चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की विशेषताओं का वर्णन करें। 

 मेगस्थनीज सीरिया के सम्राट सेल्यूकस नाइकेटर का राजदूत था जिसक सन्धि के फलस्वरूप पाटलिपुत्र में निवास करने के लिए नियुक्त किया गया था। उसने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिखी है। वह भारत में काफी समय तक रहा और उसने तत्कालीम भारत की शासन-व्यवस्था एवं भारतीयों के विषय में लिखा है। मेगस्थनीज की यह पुस्तक आजकल उपलब्ध नहीं है, परन्तु रोग और यूनान के लेखकों द्वारा उद्भुत अंशों से हमें चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-प्रबन्ध का बहुत-सा विवरण प्राप्त हो जाता है। 

केन्द्रीय शासन : समस्त प्रशासनिक शक्ति का स्रोत सम्राट था। उसके हाथ में सेना, न्याय, प्रशासन आदि सम्बन्धी सभी कार्य थे। मेगस्थनीज के अनुसार, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य दिन-रात राज्य के कार्यों में लगा रहा था। वह अपनी प्रजा की प्रार्थना सुनने के लिए हर समय तैयार रहता था । 

मंत्रिपरिषद् और विभागों के अध्यक्ष : राजकार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक मंत्रिपरिषद् थी । कौटिल्य ने 18 पदाधिकारियों को वर्णन किया है। ये पदाधिकारी अपने-अपने विभाग के अध्यक्ष थे – ( 1 ) मन्त्री, ( 2 ) पुरोहित ( 3 ) सेनापति, (4) युवराज, (5) प्रतिहार (द्वारों के रक्षक)., (6) अन्तर्वशिका (अन्तःपुर का अध्यक्ष ), ( 7 ) प्रशास्तु (कारागारों का अध्यक्ष), (8) समाहर्ता (आय संग्रहकर्त्ता ), (9) सन्निधाती (कोषाध्यक्ष), (10) प्रदेष्टा (कमिश्नर), (11) नायक (नगर – रक्षक), (12) पौर (कोतवाल), ( 13 ) व्यावहारिक (प्रधान न्यायाधीश), (14) कार्मान्तिक ( कारखानों का अध्यक्ष), (15) मन्त्रिपरिषद् अध्यक्ष, ( 16 ) दण्डपाल (पुलिस का अध्यक्ष ), ( 17 ) दुर्गपाल, (18) अन्तपाल ( सीमाओं का रक्षक ) । 

प्रान्तीय शासन : विशाल साम्राज्य होने के कारण शासन की सुविधा के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने समस्त साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभक्त कर दिया था। मगध के निकटवर्ती प्रदेशों पर स्वयं चन्द्रगुप्त शासन करता था किन्तु दूर प्रान्तों के शासन कार्य का भार साधारणतः राजवंश के राजकुमारों के हाथों में निहित था और कहीं-कहीं योग्य एवं अनुभवी व्यक्ति भी इस महत्वपूर्ण पद पर आसीन किये जाते थे। ये संसद (प्रतिनिधि) | कहलाते थे। छोटे प्रान्तों व जिले के शासकों को ‘राजुक’ या ‘राष्ट्रीय’ कहते थे। 

स्थानीय शासन : इसके अन्तर्गत ग्राम और नगर का शासन आता था। ग्राम का शासन – ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। इसका शासक ग्रामिक कहलाता था । सम्भवतः ग्रामीण द्वारा उसका चुनाव होता था। उसकी मदद के लिए एक ग्राम सभा होती थी । इसी के द्वारा सड़क, पुल, पोखर तथा अतिथिशालाओं का निर्माण होता था। अर्थशास्त्र के ‘अनुसार, ‘ग्रामिक’ के ऊपर ‘गोप’ (दस गाँव का स्वामी) और उसके ऊपर ‘स्थानिक’ (जनपद के 1/4 के बराबर) होता था । 

नगर का शासन : मेगस्थनीज के अनुसार, पाटलिपुत्र की शासन व्यवस्था अद्वितीय थी- 

1. शिल्प कला समिति : यह समिति औद्योगिक कलाओं की देखरेख करती थी । यह कलाकारों व मिस्त्रियों का पारिश्रमिक तय करती थी । 

2. वैदेशिक समिति : यह समिति विदेशियों के आवागमन, उनके निवास स्थान और औषधि आदि का प्रबन्ध करती थी । 

