पूर्व वैदिक ( ऋग्वैदिक कालीन) सभ्यता के सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन की विवेचना कीजिए । 

वैदिक सभ्यता के निर्माता आर्य थे। आर्य शब्द का अर्थ है— श्रेष्ठ अथवा कुलीन व्यक्ति। आर्य गोरे रंग के लम्बे-चौड़े, बलिष्ठ, वीर तथा साहसी होते थे। आर्यों ने जिस साहित्य की रचना की, वह वैदिक साहित्य के नाम से विख्यात है। इसी वैदिक साहित्य से हमें वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। वैदिक सभ्यता को दो भागों में बांटा गया है- 

(1)ऋग्वैदिक सभ्यता अथवा पूर्व वैदिक सभ्यता तथा 

(2) उत्तरवैदिक सभ्यता । 

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि ऋग्वेद के रचनाकाल तक आर्यों का विस्तार पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में गंगा के पश्चिमी तट तक और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य प्रदेश की उत्तरी सीमा तक हो चुका था। 

सामाजिक जीवन 

ऋग्वेद के अध्ययन से तत्कालीन समाज का काफी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इस काल के समाज का संगठन निम्नांकित था- 

कौटुम्बिक जीवन : इस काल के सामाजिक संगठन का मूलाधार कुटुम्ब होता था । कुटुम्ब पैतृक होता था और पिता ही उसका प्रधान समझा जाता था । 

विवाह की व्यवस्था : जन-साधारण में बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन नहीं था परन्तु राज-वंशों में बहु-विवाह की प्रथा थी । भाई-बहन तथा पिता-पुत्री में विवाह वर्जित था। दस्युओं के साथ भी विवाह का निषेध था। 

स्त्रियों की दशा : इस युग में स्त्रियों को समाज में बड़ा ऊँचा स्थान प्राप्त था और उन्हें बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था । स्त्रियाँ गृहस्वामिनी समझी जाती थीं और वे सभ धार्मिक कार्यों में अपने पति के साथ भाग लेती थीं । उन दिनों पर्दे की प्रथा न थी अतएव स्त्रियाँ सभी उत्सवों में भाग लेती थीं । नियमानुसार स्त्रियाँ स्वतन्त्र नहीं होती थीं। 

वेष -भूषा : ऋग्वैदिक आर्य बड़े सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण धारण करते थे। ये लोग प्राय: तीन वस्त्र पहनते थे। एक नीचे का वस्त्र था जिसे नीवि कहते थे । इसका दूसरा वस्त्र काम और तीसरा अधिवास कहलाता था । ये लोग रंग-बिरंगे ऊनी तथा सूती दोनों प्रकार के वस्त्र पहनते थे। कुछ वस्त्रों में सोने के भी काम किये रहते थे जिन्हें वे उत्सव के अवसर पर पह थे। ये लोग लम्बे बाल रखते थे जिनमें वे तेल डालते थे और कमी करते थे। खियाँ नोटी बाँधती थीं और पुरुष अपने बाल कुण्डल के आकार के रखते थे। यद्यपि दाढ़ी रखने की प्रथा थी परन्तु कुछ लोग अपनी दाढ़ी गुंडवा भी देते थे। ऋग्वैदिक आर्य आभूषणों का भ प्रयोग करते थे जो प्राय: सोने के बने होते थे। भुजबन्ध, कान की बाली, कंगन, नूपुर आदि का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते थे । 

खाद्य पदार्थ : चावल, जौ, घी, दूध, मांस ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य भोजन था। अनाज को भून अथवा पीस कर वे उसे घी-दूध के साथ खाया करते थे। फल तथा तरकारी का ये लोग बहुत अधिक प्रयोग करते थे। पशुओं की बलि दी जाती थी जिनका मांस ये लोग खाया करते थे। 

पेय पदार्थ : ऋग्वैदिक आर्य दो प्रकार के पेय पदार्थ का प्रयोग करते थे। एक को सोम कहते थे और दूसरे को सुरा । सोम एक वृक्ष के रस से बनाया जाता था जिसमें मादकता नहीं रहती थी। यज्ञ के अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता था । सुरा में मादकता होती थी और यह अन्न से बनाई जाती थी । सुरापान घृणित समझा जाता था और कहीं तो सुरापान अपराध भी बतलाया गया है। ब्राह्मण लोग इसे घोर घृणा की दृष्टि से देखते थे। 

