प्रश्न- अशोक की जीवनी एवं उपलब्धियों का वर्णन कीजिए|
बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक शासक बना। अशोक का शासनकाल भारतीय इतिहास का अत्यन्त गौरवमयी काल था क्योंकि उस समय में अशोक ने अपनी साधारण क्षमताओं से भारत को सर्वोन्मुखी उन्नति प्रदान की। यही कारण है कि अशोक को न केवल भारत के वरन् विश्व के महानतम शासकों में से एक माना जाता है। एच. सी. वेल्स ने लिखा है, “इतिहास के पृष्टों को रंगने वाले सहस्रों राजाओं के नामों के मध्य अशोक का नाम सर्वोपरि नक्षत्र के समान दैदीप्यमान है। ”
अशोक के शासन-प्रबंध के सिद्धांतः सम्राट अशोक एक आदर्श व्यक्ति था और नैतिकता उसके जीवन की अनुशासिका थी। उसने आवश्यकतानुसार अपने शासन प्रबंध में परिवर्तन किया। वह कलिंग युद्ध के पहले साम्राज्यवादी नीति का पुजारी था। परन्तु इस युद्ध के बाद से वह बौद्ध धर्म का पुजारी हो गया। वह अपनी प्रजा को अपना पुत्र समझता था और उसके कल्याण के लिए हमेशा तत्पर रहता था। द्वितीय कलिंग शिला के अनुसार सम्राट अशोक का कथन था कि “सभी मनुष्य मेरी संतान है। जिस प्रकार मैं चाहता हूँ कि मेरी संतति इस लोक तथा परलोक में सब प्रकार समुन्द्र तथा सुख भोगे, ठीक उसी प्रकार मैं अपनी प्रजा की सुख समृद्धि की कामना करता हूँ।”
चौथे स्तम्भ लेख के अनुसार अशोक के निम्नलिखित कथन है : जिस प्रकार मनुष्य अपनी संतान को निपुण धाय के हाथ में सौंपकर निश्चित हो जाता है और विचारता है कि यह धाय मेरे बालक को सुख देने की यथाशक्ति चेष्टा करेगी, उसी प्रकार प्रजा के हित और सुख के संपादन के लिए मैंने रज्जुक (राजुक) नाम के कर्मचारी नियुक्त किये हैं।
चतुर्थ स्तम्भ लेख में अशोक ने घोषित किया था कि “मैंने यह प्रबंध किया है कि सब समय में चाहे मैं भोजन करता रहूँ, चाहे रनिवास में रहूँ, चाहे शयनागर में, चाहे उद्यान में, सर्वत्र मेरे प्रतिवेदक प्रजा के कार्यों की मुझे सूचना दे। मैं प्रजा का कार्य सर्वत्र करूँगा।’
यों तो मौर्य शासन-प्रणाली पहले से ही सुसंगठित और सुव्यवस्थित थी परन्तु अशोक ने अपने नैतिक तथा लोक मंगलकारी आदर्शों और सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के लिए उसमें आवश्यक संशोधन और परिवर्तन किये जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं:
(1) सामंतशाही शासन : अशोक के 13वें शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि उसके साम्राज्य के अंतर्गत कुछ ऐसे भी प्रादेशिक क्षेत्र थे जो अप्रत्यक्ष रूप से अशोक की अधीनता को स्वीकार करते थे लेकिन साथ ही साथ उन्हें स्वायत्त शासन का भी अधिकार प्राप्त था। ऐसे प्रदेशों के शासक सामंत कहलाते थे। अतः उसके साम्राज्य में सामंतों का भी शासन था। ऐसे निम्नलिखित राज्य प्रमुख थे: भोज, आंध्र, यवन, नाभक, नाभपन्ति, पारिन्द्र और कम्बोज आदि ।
(2) मंत्री परिषद् : सम्राट अशोक के तृतीय और छठे शिलालेख में परिषद का वर्णन मिलता है। डॉ॰ जयसवाल के शब्दों में परिषद का दूसरा नाम अर्थशास्त्र में परिषद् है। इससे यह स्पष्ट रूप से जाहिर होता है कि अपने बाप-दादों की भांति अशोक भी अपने शासन को सुचारु ढंग से संचालित करने के लिए मंत्रियों की राय लिया करता था। अतः सम्राट अकेले शासन नहीं करता था बल्कि इस कार्य में अपने मंत्रियों से सहयोग लिया करता था। उसके मंत्री शासन कार्यों में माहिर तथा नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं में निपुण हुआ करते थे। अशोक की शासन प्रणाली में मंत्रीपरिषद् एक महत्वपूर्ण संस्था थी।
