशेषताओं का वर्णन करें।PDF DOWNLOAD

ऋग्वैदिक सभ्यता : ऋग्वैदिक सभ्यता का भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्त्व है। प्रो० मैक्समूलर का कथन है कि “वेद केवल भारतीय इतिहास के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि विश्व के एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति करते हैं। 

ऋग्वैदिक सभ्यता का सृजन पंजाब प्रदेश तथा सरस्वती नदी के निकट ही आ पंजाब को उन दिनों सप्त सैन्यव के नाम से पुकारा जाता था। ऋग्वेद में सप्त-सैन्यव तथा सरस्वती का कई मंत्रों में गुणगान किया गया है कि ऋग्वैदिक सभ्यता का एक उच्च कोटि की सभ्यता थी। 

सामाजिक जीवन : ऋग्वेद के गहरे अध्ययन के अनुसार उस काल के समाज का संगठन निम्नलिखित था : 

1. कौटुम्बिक जीवन : ऋग्वैदिक सभ्यता के सामाजिक संगठन का आधार कुटुम्ब होता था । कुटुम्ब पैत्रिक था और पिता ही उसका प्रधान होता था। पिताजी अपनी संतान के प्रति सहृदयता, सौजन्यता, दया, प्रेम और सहानुभूति रखा करता था। वही अपने पुत्र व पुत्री की शादी किया करता था । पिता की अनुपस्थिति में कुटुम्ब के वयोवृद्ध सदस्य के कंधों पर यह भार आ जाता था। शादी के बाद भी पुत्र को अपनी पत्नी के साथ पिता के घर तथा उसके ही संरक्षण में रहना पड़ता था । अतः वधु अपने ससुर से भयभीत रहा करती थी । उस समय संयुक्त परिवार की ही प्रथा थी । अतिथि सत्कार को उस काल में बहुत अधिक महत्व दिया जाता था । अतिथि सत्कार को वे लोग पाँच महायज्ञों में ही गिनते थे। 

2. संतान की दशा : शादी-विवाह का मुख्य उद्देश्य था संतान की उत्पत्ति | पुत्र प्राप्ति की लोगों में अधिक कामना थी। अधिक से अधिक पुत्र-प्राप्ति के लिए लोग भगवान से प्रार्थना किया करते थे। उनकी प्रार्थना इस तरह की होती थी, जैसे : “हमारे घर संतान से भरपूर हो। हमें वीर पुत्रों की कमी न हो।” लोग स्वभावतः पुत्र के जन्म लेने पर बड़ा बड़ा उत्सव मनाया करते थे। आजकल की भांति ही उस काल में भी कन्या प्राप्ति की इच्छा नहीं थी। लेकिन जन्म ले लेने पर कन्या के साथ भी बरताव अच्छा ही होता था । उसकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की जाती थी। अतः उस काल की स्त्रियाँ भी पढ़ी-लिखी होती थी । विश्वपरा, घोषा, लोपा, आपाला, त्रैयी, अदिति, सरमा और यमी आदि कितनी ही महिलाएँ उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त कर चुकी थी । यहाँ तक वे वेद मंत्रों की भी रचना कर सकती थी । 

