उत्तर वैदिक सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए। 

1100 ई. पूर्व में ऋग्वैदिक काल की सभ्यता समाप्त हो गई। इसके बाद की सभ्यता को ‘उत्तर वैदिक काल की सभ्यता’ के नाम से पुकारा जाता है। अधिकांश इतिहासकारों ने इस सभ्यता का समय लगभग 1000 ई. पूर्व से 600 ई. पूर्व माना है। यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद आदि ग्रन्थों से हमें उत्तर वैदिक काल की सभ्यता के बारे में जानकारी मिलती है। उत्तर वैदिक काल में आर्यों के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन में काफी परिवर्तन हुआ। यह ऋग्वेदिक सभ्यता से काफी भिन्न थी ।

आर्यों का भौगोलिक एवं राजनीतिक विस्तार : उत्तर वैदिक काल में आर्यों ने पूर्व तथा दक्षिण की ओर विस्तार करना शुरू कर दिया था। गंगा-यमुना के दोआब का क्षेत्र आर्यों की सभ्यता का केन्द्रीय स्थान बन गया था। मध्य देशं में कुरु तथा पांचाल आर्यों के दो प्रमुख राज्य थे। पूर्व में कौशल, काशी और विदेह आर्यों के नए केन्द्र बन चुके थे। उत्तर वैदिक साहित्य में काशी, कौशल, विदेह, मगध, बंग (बंगाल) प्रदेश के राज्यों का उल्लेख किया गया है जिससे ज्ञात होता है कि मगध एवं बंगाल तक सम्पूर्ण उत्तरी भारत के क्षेत्र से आर्य लोग परिचित हो चुके थे। दक्षिण में विन्ध्याचल को पार कर गोदावरी नदी के प्रदेशों में बस गए थे। इस प्रकार आर्य लोग दक्षिण के एक बड़े भू-भाग से परिचित हो गये थे। डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय के अनुसार दक्षिण में विदर्भ तक आर्यों का विस्तार हो चुका था 

सामाजिक जीवन एवं प्रशासनिक व्यवस्था 

उत्तर वैदिक काल के आर्यों के सामाजिक जीवन में बहुत परिवर्त्तन आ गये थे जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं 

1. वर्ण व्यवस्था में जटिलता : उत्तर वैदिक काल की वर्ण-व्यवस्था में अत्यधिक जटिलता आ गयी थी। ऋग्वैदिककालीन वर्ण-व्यवस्था ने अब जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया था। वर्ण-व्यवस्था के निर्णय में व्यवसाय का स्थान जन्म ने ले लिया था। अर्थात् अब जन्म के आधार पर यह तय किया जाता था कि लोग किस वर्ण के हैं। अब ऋग्वैदिक काल की चार जातियों के अलावा दो और जातियाँ बन गयी थीं – एक थी ‘निषाद’ और दूसरी थी ‘व्रात्या-निषाद’। ये लोग शायद भील जाति के थे। तरह-तरह के व्यवसाय पर अब वैश्यों में- लोहार, मोची और बढ़ई आदि की उप-जातियाँ बन गयी थी । फलस्वरूप अन्तर्जातीय विवाह घृणित समझा जाने लगा और जाति-परिवर्तन भी कठिन हो गया। 

2. अस्पृश्यता का प्रादुर्भाव : जाति प्रथा के बन्धन के अधिक जटिल हो जाने के फलस्वरूप लोग रक्त की पवित्रता तथा शुद्धता पर अधिक ध्यान देने लगे । छुआ-छूत की भावना लोगों में जागृत हो गयी। उच्च वर्ग के लोग निम्न वर्ग तथा शुद्रों के साथ खान-पान तथा रहन-सहन नहीं करते थे। वे लोग उन्हें अस्पृश्य समझते थे। 

3. आश्रम व्यवस्था की दृढ़ता : उत्तर वैदिक काल की आर्थिक व्यवस्था में काफी दृढ़ता आ गयी थी । ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम में सुदृढ़ता आ गयी थी। उच्च वर्ण वालों को आवश्यक रूप से सबों को पालन करना पड़ता था, लेकिन निम्न वर्ण वालों के लिए कोई बन्धन नहीं था । 

4. नगरों का प्रादुर्भाव : ऋग्वेद के आर्य मुख्य रूप से गाँवों में ही निवास करते थे, नगरों में नहीं। नगर शब्द का तो कही वर्णन भी नहीं मिलता है। परन्तु उत्तर वैदिक काल के आर्य तो मुख्य रूप से नगर में ही निवास करते थे। गंगा-यमुना के किनारों पर बड़े-बड़े नगरों का निर्माण कराया गया था । अतः इस युग में यही सब नगर राजनैतिक तथा सामाजिक जीवन का केन्द्र बन गये थे। 