शिक्षा : इस काल में शिक्षा मौखिक होती थी । अतएव स्मरण शक्ति का बहुत बड़ा महत्व था। गुरु लोग वेद मंत्रों को पढ़ाते थे और विद्यार्थी उन्हें कण्ठाग्र करने का प्रयत्न करते थे। शिक्षा का उद्देश्य बुद्धि को बढ़ाना तथा आचरण को शुद्ध बनाना होता था । 

वर्ण-व्यवस्था : जब आर्य लोग अनार्यों के सम्पर्क में आये तब वर्ण अर्थात् रंग के आधार पर दो जातियाँ बन गई। जो लोग गौर वर्ण के थे वे आर्य और जो काले रंग के थे वे अनार्य कहलाये। आर्य लोग स्वयं अपने-अपने कार्यानुसार कई वर्ण में विभक्त हो गये थे। इस प्रकार पढ़ने तथा यज्ञ का कार्य करने वाले ब्राह्मण, युद्ध तथा शासन करने वाले क्षत्रिय अथवा राजन्, कृषि तथा व्यापार करने वाले वैश्य और सेवा कार्य करने वाले शूद्र कहलाये । पुरुष सूक्त में लिखा है कि ब्राह्मण लोग आदि पुरुष के मुख से, क्षित्रिय उनकी भुजाओं से, वैश्य उनकी जंघा से तथा शूद्र उसके चरणों से निकले हैं। इस प्रकार वर्णों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। परन्तु यह व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी और इसमें जटिलता न थी। 

आश्रम-व्यवस्था : आश्रम व्यवस्था भी इस काल में स्थापित हो चुकी थी जिसके अनुसार जीवन के चार भाग किये गये थे अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ तथा संन्यास। इन आश्रमों का पालन केवल प्रथम तीन दर्गों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य को ही करना पड़ता था । 

आर्थिक जीवन 

ऋग्वैदिक आर्यों के आर्थिक जीवन का परिचय प्राप्त करने के लिए हमे निम्नलिखित बातों पर विचार करना होगा 

गाँव की व्यवस्था : ऋग्वैदिक आर्य गाँवों में रहते थे, नगरों का ऋग्वेद में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। गाँव पास-पास होते थे। सुरक्षा के लिए प्रत्येक घर झाड़ियों अथवा अन्य किसी चीज से घिरा रहता था। घर बाँस तथा लकड़ी के बने होते थे । 

कृषि : कृषि ऋग्वैदिक आर्यों का प्रधान उद्यम था । लोग प्रधानत: गेहूँ तथा जौ की खेती करते थे । फल तथा तरकारी भी लोग पैदा करते थे। 

व्यापार : ऋग्वैदिक आर्यों की जीविका का एक साधन व्यापार भी था। ये लोग विदेशी तथा आन्तरिक दोनों प्रकार का व्यवसाय करते थे । प्रारम्भ में व्यापार वस्तु विनिमय द्वारा होता था। बाद में गाय द्वारा मूल्य आँका जाने लगा और अंत में सोने-चाँदी का प्रयोग होने लगा तथा निष्क नामक मुद्रा का व्यवहार होने लगा। कपड़े, चमड़े तथा चादरें व्यापार की मुख्य वस्तुएँ होता थी । माल ले जाने के लिए गाड़ियों तथा रथों का प्रयोग किया जाता था। नदियों को पार करने के लिए नावों का प्रयोग किया जाता था । 

राजनीतिक जीवन / दशा 

1. राजनीतिक संगठन : ऋग्वैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक संगठन की मूल इकाई परिवार थी। अनेक परिवारों से मिलकर एक गाँव बनता था। ग्राम का अधिकारी ‘ग्रामणी’ कहलाता था। कई गाँवों के समूह को मिलाकर एक ‘विश’ बनता था तथा विंश का – अधिकारी विशपति कहलाता था । कई विशों को मिलाकर ‘जन’ बनता था। जन का प्रधान अधिकारी राजा या गोप कहलाता था। ‘जन’ से बड़ी इकाई ‘राष्ट्र’ कहलाती थी । 