3. जनसंख्या समिति : यह जन्म-मरण का हिसाब रखती थी। इससे जनगणना और कर लगाने में सुविधा हो जाती थी । 

4. वाणिज्य-व्यवसाय समिति : यह समिति वस्तुओं के विक्रय का प्रबन्ध करती, झूठे तौल व माप पर नियंत्रण रखती तथा व्यापार पर नियंत्रण रखती थी। 

5. वस्तु निरीक्षक समिति : उद्योगपतियों के उत्पादन पर निरीक्षण करना तथा मिलावट को रोकना इस समिति का कार्य था। 

6. कर समिति : यह समिति बिक्री की वस्तुओं पर कर लगाती थी । 

सैन्य संगठन : मेगस्थनीज के कथनानुसार, चन्द्रगुप्त की सेना में 60 हजार से अधिक पदाति सेना थी, 30 हजार अश्वारोही सेना, 9 हजार गज सेना तथा 8 हजार रथ सेना थी। 5 समितियाँ इसकी देखरेख करती थीं। नौ सेना, पदाति, अश्व, रथ, गज का प्रबन्ध अलग-अलग समितियाँ करती थीं। सैनिकों का वेतन इतना था कि वे सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते थे। युद्ध काल में सैनिकों को कठिन परिश्रम करना पड़ता था, परन्तु अवकाश के समय वे इच्छानुसार मनोरंजन कर सकते थे। 

गुप्तचर और पुलिस विभाग : राज्य की आंतरिक शान्ति के लिए पुलिस का संगठन था। पुलिस विभाग के कर्मचारी ‘रक्षनि’ कहलाते थे। गुप्तचरों के दो भेद थे- 1. संस्थाक, 2. संचारा। संस्थाक गुप्तचर एक स्थान पर रहकर कार्य करते थे । नारी गुप्तचर भिक्षुकी, परिव्राजिका, वृषली (गणिका) नामों से जाने जाते थे। 

न्याय विधान : मेगस्थनीज ओर कौटिल्य दोनों ने चन्द्रगुप्त की न्याय व्यवस्था और कठोर दण्डनीति की प्रशंसा की है। व्यभिचारी, चोर, बेईमान और दोषी व्यक्तियों को अंग-भंग या मृत्यु दण्ड दिया जाता था। अपराधियों से अपराध स्वीकार कराने के लिए पुलिस विभाग अनेक कष्टदायक साधन अपनाता था। सम्राट सबसे बड़ा न्यायाधीश था। नगरों के न्यायाधीश ‘व्यावहारिक महामात्र’ और जनपदों के ‘राजुक’ कहलाते थे। दीवानी की अदालतें धर्मस्थीय तथा फौजदारी की कष्टशोधन कहलाती थीं। गाँव के साधारण झगड़ों का निर्णय गाँव का प्रधान वृद्धजनों की सहायता से करता था। 

आय के साधन : गाँवों से धन प्राप्त करने के दो साधन थे—भाग तथा बलि। भाग भूमि का 1/6 भाग था । बलि कर अलग से वसूल होता था । भूमि- कर अधिकारी अग्रम कहलाता था। व्यापारियों से व्यापार कर लिया जाता था। राज्य की ओर से सिंचाई के लिए नहरों का प्रबन्ध किया गया था। कृषकों से सिंचाई कर लिया जाता था। उसने सौराष्ट्र में सुदर्शन झील बनवाई। जुर्माना से भी राजा को बहुत आय होती थी। इसके अतिरिक्त जन्म- मरण कर भी नगरों में वसूल किया जाता था। 

लोकहितकारी कार्य 

(1) सड़कें – चन्द्रगुप्त मौर्य ने सड़कों की उचित व्यवस्था की। उसने नई सड़कें बनवाई और पुरानी सड़कों की मरम्मत करवाई। सड़कों के दोनों ओर वृक्ष लगवाये और कुएँ भी खुदवाये। 

(2) औषधालय : जनता के स्वास्थ्य और स्वच्छता की ओर चन्द्रगुप्त ने ध्यान दिया। उसने गरीबों की निःशुल्क औषधियाँ प्रदान कीं। उसने अनेक औषधालय खोले । 

(3) शिक्षा : उसने अनेक शिक्षण संस्थाएँ भी खोली थीं । सरकार की ओर से शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक सहायता दी जाती थी। 


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