5. आहार-विहार : उत्तर वैदिक काल के आर्यों के आहार-विहार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। लेकिन लोगों के भोजन में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य हुआ था। मांस भक्षण और सुरापान घृणित समझा जाने लगा था । अथर्ववेद में तो इसका व्यवहार महापाप कहा गया है। खासकर ब्राह्मण लोग तो इनको छूते तक नहीं थे । अहिंसा के सिद्धान्त का इस काल में बीजारोपण हो गया था। गो-हत्या का निषेध शुरू हो गया था। दूध, दही तथा घी के साथ कई तरह के अन्नों को मिलाकर कई प्रकार के खाने योग्य चीजें बनायी जाती थीं। 

6. औरतों की दशा में परिवर्तन : उत्तर- वैदिक काल में औरतों की दशा पहले की तरह अच्छी नहीं थी, क्योंकि धनी परिवारों में बहु-विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। फलत: औरतों का जीवन दुःखमय और कलहपूर्ण हो गया था । कन्या के जन्म पर लोग दुःखी होने लग गये थे। इसके बावजूद औरतों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। गार्गी और मैत्रेयी आदि कन्याओं का नाम विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय है क्योकि वे विदुषी कन्याएँ थीं जो वैज्ञानिक वाद-विवादो में भी सफल रूप से भाग लिया करती थीं। धार्मिक स्थानों में औरतें स्वतंत्र रूप से आ-जा सकती थीं लेकिन सभा आदि सार्वजनिक स्थानों में आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं थी। बाल-विवाह होने लग गया था और औरतों का आचरण तथा आदर्श भी नीचे गिरने लग गया था । अतः बहु-विवाह की पद्धति ने स्त्रियों के वैवाहिक जीवन को झकझोर दिया था। 

7. विवाह प्रथा : उत्तर वैदिक काल में औरतों की दशा पहले से अधिक बिगड़ गयी थी क्योंकि इस काल में विवाह सम्बन्धी नियम अधिक कठोर हो गये थे। दहेज लेने और देने की प्रथा थी । विवाह को आध्यात्मिक महत्व प्राप्त था इसमें स्वयं देवता आकर भाग लेते थे ऐसा लोगों का विश्वास था । भिन्न गोत्र में विवाह होना ही अधिक अच्छा समझा जाता था। विधवा विवाह भी होता था । विधवा विवाह के साथ ही साथ बहु-विवाह भी होता था क्योंकि मनु की दस पत्नियाँ थी। उच्च वर्ण की कन्या का विवाह उच्च-वर्ण के लड़के के साथ ही होता था, निम्न वर्ण के लड़के से नहीं – कन्याओं का विक्रय भी हुआ करता था। उस समय सौतों के आपसी झगड़े भी खूब हुआ करते थे। ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में लिखा हुआ है कि “सौत को उड़ा दो, मेरे पति को केवल मेरा ही बना दो…. मैं उस सौत का नाम भी नहीं लेती, सौत को दूर भगा दो ।” 

आर्थिक जीवन 

(1) भूमिपतियों का प्रादुर्भाव : ऋग्वैदिक काल में भूमिपतियों का कहीं नामोनिशान भी नहीं था लेकिन अब बड़े – बड़े भूमिपतियों का प्रादुर्भाव होने लग गया था। गाँव के मालिक भूमिपति ही हुआ करते थे जिनका गाँव के लोगों पर काफी प्रभाव रहता था । 

(2) वाणिज्य तथा व्यापार में उन्नति : उत्तर- वैदिक काल में व्यापार तथा वाणिज्य में अत्यधिक उन्नति हो गयी थी क्योंकि वे लोग उपजाऊ मैदान में निवास करने लगे थे। इन दिनों व्यापारियों का एक अलग वर्ग ही था । धनी व्यापारी श्रेष्ठिन के नाम से पुकारे जाते थे। इनका आन्तरिक व्यापार किरातों के साथ होता था। ये लोग कपड़े तथा चमड़ा देते थे और बदले में दवाई के लिए जड़ी-बुटियाँ लेते थे। नावों के द्वारा वे लोग सामुद्रिक व्यापार भी करते थे। मुद्राओं का प्रचलन हो गया था । मुद्राओं में निष्क, शतमान और कृष्णाल आदि अधिक प्रयोग में आते थे। 