2. राजा : ‘जन’ का प्रमुख अधिकारी राजा होता था। राजा का पद वंशानुगत होता था। साधारणतया राजा की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता था और गद्दी पर बैठता था, परन्तु कभी-कभी जनता नये राजा का चुनाव भी करती थी। राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा का पालन करना था । राज्याभिषेक के समय राजा को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि वह प्रजा की सेवा करेगा और आन्तरिक एवं बाह्य संकटों से प्रजा की रक्षा करेगा। वह कहता था कि “यदि मैं जनता के हितों के विरुद्ध कार्य करूँ तो मेरा और मेरे वंश का नाश हो जाए।” यदि राजा अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं करता था तो प्रजा को उसे गद्दी से हटाने का अधिकार था। 

राज्य की समस्त शक्तियाँ राजा के हाथों में केन्द्रित थीं। वह राज्य के प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश था। उसका निर्णय अन्तिम माना जाता था। वही राज्य का सर्वोच्च सेनापति था। राजा की आज्ञा सर्वमान्य थी। वह अपने भव्य राजमहल में रहता था तथा उसकी सेवा में अनेक अधिकारी और सेवक रहते थे। 

3. प्रमुख अधिकारी : प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता करने के लिए निम्नलिखित प्रमुख अधिकारी होते थे- 

(i) पुरोहित: पुरोहित राजा का मित्र, सलाहकार, प्रथ-प्रदर्शक और सहायक होता था। वह राजा को धार्मिक एवं न्याय संबंधी कार्यों में सलाह देता था। वह राजा की सुख- समृद्धि के लिए यज्ञ करता था। 

(ii) सेनानी : सेनानी सेना का प्रधान होता था। 

(iii) ग्रामणी : ग्रामणी गाँव का मुखिया होता था। 

(iv) अन्य पदाधिकारी : उपर्युक्त अधिकारियों के अतिरिक्त पुरप, स्पश तथा दूत नामक अन्य पदाधिकारी भी होते थे। ‘पुरप’ दुर्ग रक्षक होते थे। ‘स्पश’ गुप्तचर होते थे। ‘दूत’ के कार्य राजनीतिक थे। वे संधि अथवा युद्ध का प्रस्ताव लेकर अन्य राज्यों में जाते थे। 

4. सभा और समिति : ऋग्वेद में ‘सभा’ तथा ‘समिति’ नामक दो संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों के अनुसार सभा समिति से छोटी होती थी जिसमें समाज के वयोवृद्ध तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति भाग लेते थे। जिम्मन का कथन है कि “समिति प्रजा की राष्ट्रीय परिषद थी तथा सभा गाँव के वयस्क लोगों की संस्था थी । ” लुडविगका कथन है कि “समिति समस्त प्रजा की संस्था थी और सभा केवल वयोवृद्ध तथा प्रतिष्ठित लोगों की संस्था थी जिसमें प्रमुख राज्याधिकारी तथा नगारिक ही बुलाए जाते थे।” अधिकांश विद्वानों के अनुसार समिति जनता का एक राष्ट्रीय संगठन था जिसमें सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर विचार किया जाता था। 

5. सैन्य संगठन : आर्यों का सैन्य संगठन उत्तम था। युद्ध करने के लिए राजा के पास सेना होती थी। सेना में पैदल तथा रथों का अधिक महत्व था । साधारण सैनिक पैदल ही युद्ध करते थे तथा राजा एवं उच्च पदाधिकारी रथों में बैठकर लड़ते थे। सैनिक धनुष-बाण, बरछी, भाले, फरसे, तलवार आदि हथियारों का प्रयोग करते थे। ये लोग अपनी रक्षा के लिए कवच, ढाल तथा लोहे की टोपी पहनते थे। सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए लिए युद्ध वाद्य का भी उपयोग होता था। युद्ध में छल-कपट का सहारा नहीं लिया जाता था। आर्य लोग असहाय, घायल, नि:शस्त्र तथा सोये हुए शत्रु पर वार नहीं करते थे । छिपकर वार करना पाप समझा जाता था। राजा ही सर्वोच्च सेनापति होता था। युद्ध के अवसर पर वह सेना का नेतृत्व करता था। सैनिक कार्यों में राजा की सहायता करने के लिए सेनापति भी नियुक्त किया जाता था। 