(3) प्रांतीय शासन : शासन की सुविधा के लिए अशोक ने अपने संपूर्ण साम्राज्य को 4 केन्द्रों में बांट दिया गया था। ये केन्द्र निम्नलिखित थे- (i) तक्षशिला केन्द्र (ii) उज्जैन केन्द्र (iii) तीसली केन्द्र और (iv) सुवर्णगिरि केन्द्र | अशोक ने अपने पूर्वजों की प्रांतीय शासन व्यवस्था में कोई महान परिवर्तन नहीं किया। अब भी प्रांतों का शासन राजकुमारों के द्वारा होता। राजा को शासन कार्यों में मदद पहुंचाने के लिए एक उपराज भी होता था। अशोक का भाई तिष्य उपराज के पद पर था। इसके अलावा एक युवराज और अग्रामात्य (प्रधानमंत्री) भी होता था जो सम्राट की मदद किया करता था। अशोक का प्रधानमंत्री राजगुप्त था। कुमारों और आर्य पुत्रों के द्वारा भी सम्राट को मदद मिला करती थी । ये पदाधिकारी दूर-दूर के प्रांतों का शासन चालते थे।
(4) अन्य पदाधिकारी : डॉ. हेम न्द्र राय चौधरी के अनुसार अशोक के शासन प्रबंध के लिए निम्नलिखित 12 प्रकार के पदाधिकारी थे: (i) महामात्र, (ii) राजुक, (iii) रथिक, (iv) प्रादेशिक, (v) युत्त, (vi) पुलिस (vii) प्रतिवेदक, (viii) बत- भूमिका, (ix) लिपिकार, (x) दूत, (xi) आयुक्त और (xii) कारणक इत्यादि।
(5) धर्म महामात्र : अशोक के पूर्वजों के शासन में महामात्र का स्थान नहीं था। धर्म महामात्रों की बहाली सबसे पहले अशोक ने ही की थी। डॉ० स्मिथ ने महामात्रों को निरीक्षक कहा है। यह पदाधिकारी केवल निरीक्षण का ही कार्य नहीं करते थे बल्कि इन लोगों को कुछ नैतिक तथा धार्मिक कार्य भी करना पड़ता था । धर्म महामात्रों का वर्णन पांचवें शिलालेख में किया गया है।
(6) महामात्र : अशोक ने तरह-तरह के कार्यों के लिए तरह-तरह के महामात्रों को बहाल किया था। उदाहरणार्थ : रनिवास के लिए स्त्रियाध्यक्ष महामात्र, नगरों के लिए नगर व्यवहार महामात्र और सीमांत प्रदेशों के लिए अंतिम महामात्र इत्यादि। इन महामात्रों के कार्य तथा अधिकार ठीक मंत्रियों के समान थे। ये सब पदाधिकारी अपने-अपने विभागों के अध्यक्ष भी होते थे। उस नाते इन विभागों की जवाबदेही इन्हीं लोगों के ऊपर रहती थी।
(7) राजुक : महामात्रों के बाद राजुक का स्थान था। इन राजुको को डॉ. स्मिथ ने गवर्नर कहा है लेकिन उसका पद और स्थान कुमारों से नीचा था। अशोक के चौथे स्तम्भ शिलालेख से ज्ञात होता है कि राजुक साम्राज्य के कई लाख प्रजा के ऊपर एक ऑफिसर होता था । उसका प्रधान कार्य जनपदों की रक्षा करना था । राजुक लोग न्यायाधीश का भी कार्य करते थे। भूमि की नाप-जोख का काम भी इन्हीं लोगों को करना पड़ता था। नदियों की देख भाल मुख्य रूप से ये ही लोग किया करते थे। ये लोग शिकार का भी प्रबंध करते थे । राजुक और युक्त नामक पदाधिकारी राजुकों को मदद पहुंचाया करते थे । अतः राजुक को शासन प्रबंध में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।