(3) धातु ज्ञान में वृद्धि : उत्तर-वैदिक काल के आर्यों को नयी-नयी धातुओं की जानकारी हो गयी थी। ऋग्वैदिक आर्यो को केवल सोना और अयस्क की ही जानकारी थी परन्तु इस काल के लोगों को चाँदी, टीन और सीसा की भी जानकारी हो गयी थी। लोगों को दो तरह के अयस्क का ज्ञान प्राप्त था। एक तरह का अयस्क लोहा था और दूसरे तरह का ताम्बा । 

राजनीतिक जीवन 

1. विशाल साम्राज्य की स्थापना : उत्तर वैदिक काल के आर्यों का राजनैतिक जीवन अत्यधिक उत्कृष्ट था। उस काल में राजस्व का सिद्धान्त पैतृक था। इसका सबसे उत्तम प्रमाण सुज्जय है जिन्होंने 10 पीढ़ी तक शासन किया था। ऋग्वैदिक काल के आर्यों के छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर बड़े-बड़े साम्राज्यों की स्थापना हो चुकी थी। कुरुओं के प्रसिद्ध राजा परीक्षित का राजत्वकाल स्वर्णयुग (Golden Age) था जिसमें प्रजा अत्यधिक सुखी सम्पन्न थी। उनका राज्य अन्न के भंडारों से भरा था। उनकी राजधानी हस्तिनापुर में थी । राजा परीक्षित का सबसे बड़ा पुत्र जनमेजय भी एक प्रतापी राजा था। वह अपने विजयों के लिए प्रसिद्ध था। उसकी राजधानी तक्षशिला में थी । इस तरह से यह देखा जाता है कि कुरुवंशी राजाओं ने हस्तिनापुर में बहुत दिनों तक शासन किया और गुणों से देश को प्रभावित करते रहे, लेकिन काल-क्रम से गंगा की बाढ़ के कारण उनकी राजधानी नष्ट हो गयी। इसके बाद कुरुओं के राजाओं ने प्रसिद्ध कोशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। 

कुरुओं के पतन के बाद राजसत्ता का केन्द्र विदेह (उत्तर बिहार) बन गया । विदेह के सबसे प्रसिद्ध सम्राट राजा जनक हुए। इनके काल में उत्तर वैदिक आर्यों के राजनैतिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया था। उस युग में राजा की शक्तियों में काफी वृद्धि हुई थीं। उसकी शक्तियों की झलक सर्वत्र दिखाई पड़ती थी । 

2. सम्राट : उस काल में सम्राट की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी । सम्राट चक्रवर्ती भी होने लगे थे। सम्राट अपने साम्राज्य के विस्तार की खुशी में अश्वमेघ और राजसूय यज्ञ भी करते थे। सम्राटों का राज्याभिषेक खूब धूम-धाम तथा बहुत ही सुन्दर ढंग से होने लगा था। 

सम्राट वंशानुगत होता था । सम्राट की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ट पुत्र ही सम्राट बनता था, लेकिन गद्दी पर विराजने के पहले उसे अपनी प्यारी प्रजा की अनुमति प्राप्त कर लेनी पड़ती थी। सम्राट को जनता के नियंत्रण में ही रहना पड़ता था। अतः उस काल के सम्राट स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश नहीं होते थे। यहाँ तक कि सम्राट को प्रजा निर्वाचित भी कर सकती थी। फिर सम्राट अकेले राज्य नहीं करता था । उसकी सहायता के लिए सभा तथा समिति होती थी जिनको लोग दैव निर्मित संस्था मानते थे और सम्राट भी उसके परामर्श के बिना कोई काम करने का साहस नहीं करते थे। फिर सम्राट को धर्म के सामने भी नतमस्तक होना पड़ता था। धर्म के प्रधान ब्राह्मण को सम्राट् राजसिंहासन से उतर कर प्रणाम किया करते थे। सम्राट पुरोहितों के साथ धोखा नहीं करते थे। ब्राह्मण और राजनियमों की रक्षा करना ही सम्राट का परम कर्त्तव्य था। इस तरह उस काल में सम्राट की शक्ति में बहुत वृद्धि हो गयी थीं। लेकिन साथ ही साथ उनकी शक्ति प्रजा की शक्ति द्वारा सीमित हो गयी थी। इस प्रकार उस काल में सीमित राजतंत्र (Limited. Monarchy) की स्थापना हो गयी थी । 

