प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के चरित्र एवं उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई० पू० में नौर्य वंश के क्षत्रीय कुल में हुआ था। उसके पिता के नाम का पता नहीं है परन्तु वह मौर्यो का प्रधान था, जो एक शक्तिशाली राजा द्वारा मार डाला गया। वह शक्तिशाली राजा शायद नंद ही था। उसके पिता की मृत्यु के बाद उसकी माँ अबला बन अपने एक संबंधी के साथ भागकर पाटलिपुत्र में रहने लगी थी । यहीं पर चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि उसका लालन-पालन एक ग्वाले के द्वारा किया गया था। इसके बाद एक शिकारी ने भी उसका पालन-पोषण किया। इस तरह से देखा जाता है कि चन्द्रगुप्त का बचपन मयूरपालकों, चरवाहों और शिकारियों के मध्य व्यतीत हुआ था। गुलाब तो काँटों के बीच में मिलता है । अतः चन्द्रगुप्त का बचपन भी कष्टों के बीच बीता था। परन्तु अपनी योग्यता, प्रतिभा तथा अध्यवसाय के बल पर वह बहुत थोड़े ही समय में चमक गया। जब उसका बचपन समाप्त हुआ तो वह सर्वप्रथम नन्द राजा की सेना में भर्ती हो गया। अपनी योग्यता से कुछ दिनों के बाद वह मगध की सेना का सेनापति बन गया।
नंद वंश के विनाश की प्रतिज्ञा : सेनापति बनने के बाद चन्द्रगुप्त की मान-मर्यादा दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। वह समूचे राज्य में बड़े आदर एवं श्रद्धा की नजर से देखा जाने लगा। इससे नंदराज धनानंद के हृदय में ईर्ष्या की अग्नि भभकने लगी । यह हमेशा उससे भयभीत एवं सशंकित रहने लगा। अंत में उसने चन्द्रगुप्त को मार डालने का निश्चय कर लिया। इसी विचार से प्रेरित होकर उसने उसको मार डालने के लिए एक षडयन्त्र भी रखा। परन्तु इससे वह विफल हो गया। अंत में चन्द्रगुप्त ने मगध छोड़ देना ही उचित समझा। अब वह इधर उधर एक बनजारे की भांति भटकने लगा। इसी परिस्थिति में उसने तहेदिल से नंदवंश का विनाश करने की प्रतिज्ञा की। अब वह अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ वर्षों तक साधनों को जुटानें में व्यस्त रहा, परन्तु उसको इस कार्य में भरपूर सफलता नहीं मिली। अंत में वह अपने इस उद्देश्य की पूर्ति की खोज में इधर-उधर भटकने लगा।
चाणक्य से मित्रता : नंद वंश को नष्ट करने में चन्द्रगुप्त को चाण्क्य से सबसे अधिक मदद मिली। चाणक्य का गोत्र नीच था। इसलिए वह कुटिल कौटिल्य कहा जाता है। उसका जन्म तक्षशिला में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसका नाम विष्णुदत्त भी था। वह कुरुप था, लेकिन बहुत बड़ा विद्वान तथा बुद्धिमान था। उसने तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी थी। अतः वह राजनीति का प्रकाण्ड पंडित था। वह पश्चिमी तथा उत्तरी भारत की राजनीतिक कमजोरियों से पूर्ण परिचित था । यह उसकी हार्दिक इच्छा थी कि राज्य को दुर्बल बनाने वाले तत्वों और छोटे-छोटे राज्यों को नष्ट कर एक सबल राज्य की स्थापना की जाय । अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वह मगध के राजा नंद के पास मदद के लिए गया, नंद राजा ने उसका स्वागत के स्थान पर अपमान किया। चाणक्य उस अपमान की घूँट तो पी लिया । परन्तु वह उसको पचा नहीं सका। उसने भी तहेदिल से नंदवंश का विनाश कर डालने की प्रतिज्ञा कर ली। अब क्या था, चन्द्रगुप्त को अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए बहुत बड़ा सहयोगी मिल गया।