3. विवाह पद्धति : वैदिक काल में आर्यों में विवाह प्रथा भली-भांति विकसित हो चुकी थी । साधारणतः लोगों में एक पत्नी रखने की प्रथा थी, परन्तु राजवंशों में बहु-विवाह की भी प्रथा थी। राजे-महाराजे की कई पत्नियाँ रहा करती थीं। भाई-बहन और पिता-पुत्री में विवाह निषिद्ध था। बाल्यावस्था में विवाह सर्वथा वर्जित था। लड़कों के साथ लड़कियों को भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना पड़ता था । साधारण आर्य कन्याएँ भी अपने पति का चुनाव स्वयं करती थी। कुछ लोग दहेज देकर अपनी कन्याओं की शादी करते थे तथा जिसकी कन्याऍ खराब रहती थी तो वे भी वरपक्ष को दहेज देते थे। शादी तय हो जाने के बाद बड़ी घूम-धाम से वैवाहिक प्रथाएँ पूरी की जाती थी। बारात कन्या के घर ही जाती थी । विवाह संस्कार में वर-वधू को अग्नि की परिक्रमा करनी पड़ती थी और मंत्रोच्चारण भी होता था । अतः विवाह एक पवित्र बंधन समझा जाता था। जो मृत्यु के बाद ही टूटता था। आजकल की भाँति उस काल में तलाक देने की प्रथा नहीं थी । विधवा विवाह की भी प्रथा नहीं थी । विवाह के बाद बहुओं का कितना सम्मान होता था इसका पता एक मंत्र के हिन्दी अनुवाद से ही चल जाता है जो इस प्रकार ः ” प्राणियों के स्वामी हमें संतान से कृतार्थ करे, अर्थमान बनाये रखे, हमे वृद्धावस्था तक एक परिणय के सूत्र में आबद्ध रखें । हे वधू! पति के घर में तुम्हारा प्रवेश मंगलकारी हो । हमारे कुल एवं डगरों पर क्षेम की वर्षा करो। 

“हे वधू ! अपनी सास और ससुर को वशीभूत कर लो। अपनी ननदों तथा देवरों के बीच रानी की भाँति शोभायमान हो।” उस काल में सती प्रथा का कहीं संकेत नही मिलता । 

4. स्त्रियों की दशा : उस युग में स्त्रियों को समाज में बड़ा ही ऊँचा स्थान प्राप्त था।, उनको आदर की दृष्टि से देखा जाता था। वे गृहस्वामिनी होती थी तथा अपने पति के साथ धार्मिक कार्यो में इधर-उधर आ जा सकती थी। पर्दे की प्रथा नहीं थी, लेकिन स्त्रियाँ पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं थी। उन्हें अपने संरक्षकों के संरक्षण में रहना पड़ता था। विवाह के पहले अपने पिता तथा बड़े भाई के नियंत्रण में कन्याएँ रहती थी और शादी के बाद उन्हें अपने पति तथा ससुर के संरक्षण में रहना पड़ता था। पति और ससुर की अनुपस्थिति में वे अपने पुत्र के संरक्षण में रहती थी। उस काल की स्त्रियाँ काफी सुन्दरी होती थी । वेद में एक स्थल तो यह भी लिखा हुआ है कि कुछ नारियाँ तो अपने रूप पर फूली नहीं समाती थी और अपने पति तथा प्रेमी के चित्त को लुभाने में बड़ी ही माहिर होती थी । 

5. वेश-भूषा : आर्य बहुत ही सुन्दर पोशाक तथा आभूषण पहनते थे। ये लोग साधारणतः तीन वस्त्र धारण करते थे । एक था नीचे का बस जो निवि कहलाता था। दूसरा था काम और तीसरा अधिवास कहलाता था । बेल-बूटों से भरी ऊनी तथा सूती दोनों प्रकार के कपड़े वे लोग पहनते थे । मर्द भी लम्बे बाल रखते थे जिसमें तेल डालकर कंघी भी किया करते थे। औरतें चोटी बाँधती थी चोटी में फूल रखने तथा खोसने की भी प्रथा थी । मर्द अपने बाल को कुण्डल के आकार में रखते थे । दाढ़ी तथा मूँछें भी रखने की प्रथा थी। कुछ लोग अपनी दाढ़ी मुड़वाँ भी लेते थे। आभूषण प्रायः औरत मर्द दोनों ही पहनते थे। आभूषण अधिकतर सोने के बने होते थे। जैसे कान की बाली, भुजबनद, नुपूर और कंगन आदि । 

6. भोजन : आर्य लोग अनाज को भून और पीसकर उसे घी दूध तथा दही के साथ खाते थे। अतः उनका मुख्य भोजन था गेहूँ, जौ, दूध, दही और घी आदि । इनके अलावा वे लोग फल-फूल साग-सब्जी भी खाते थे, उस समय बलि की प्रथा थी जिससे उनको माँस खाने को मिल जाया करता था। गाय को अघन्या घोषित कर दिया गया था। अतः गाय की बलि नहीं दी जाती थी। अश्वमेघ यज्ञ में लोग घोड़ों की बलि देते थे और उसके माँस को खाते थे। 