6. न्याय व्यवस्था : राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह पुरोहित तथा सभासदों की सहायता से न्याय करता था। ऋग्वेद में चोरी, डकैती, ठगी, पशुओं को चुराना, धोखेबाजी आदि अपराधों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था थी । उस समय मृत्यु – दण्ड भी प्रचलित था, परन्तु विशेष परिस्थितियों में ही यह दण्ड दिया जाता था। अधिकांश मामलों में शारीरिक दण्ड ही उपयुक्त माना जाता था। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की हत्या कर देता था, उसे उस व्यक्ति के उत्तराधिकारी या संबंधी को 100 गायों की कीमत चुकानी पड़ती थी। दण्ड के रूप में जुर्माना लेने की प्रथा भी थी । 

धार्मिक जीवन 

ऋग्वैदिक काल भारतीय आर्यो का वह प्रभात काल है जब उन्होंने अध्यात्म जगत में प्रथम पदार्पण किया था। परन्तु इस शुरुआत के काल में ही उन्होंने इतनी उन्नति कर ली थी कि उनकी मान्यताएँ तथा अवस्थाएँ आज तक अकाट्य हैं। वास्तव में उस काल के आर्यो का जीवन कर्ममय था। उस समय मानव जीवन का कोई ऐसा अंग न था जिस पर धर्म का प्रभाव न पड़ा हो। अत: उस समय के लोगों का धार्मिक जीवन बहुत ही अच्छा था। उस समय के धर्म के स्वरुप निम्नलिखित हैं: 

(1) प्रकृति उपासना : उस समय के लोग प्रकृति की पूजा किया करते थे। साथ हीं साथ उनका विश्वास था कि सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ आदि में ईश्वर निवास करते हैं। इसी भावना से प्रभावित होकर वे इन सुबकी भी उपासना किया करते थे। उनका बैदिक वाङ्मय प्रकृति के इन्हीं विभिन्न स्वरुपों की स्तुति से भर गया था। 

(2) देवता : प्रकृति का पुजारी होने के कारण, प्रकृति की शक्तियों के विभिन्न प्रतीकों की सर्जना हुई। इन शक्तियों को वैदिक आर्य देवता मानकर इनकी उपासना करने लगे। अत: ऋग्वेद में 33 देवताओं की प्रार्थना की गयी है । इन देवताओं को तीन भागों में बाँटा गया है, जैसे: आकाश के मध्य तथा पृथ्वी के हर एक वर्ग में 11 देवता हैं जिनमें से एक सर्वप्रधान हैं। इनमें सबसे सर्वश्रेट इन्द्र, अग्नि और सोम हैं । इन्द्र के लिए 250, अग्नि के लिए 200 तथा सोम के लिए 100 से अधिक मंत्र हैं। गौ तथा पृथ्वी को जगत का माता-पिता कहा गया है और 6 मंत्रों में इनका गुणगान किया गया है। वर्षा के देवता पर्जन्य और परलोक के देवता यम थे। इस तरह से आकाश के सर्वश्रेष्ठ देवता सूर्य, मध्य स्थान के वायु और इन्द्र और पृथ्वी के देवता अग्नि थे। उनके धर्म का मूलाधार एकेश्वरवाद ही था जिसे वे प्रजापति कहते थे। 

(3) धार्मिक कार्य : उस काल के धर्म में यज्ञ तथा बलि का अत्यधिक महत्व था यज्ञ में सोमरस, माँस, दूध, घी और अन्न आदि को देवताओं पर प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता था। लोग प्रार्थना भी किया करते थे। उनका विश्वास था कि प्रार्थना भगवान तक पहुँच जाती है। उस समय गायत्री मन्त्र का अत्यधिक महत्व था । इसलिए यह दिनभर में तीन बार (सुबह, दोपहर और संध्या) किया जाता था । पितर- पूजा भी प्रचलित थी । 


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