3. न्यायव्यवस्था में सुधार : ऋग्वैदिक काल की न्याय व्यवस्था से उत्तर वैदिक काल की न्याय व्यवस्था अत्यधिक सुदृढ़ और व्यापक थी। पहले से बहुत अधिक राज न्याय के कार्यों में भाग लेने लगे थे लेकिन अधिकतर वह न्याय के कार्य कर्मचारियों के में सौंप दिया करता था। ग्रामों की लड़ाई का निर्णय ग्रामवादिन करता था। ब्राह्मणों की हत्या बहुत बड़ा पाप समझा जाता था । उनके हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाती थी लेकिन उस समय किसी को प्राण दण्ड नहीं दिया जाता था । जल तथा अग्नि परीक्षा भी ली जाती थी। फौजीदारी के मामलों में प्रतिहिंसा की भावना प्रचलित थी। दीवानी के मुकदमें का अधिकतर पंच द्वारा निर्णय किया जाता था लेकिन किसी-किसी मुकदमें को राजा स्वयं सभा की मदद से निर्णय कर लिया करता था। सोना की चोरी और सुरापान को अपराध समझा जाता था। राजद्रोह के लिए केवल प्राण- दण्ड दिया जाता था। 

धार्मिक जीवन 

उत्तर वैदिक काल का धर्म बड़ा ही आडम्बरमय और जटिल था। उस काल के धार्मिक जीवन को अच्छे ढंग से जानने के लिए निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान देना होगा:- 

(1) देवता : ऋग्वेद के देवता उत्तर वैदिक काल की सभ्यता में भी पूज्य थे। परन्तु इस काल में कुछ देवताओं का महत्व बढ़ता जा रहा था और कुछ का घटता जा रहा था और उनका स्थान नये-नये देवता ग्रहण करते जा रहे थे। देवताओं में पहले ‘प्रजापति’ का स्थान सबसे ऊँचा था लेकिन अब उनकी महत्ता एकदम घट गयी थी। इस काल में रुद्र का स्थान और महत्व अधिक बढ़ गया था। जो महादेव कहे जाने लगे। बाद में इनको पशुपति भी कहा जाने लगा। इस काल में रुद्र के साथ शिव का भी स्थान और महत्व बढ़ गया। आगे चलकर विष्णु को लोग वासुदेव भी कहने लगे। रुद्र और विष्णु की आराधना सर्वत्र होने लगी थी। 

(2) यज्ञ : इस काल में यज्ञों और ब्राह्मणों के स्थान और महत्व में अत्यधिक वृद्धि हुई थी। इसलिए इस युग को यज्ञों का काल कहा जाता है। यज्ञों की संख्या में भी वृद्धि हो गयी थी। लेकिन यज्ञों की सरलता का स्थान जटिलता ने ले रखा था। पहले गृहस्थ स्वयं यज्ञ कर सकते थे लेकिन अब यज्ञ कराने के लिए याज्ञिको की शरण में जाना पड़ता था। अब यज्ञ में फल और दूध से काम नहीं चलता था। अब यज्ञ में सोम और पशु की बलि देना आवश्यक हो गया था। एक-एक यज्ञ तो साल-साल भर तक चलता रहता था। अब यज्ञ में अधिक धन भी खर्च होता था। अश्वमेध, वाजपेय और राजसूय आदि यज्ञ तो केवल राजा लोग ही कर सकते थे। साधारण जनता को तो इन यज्ञों को कराने की सामर्थ्य ही नहीं थी। उत्तरवैदिक काल में यज्ञ कराने वाले पुरोहितों की संख्या बढ़कर 17 हो गयी थी। 16. पुरोहितों का प्रधान 17वां ऋत्विज कहलाता था । 

(3) दार्शनिक विवेचना : ब्राह्मणों का दूसरा वर्ग अत्यधिक चिन्तनशील बन गया था। इस वर्ग के लोग दार्शनिक चिन्तन में ही व्यस्त रहा करते थे। उस युग के दार्शनिक विवेचन के प्रधान तथा सर्वमान्य ग्रन्थ आरण्यक और उपनिषद् हैं। इसी युग में आत्मा और परमात्मा के संबंध पर विवेचन किया गया था जो आज तक अकाट्य है। इतना ही नहीं, पूर्वजन्म के सिद्धांत का अनुमोदन भी इसी युग में किया गया था साथ ही साथ यह भी उसी युग की देन है कि मानव का आगामी जन्म उसके कर्मों पर निर्भर करता है। बुरा करनेवाला बुरी योनि में और अच्छा कार्य करने वाला अच्छी योनि में जन्म लेता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था। पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, न्याय, योग और वैशेषिक अर्थात् षड्दर्शन की रचना भी इसी काल की देन है। याग्यवल्क्य इस काल का एक अत्यधिक ख्यातिप्राप्त दार्शनिक था। 


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