7. पेय पदार्थ : उस काल के आर्यो को दो प्रधान पेय पदार्थ थे, सोम और सुरा। सोम एक तरह के पेड़ के रस से तैयार किया जाता था। जिसमें मादकता नहीं रहती थीं। इसका प्रयोग केवल यज्ञों के अवसरों पर किया जाता था। सुरा में मादकता थी जो जौ से तैयार किया जाता था। सुरापान घृणित समझा जाता था। ब्राह्मण लोग तो इसे छूते तक नहीं थे। सुरापान कहीं-कहीं पर अपराध के समान भी था। 

8. औषधि : आर्य लोग अपने स्वास्थ्य को भी बनाये रखने की व्यवस्था करते थे। वे कई तरह की औषधि से परिचित थे। प्रायः औषधियाँ जड़ी-बूटी से तैयार की जाती थी । चिकित्सा एक प्रकार का व्यवसाय था। अश्विनी औषधिशास्त्र के देवता माने जाते थे। 

9. आमोद-प्रमोद : रथ संचालन, जुआ खेलना, नाचना गाना, बाजा बजाना और पशु-पक्षियों का शिकार करना आदि कार्य आमोद-प्रमोद के मुख्य साधन थे। घूड़-दौड़ भी मनोरंजन का एक साधन था । वाद्य यंत्रों में दुन्दुभी, कर्करी और वण- नाड़ी का उल्लेख ऋग्वेद में पर्याप्त मात्रा में मिलता है। 

10. शिक्षा : उस युग में शिक्षा मौखिक दी जाती थी। अतः उस युग में स्मरणशक्ति का बहुत अधिक महत्व था । शिक्षक लोग अपने शिष्यों को वेद तथा मंत्र पढ़ाते थे जिनको शिष्य रट जाया करते थे। उस काल में शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य था आचरण को शुद्ध बनाना और बुद्धि को बढ़ाना। 

11. गृह व्यवस्था : आर्य लोग बॉस के मकान बनाकर रहते थे। प्रत्येक घर में एक अग्निशाला अवश्य रखने की व्यवस्था थी जिसमें हमेशा जलती रहती थी, मकान में दालान अलग होता था और औरतों के रहने के लिए अलग कमरा होता था । 

12. वर्ण व्यवस्था : कालक्रम में आर्य लोग दो भागों में बंट गये। गोरे रंग के लोग आर्य हुए और काले रंग के अनार्य । अपने-अपने कार्यो के आधार पर ये कई वर्णों में विभक्त हो गये थे । अध्ययन और अध्यापन करानेवाले, यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण कहलाये । युद्ध तथा शासन करनेवाले राजन कहलाये और पीछे चलकर क्षत्रिय । कृषि तथा व्यवसाय करनेवाले वैश्य कहलाये और सेवा कार्य करने वाले शुद्र कहलाये । वैदिक ऋषियों ने समाज की कल्पना एक मानव शरीर के समान की थी जिसके शीर्ष स्थानीय ब्राह्मण थे, बाहु रूप थे, पेट और जघाओं के सदृश स्थिति वैश्यों की थी, शूद्र पैरों के समान थे। आर्यों से भिन्न दाम लोग ही शुद्र वर्ण के भीतर माने जाते थे। 

13. आश्रम : आश्रम के अनुसार जीवन के चार भाग किये गये थे। ब्रह्मचर्य आश्रम गृहस्थ आश्रम वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम । इन आश्रमों का पालन केवल तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को ही करना पड़ता था, शूद्रों को नहीं । 

14. शव संस्कार : उस काल के आर्य लोग मृतक शरीर को पूर्णरूप से जमीन में गाड़ देते थे या पूर्णरूप से उसे अग्नि द्वारा जला देते थे, लेकिन विधवाओं की लाश को नहीं जलाया जाता था बल्कि उसे जमीन के अन्दर गाड़ दिया जाता था। 