अब चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य एक ही राह के पथिक थे। चाणक्य भी मगध को छोड़कर नंदवंश के नाश के लिए इधर-उधर भटक कर शक्ति अर्जन करने में लगा हुआ तथा चन्द्रगुप्त मौर्य भी इसी टोह में इधर-उधर घूम रहा था। दोनों की मुलाकात एकाएक विन्ध्याचल पर्वत के निकट हो गई। अब दोनों नदवंश के विनाश के लिए साधनों को तहेदिल से जुटाने में लग गये। यह दोनों के लिए सौभाग्य की ही बात थी कि एक दिन चाणक्य को गड़ा हुआ धन का खजाना मिल गया। अब उनकी आर्थिक समस्या हल हो गयी। उसी धन से दोनों ने एक बहुत बड़ी सेना का निर्माण किया ।
मगध विजय का प्रथम अभियान : दोनों ने मिलकर एक विशाल सेना के साथ मगध पर धावा बोला दिया। परन्तु नंद राजा की प्रबल शक्ति के सामने दोनों को अपनी पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस पराजय से दोनों को काफी क्षति हुई। दोनों कैदी भी बना लिए गए। अब दोनों के प्राण संकट में थे। नंद राजा ने दोनों को प्राण-दण्ड की सजा दे दी। प्राण की रक्षा के लिए दोनों अब छटपटाने लगे। मौका पाकर दोनों वहाँ के भाग निकले। ऐसा लग रहा था कि दोनों का स्वप्न चूर-चूर हो जायेगा। परन्तु दोनों ने धैर्य तथा साहस से काम लिया।
उत्तर पथ की ओर प्रस्थान : अपने प्रथम प्रयास में ही असफलता से घबड़ा कर दोनों हाथ पर हाथ धर कर बैठे नहीं रहे। अतः वह नंद वंश के विनाश के लिए प्रयत्न करते रहे। दोनों को अब भली-भाँति पता चल गया कि किसी भी राज्य के केन्द्र पर आक्रमण नहीं करना चाहिए। क्योंकि केन्द्र शक्तिशाली होता है। इसलिए उसके सीमान्त प्रदेश पर हमला करना चाहिए। सीमान्त प्रदेश सभी राज्य से कमजोर हुआ करता है। उसका ऐसा सोचना सत्यता के बहुत निकट था। इसलिए दोनों ने मगध के केन्द्र पर आक्रमण कर अपनी राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति को भुलाकर उत्तर पथ की ओर प्रस्थान किया और वहाँ पर भी भारी तैयारी करने में लग गये। इस क्षेत्र का चाणक्य को पहले से ही ज्ञान प्राप्त था । अतः ऐसा प्रतीत हो रहा थ कि अब अवश्य सफलता उसके हाथ लगेगी।
सिकन्दर से भेंट : इन्हीं दिनों पंजाब पर सिकन्दर का आक्रमण खूब जोर-शोर से हो रहा था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य दोनों में सिकन्दर का सामना करने की शक्ति नहीं थी । इसलिए दोनों ने सिकन्दर से टकराना उचित नहीं समझा बल्कि सिकन्दर से मिलकर नन्द साम्राज्य पर चढ़ाई करने की बात सोची। इसी भावना से प्रेरिक होकर वह सिकन्दर की भयंकर मार से मगध साम्राज्य तितर-बितर हो जायेगा। तब सुन्दर मौका देखकर मगध साम्राज्य पर अधिकार कर लिया जायेगा। फलतः चन्द्रगुप्त सिकन्दर से जाकर बातचीत करने लगा। परन्तु चन्द्रगुप्त की शान भरी बातों को सुनकर वह नाखुश हो गया और सिकटा चन्द्रगुप्त पर उतारू हो गया। यहाँ पर चन्द्रगुप्त के के भाग्य न उसका साथ दिया और वह अपनी जान बचाकर किसी तरह से वहाँ से भाग निकला। यहाँ पर चन्द्रगुप् को दोस्ती के बदले दुश्मनी मिली। अब चन्द्रगुप्त सिकन्दर से भी इसका बदला लेने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो गया।
विजय के पथ पर : पंजाब को रौंदकर सिकन्दर अपने देश को वापस लौट गया। उसके लौटते ही चन्द्रगुप्त और चाणक्य पंजाब जाकर वहाँ की जनता को यूनानी सत्ता के विरुद्ध भड़काने लगे। उनकी बातों का उन पर इतना असर पड़ा कि वे लोग चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में यूनानी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर बैठे। यहाँ तक कि पंजाब के कुछ नरेशों ने भी चंद्रगुप्त हो तहेदिल से साथ दिया। फलतः पंजाब से यूनानी सत्ता समाप्त हो गयी और पंजाब को हस्तगत करने के बाद अब चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक बहुत सेना के साथ मगध की ओर कूच किया । चाणक्य भी चन्द्रगुप्त के साथ था। मगध पर चढ़ाई हुई और भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में मगध का राजा मारा गया। अब चन्द्रगुप्त मगध का अधिपति हो गया । मगध की विजय ने चन्द्रगुप्त को धन-मान्य से परिपूर्ण कर दिया और एक विशाल सेना भी उसको मिल गई। अब चाणक्य और चन्द्रगुप्त की इच्छा पूर्ति हो गयी। सन् 321 ई० पू० में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध साम्राज्य की राजगद्दी पर बैठा दिया। चन्द्रगुप्त का सैन्य दल बेजोड़ हो गया। उसी के द्वारा उसने भारत के अन्य भागों पर भी विजय करना शुरू कर दिया। उसने थोड़े ही दिनों में बहुत से प्रदेशों को जीत लिया।
कश्मीर विजय : मगध को पददलित करने के बाद चन्द्रगुप्त को काश्मीर पर आक्रमण करना पड़ा क्योंकि वहाँ का राजा मलयकेतु उसकी विजय पथ का एक बहुत बड़ा रोड़ा सिद्ध हो गया था। इसलिए उसको परास्त करना चन्द्रगुप्त के लिए आवश्यक था। लेकिन मलयकेतु ने नंद राजा के मंत्री राक्षस और अन्य पाँच सामंतों की मदद से चन्द्रगुप्त को मगध से खदेड़ देने के लिए विद्रोह का झण्डा फहराया दिया था। परन्तु चाणक्य की कूटनीति के सम्मुख मलयकेतु की एक भी नहीं चली। उसने बात की बात में मलयकेतु के समर्थकों में फूट डाल दी। इस कूट से मलयकेतु की शक्ति बहुत कम हो गयी। मलयकेतु चन्द्रगुप्त के सम्मुख विवश था। अंत में मलयकेतु ने चन्द्रगुप्त का लोहा मान लिया। इसके बाद काश्मीर पर चन्द्रगुप्त की विजय पताका लहराने लगी।
सौराष्ट्र और मालवा पर विजय : उत्तरी भारत पर विजय पताका फहराने के बाद अब चन्द्रगुप्त का ध्यान दक्षिणी भारत की ओर गया। उसने एक विशाल सेना लेकर सौराष्ट्र और मालवा को जीत लिया। इस तरह से दक्षिणी भारत में भी चन्द्रगुप्त का साम्राज्य फैल गया। अब तक चन्द्रगुप्त का स्वप्न पूरा हो गया था कि इसी सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस से चन्द्रगुप्त की भिड़न्त हो गयी ।
सेल्यूकस के साथ भिड़न्त : चन्द्रगुप्त की अंतिम भिड़न्त सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस के साथ हुई। सेल्यूकस सिकन्दर जीते हुए सभी प्रदेशों का अधिपति था। जब चन्द्रगुप्त ने उन सभी प्रदेशे पर अधिकार जमा लिया तो सेल्यूकस से रहा नहीं गया और वह एक बहुत बड़ी सेना के साथ चन्द्रगुप्त से जा भिड़ा । घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध मे सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त से संधि कर ली। इस संधि के अनुसार सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की काबूल, कंधार, हैरात, और बलुचिस्तान, आदि चार प्रांत दिये। इसके अतिरिक्त सेल्यूकस ने अपनी प्यारी पुत्री हैलना के साथ चन्द्रगुप्त की शादी कर दी। बदले में चन्द्रगुप्त ने भी अपने ससुर सेल्यूकस को उपहार में खुश होकर 505 हाथी दे दिये। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को अपनी पुत्री के साथ ही प्रसिद्ध यूनानी राजदूत तथा लेखक मेगास्थनीज को भी दे दिया। फलतः मगध साम्राज्य में मेगास्थनीज का पर्दापण हुआ, जिसमें मगध साम्राज्य को काफी लाभ हुआ।
चन्द्रगुप्त का साम्राज्य विस्तार : चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार लगभग सम्पूर्ण भारत में किया। इस तरह राज्य पश्चिमी में काबूल, कंधार, हैरात और हिन्दूकरा पर्वत से लेकर पूरब में कामरूप (आसाम) तक और उत्तर में काश्मीर से लेकर दक्षिण मैसूर तक फैला हुआ था।