(8) प्रादेशिक : अशोक के शासन प्रबंध में पदाधिकारी का पद अत्यंत महत्वपूर्ण था | बहुत इतिहासकारों के मतानुसार प्रादेशिक पदाधिकारी स्थानीय गुट तथा सामंत होते थे। लेकिन डॉ० स्मिथ ने उसको जिला का प्रशासन कहा है। दूसरी और कई विद्वानों ने उसको कर वसूल करनेवाले फौजदारी मुकदमों को देखने वाला चोरो का पता लगाने वाला और अध्यक्षों पर नियंत्रण रखने वाला बतलाया है। चाहे कुछ व् हो सासन प्रबंध में इसका भी महत्वपूर्ण स्थान था ।
(9) युत्तः युत्त जिलाकोष का पदाधिकारी होता था। प्रत्येक जिले में एक युत्त की नियुक्ति की गई थी। इस पदाधिकारी का प्रमुख नार्य था राजकीय संपत्ति का निरीक्षण करना, मालगुजारी वसूल करना और आय-व्यय का हिसाब किताब रखना आदि। प्रतिवेदक लोग अशोक को महामात्रों और मंत्रिपरिषद के कार्यों को सूचना दिया करते थे।
(10) नैतिक तथा धार्मिक उन्नति की कोशिश : सम्राट अशोक अपनी प्रजा की भलाई अंतःकरण से चाहता था। वह अपनी प्रजा की केवल भौतिक उन्नति ही नहीं चाहता था बल्कि उनकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का इच्छुक था। अतः उसके सभी कर्मचारी उसकी इच्छा की पूर्ति में मन से लगे रहते थे। अशोक ने अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समाज में प्रचलित अनुष्ठानों, उत्पत्र और समारोहों को बंद करवा दिया जिसमें शराब, मांस और नाच-गाने आदि का खुले तौर से प्रयोग होता था। साथ ही उसने अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए बिहार – यात्राओं को भी बंद करवा दिया और उसके स्थान पर धर्म – यात्राओं को बढ़ावा दिया तथा धर्म-सभाओं की व्यवस्था की गई।
(11) पशु हत्या का निषेध: अशोक ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पशु-हत्या को निषेध करा दिया। पहले राजकीय पाठशाला में प्रतिदिन अनेक पशु-पक्षियों को मारा जाता था। परन्तु अब मांस भक्षण को बंद करा दिया गया। सम्राट अशोक ने स्वयं शिकार खेलना छोड़ दिया। फलतः अनेक पशु-पक्षियों के प्राण बचने लगे।
(12) कैदियों की मुक्तिः सम्राट अशोक अपने राज्यारोहण की प्रत्येक वर्षगांठ पर बहुत से कैदियों को मुक्त कर दिया करता था। इस कार्य से भी राजा की प्रसिद्धि काफी बढ़ी। कैदी मुक्त कण्ठ से राजा का यशोगान किया करते थे।
(13) लोक कल्याण कार्य: सम्राट अशोक ने लोक कल्याण के अनेक कार्य किये। उसने मनुष्य तथा पशुओं के लिए भी अस्पताल खोलवाये जहां रोगियों को निःशुल्क भोजन तथा दवा दी जाती थी। इतना ही नहीं, उसने यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों के दोनों ओर छयादार वृक्ष लगवाये, सरायों तथा धर्मशालाओं का निर्माण करवाया और सड़कों पर थोड़ी- गोड़ी दूरी पर अनेक कुएँ भी खोदवाये। साम्राज्य भर में दान देने की भी व्यवस्था की गई। राजा-रानी तथा राजकुमार भी दान दिया करते थे। इससे दीन-दुखियों तथा अपाहिजों का कल्याण होता रहता था।
(14) पड़ोसी राज्यों के साथ व्यवहारः अपने पड़ोसी राज्यों के साथ अशोक का व्यवहार प्रशंसनीय था। उसने उनके साथ मैत्री का संबंध रखा। स्वयं अशोक ने यह घोषित कर दिया था कि “सीमांत जातियाँ मुझसे भय नहीं खाये। वे मुझ पर विश्वास करें और मुझसे सुख प्राप्त करें। वे कभी दुख न पायें और इस बात पर हमेशा विश्वास रखें कि जहां तक क्षमा करना संभव है, राजा उसके साथ करेगा।” वास्तव में अशोक की यह उक्ति प्रजा प्रेम की भावना से ओत प्रोत है इस तरह से अशोक का शासन प्रबंध धार्मिकता और नैतिकता पर आधारित था ।