राजनीतिक जीवन : स्तुति मंत्रों का संग्रह ही ऋग्वेद के आर्यो का धार्मिक ग्रंथ है। मंत्रों से ही उस काल के राजनैतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। अतः उसके राजनैतिक जीवन की मुख्य बातें निम्नलिखित थीं : 

(i) राजनीतिक विभाजन : उस काल की राजनैतिक व्यवस्था का मूल आधार कुटुम्ब था। कुटुम्ब का प्रधान पिता या कोई बड़ा होता था । उसी के नियंत्रण में कुटुम्ब के सभी सदस्य रहकर जीवन-यापन करते थे। कई कुटुम्ब को मिलाकर एक ग्राम बनता था जिसका प्रधान ग्रामीणी कहा जाता था। कई ग्रामों को मिला देने से एक विस बनता था। जिसका प्रधान विसपति कहलाता था और कई विस मिलाकर एक जन बनता था जिसका रक्षक गोप कहलाता था जो स्वयं राजा हुआ करता था। यह सबसे अधिक शक्तिशाली होता था। 

(ii) राजनैतिक संगठन : उस काल का राजनैतिक संगठन राजतंत्रात्मक (Mornarchy) था। राज्य का प्रधान राजा कहलाता था। राज का पद उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त किया जाता था। अतः राजा के मरने के बाद सबसे बड़ा पुत्र ही राजा होता था। राज्य में राजा सर्वोच्च होता था तथा सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा कीमती आभूषण पहना करता था। वह भव्य महल में रहा करता था। उसके अनेक नौकर-चाकर होते थे। बड़े-बड़े गायक, पण्डित तथा ऑफिसर उसके पास उपस्थित रहा करते थे। यातायात के साधनों के अभाव के कारण राज्य छोटा होता था । 

(iii) राजा के कार्य : प्रजा की रक्षा, शांति स्थापना, शत्रुओं से युद्ध और यज्ञ आदि कार्यों का करना ही राजा के प्रधान कर्तव्य होते थे। वह अपनी प्रजा की भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की ओर ध्यान रखता था । प्रजा बदचलन न हो इसके लिए वह पर्याप्त संख्या में गुप्तचर बहाल कर लिया करता था। जिनका प्रमुख काम था, प्रजा के आचरण की सूचना राजा को देते रहना। राजा आचरण भ्रष्ट प्रजा को कड़ी सजा दिया करते थे। अतः उस युग की आचरण शुद्धता आज भी प्रसिद्ध है। 

(iv) राज्य के प्रधान पदाधिकारी : राजा की मदद के लिए राज्य में अनेक प्रमुख पदाधिकारी भी होते थे जिसमें ग्रामीणी, सेनानी और पुरोहित प्रधान थे। राजा के पुरोहित का पद वंशानुगत होता था। राज्य में उनका स्थान भी बहुत ऊँचा था । वहीं राजा का सच्चा सलाहकार तथा धर्मगुरु होता था, अतः पुरोहित का प्रभाव सारे राज्य पर होता था। वह राजा के साथ रण-क्षेत्र में जाया करता था तथ राजा की विजय के लिए प्रार्थना किया करता था। कभी-कभी तो पुरोहित के मंत्रोच्चारण से युद्धस्थल गूंज उठता था । 

इसके बाद सेनानी का स्थान आता था। वह सेना का संचालन करता था। उसकी नियुक्ति राजा स्वयं करता था । वही सेना का प्रधान होता था। सेना उसी के इशारों पर नाचा करती थी। 

ग्रामीणी राजा का तीसरा प्रधान पदाधिकारी होता था। गाँव का सारा प्रबंध उसी के जिम्में रहता था, गाँव में किसी भी तरह की गड़बड़ी के लिए वही उत्तरदायी हुआ करता था। 

(v) न्याय व्यवस्था : उस काल में न्याय की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। राजा कुछ लोगों की मदद से राज्य भर के फौजदारी और दीवानी, मुकदमों का फैसला किया करता था । इन कार्यों में राजा को पुरोहितों से काफी मदद मिलती थी। चोरी, डकैती और रोग लगाना अपराध था। उस समय पशुओं की चोरी हुआ करती थी। अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाती थी। जल तथा अग्नि परीक्षा भी उस युग में होती थी। 

धार्मिक जीवन : ऋग्वैदिक काल भारतीय आर्यों का वह प्रभात काल है जब उन्होंने अध्यात्मक जगत में प्रथम पदार्पण किया था। परन्तु इस शुरूआत के काल में ही उन्होंने इतनी उन्नति कर ली थी कि उनकी मान्यताएँ तथा अवस्थाएँ आज तक अकाट्य है। वास्तव में उस काल के आर्यो का जीवन कर्ममय था । उस समय मानव जीवन का कोई ऐसा अंग न था जिस पर धर्म का प्रभाव न पड़ा हो। अतः उस समय के लोगों का धार्मिक जीवन बहुत ही अच्छा था। उस समय के धर्म के स्वरूप निम्नलिखित है:- 

1. प्रकृति उपासना : उस समय के लोग प्रकृति की पूजा करते थे। साथ ही साथ उनका विश्वास था कि सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ, आदि में ईश्वर निवास करते थे। इसी भावना से प्रभावित होकर वे इन सबकी भी उपासना किया करते थे। उनका वैदिक वाङ्मय प्रकृति के इन्हीं विभिन्न स्वरूपों की स्तुति से भर गया था । 

2. देवता : प्रकृति का पुजारी होने के कारण, प्रकृति की शक्तियों के विभिन्न प्रतीकों की सर्जना हुई। इन शक्तियों को वैदिक आर्य देवता मानकर इनकी उपासना करने लगे। अतः ऋग्वेद में 33 देवताओं की प्रार्थना की गयी है। इन देवताओं को तीन भागों में बाँटा गया जैसे आकाश के मध्य तथा पृथ्वी के हर एक वर्ग में ।। देवता है । जिनमें से एक सर्वप्रथान है। इनमें सबसे सर्वश्रेष्ठ इन्द्र, अग्नि, और सोम हैं । इन्द्र के लिए 250 अग्नि के लिए 200 तथा सोम के लिए 100 से अधिक मंत्र है। गौ तथा पृथ्वी को जगत का माता पिता कहा गया है और 6 मंत्रों में इनका गुण-गान किया गया है। वर्षा के देवता पर्जन्य और परलोक के देवता यम थे। इस तरह से आकाश के सर्वश्रेष्ठ देवता सूर्य, मध्य स्थान के वायु और इन्द्र और पृथ्वी के देवता अग्नि थे। उनके धर्म का मूलाधार एकेश्वरवाद ही था जिसे वे प्रजापति कहते थे। 

3. धार्मिक कार्य : उस काल के धर्म में यज्ञ तथा बलि का अत्यधिक महत्व था । यज्ञ में सोमरस, माँस, दूघ, घी और अन्न आदि को देवताओं पर प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता था। लोग प्रार्थना भी किया करते थे। उनका विश्वास था कि प्रार्थना भगवान तक पहुँच जाती है। उस समय गायत्री मंत्र का अत्यधिक महत्व था । इसलिए यह दिनभर में तीन बार (सुबह, दोपहर और संध्या) किया जाता था । पितर- पूजा भी प्रचलित थी । 

आर्थिक जीवन : कृषि, पशुपालन, गृह उद्योग धंधे तथा छोटे पैमाने पर व्यवसाय आदि जीविका उपार्जन के साधन होते थे। उसी प्रकार भारत में भी आर्यो के ये सब पेशे थे। उनके आर्थिक जीवन के निम्नलिखित आधार थे : 

1. गाँवों की व्यवस्था : ऋग्वैदिक काल की सभ्यता में नगरों का सर्वथा अभाव था । अतः इस युग के आर्य मुख्य रूप से गाँवों में ही रहते थे। वे घर लकड़ी तथा बॉस के ही बनाते थे और उनकी सुरक्षा के लिए वे आस-पास में झाड़ी जंगल लगा दिया करते थे । यही था उस जमाने में गृहों की सुरक्षा के साधन । 

2. पशु-पालन : आर्यो के आर्थिक जीवन का मूलाधार पशु-पालन ही था। लोग गाय, बैल, भेंड़, बकरी, कुत्ते आदि जानवर पालते थे। उस जमाने में इन सब पशुओं में गाय का सबसे अधिक महत्त्व था । इसलिए गाय को अघन्या कहा गया था। बैल गाड़ी खींचने तथा हल जोतने के काम में लाया जाता था। लोग प्रधानतः गेहूँ तथा जौ की खेती करते थे । फल फूल तथा तरकारी भी ले उपजाते थे। घोड़ा रथ खींचने के काम आता था । कुत्ते रात्रि में सामानों की रखवाली करते थे। स्वामित्व के चिन्ह के लिए लोग अपने पशुओं के कानों पर चिन्ह बना देते थे। 

3. कृषि : कृषि ही ऋग्वैदिक आर्यो का प्रधान उद्यम था । कृषि योग्य भूमि लोगों की अलग-अलग थी, लेकिन चारागाह सबों के लिए एक होता था। अतः चारागाह में सबके पशु घास चरते थे। खेती हल से की जाती थी। वर्तमान काल की तरह उस युग में दो बैलों से हल नहीं जोता जाता था बल्कि 6, 8, 11, 12 बैलों तक एक हल में लोग जोतते थे और धान, जौ तथा गेहूँ उपजाते थे । 

4. आखेट : उस युग के आर्य माँस खाते थे। अतः पशुओं का शिकार भी उनकी जीविका का एक साधन था। सूअर, मृग और भैसों का शिकार किया जाता था। धनुष बाण, जाल और फंदा इत्यादि इनके शिकार के प्रमुख औजार थे। शेर को गड्ढे में गिराकर बड़ी चालाकी से पकड़ते थे सुअर का शिकार कुत्तों की मदद से किया जाता था । चिड़ियों को लोग जाल में फंदे मे फंसा लिया करते थे। शेर को तो लोग कभी-कभी चारों ओर से घेर कर मार डालते थे। भैंसों को धनुष बाण से मार दिया करते थे । आखेट केवल निम्न वर्ग के लोग ही किया करते थे। 

5. व्यापार : व्यापार भी उनकी जीविका का एक मुख्य साधन था। वे लोग देश तथा विदेश में व्यापार करते थे। उस युग में आयात तथा निर्यात खूब होता था । व्यापार वस्तु- विनिमय के द्वारा होता था। बाद में चलकर गाय द्वारा वस्तुओं का मूल्य आँका जाने लगा। इसके बाद गाय का स्थान सोने चाँदी ने ले लिया। सोने की मुद्रा का नाम निष्क था। चदरे, कपड़े और चमड़े का व्यापार खूब होता था । माल लाने और ले जाने के लिए रथों का गाड़ियों को काम में लाया जाता था। नदियों द्वारा व्यापार करने के लिए नावों का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में इन्द्र की एक मूर्ति का मूल्य 10 गाय आंका गया है। व्यापारी वर्ग परीग कहलाता था। 

6. गृह उद्योग तथा दस्तकारी के कार्य : गृह उद्योग तथा दस्तकारी के कार्यों में भी लोग बड़े सिद्धहस्त होते थे। तक्षण या बढ़ई लोग बहुत अच्छे-अच्छे रथ तथ गाड़ियाँ बनाया करते थे। वे लोग लकड़ी के अच्छे अच्छे सामान भी बनाते थे जो नाव तथा गृह-निर्माण के कार्य में लगाये जाते थे। लकड़ियों पर दस्तकारी भी खूब की जाती थी। यहाँ तक की लोग लकड़ी के प्याले भी बनाते तथा उनपर सुन्दर – सुन्दर नक्कासी किया करते थे। कुम्हार मिट्टी के अच्छे-अच्छे बर्तन बनाया करते थे। विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों को करने के लिए सभी लोग स्वतंत्र थे। 


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