प्रश्न- अधिकार की परिभाषा दें तथा इसके विभिन्न प्रकारों की समीक्षा करें।
आज के प्रजातंत्रात्मक युग में अधिकार और कर्तव्य को जीवन आधार के रूप में स्वीकार किया गया है। मानवीय विकास के लिए ये आज आवश्यक तत्व हो गए हैं। अधिकारों की सृष्टि समाज द्वारा होती है, राज्य द्वारा नहीं। राज्य तो सिर्फ अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। लॉस्की ने भी कहा है, “राज्य अधिकारों का निर्माण नहीं करता, बल्कि उनको मान्यता प्रदान करता है तथा किसी समय राज्य के स्वरूप को उसके द्वारा अधिकारों की मान्यता के आधार पर जाना जा सकता है।” समाज सिर्फ ऐसी ही माँगों को स्वीकार करता है जो आवश्यक है और जिनमें सार्वजनिक कल्याण की भावना निहित है।
अधिकार-संबंधी उपर्युक्त विवेचन के बाद चार तथ्य दीख पड़ते हैं। ये अधिकार के . अर्थ का स्पष्ट रूप से संकेत करते हैं- (i) अधिकार समाज की सृष्टि है, (ii) समाज से बाहर अधिकारों की सृष्टि नहीं होती, (iii) अधिकार का आधार सार्वजनिक कल्याण है। (iv) अधिकार का महत्व उसके उपयोग में है।
अधिकार की परिभाषा विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न रूपों में दी गई है।
1. लॉस्की : अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना साधारणतः कोई मनुष्य अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता।
2. हॉलैंड : अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कार्यों को समाज के मत और शक्ति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है।
3. ग्रीन : अधिकार वह शक्ति है जिसकी लोक-कल्याण के लिए ही माँग की जाती है और मान्यता भी प्राप्त होती है।
4. मैक्कन : अधिकार सामाजिक हितार्थ कुछ लाभदायक परिस्थितियाँ हैं जो नागरिक के वास्तविक विकास के लिए आवश्यक है।
अधिकारों की आवश्यकता
मनुष्य के जीवन का लक्ष्य उत्तम जीवन व्यतीत करना है, जो समाज में ही संभव है। मनुष्य अपने जीवन के विकास के लिए कुछ सुविधाएँ चाहता है; इसलिए वह समाज के सामने कुछ माँगे रखता है। जो माँगे वैयक्तिक और सार्वजनिक कल्याण के लिए आवश्यक होती हैं, उन्हें समाज स्वीकार कर लेता है । समाज द्वारा स्वीकृत ऐसी माँगों को ही अधिकार कहते हैं। इस प्रकार, समाज द्वारा ही अधिकारों की सृष्टि भी होती है, राज्य द्वारा नहीं । साथ ही, समाज व्यक्तियों की सभी माँगों को स्वीकार नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ, नरहत्या, चोरी-डकैती, व्यभिचार इत्यादि की माँग स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि इनसे सार्वजनिक कल्याण नहीं होता।’
नागरिकों के अधिकारों में मूल अधिकार भी एक प्रमुख अधिकार हैं। मूल अधिकार मनुष्य के ऐसे तात्त्विक अधिकार होते हैं कि उनका संरक्षण करना प्रत्येक प्रगतिशील राज्य का कर्तव्य हो जाता है। अतः मूल अधिकारों को राज्य के संविधान में उल्लिखित कर दिया जाता है, जिससे राज्य का कोई अधिकारी उनका अतिक्रमण या अपहरण नहीं कर सके। इस प्रकार, मूल अधिकार वे हैं – (i) जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अपरिहार्य हैं, (ii) जो नागरिकों के अन्य अधिकारों के आधार हैं, और (ii) जिनका स्त्रोत जनता की मूल इच्छा का प्रतीक संविधान है।
अधिकारों के आवश्यक तत्व
(Essential Elements of Rights)
उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर अधिकारों के निम्नलिखित तत्त्व स्पष्ट हो जाते हैं—
1. अधिकार सामाजिक हैं (Rights exit only in Society) : अधिकार समाज में रहकर ही प्रयोग किया जा सकता है। समाज के बाहर अधिकार की कल्पना नहीं की जा सकती, जो मनुष्य अकेला किसी जंगल की कुटिया में निवास करता है, उसके लिए अधिकारों का कोई विशेष महत्व नहीं है। इसके अतिरिक्त समाज द्वारा स्वीकृत माँग या दावा अधिकार का रूप धारण करता है।
2. अधिकार का आधार सामाजिक कल्याण (Based on Social Welfare) : यद्यपि अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज द्वारा जुटाये अवसर, सुविधाएँ या परिस्थितियाँ हैं किन्तु उनका आधारं सामाजिक कल्याण है। इसके दो अर्थ हैं- प्रथम, कोई भी मनुष्य अपने अधिकारों का इस तरह से प्रयोग करें, जिससे समाज को लाभ हो। द्वितीय, प्रत्येक व्यक्ति समाज की प्रभावशाली इकाई है, उसके व्यक्तित्व के विकास और उसके वास्तविक कल्याण में समाज का हित स्वयंसिद्ध है। ‘
3. अधिकार सार्वजनिक ( Universal) होते हैं : अधिकार सबके लिए समान रूप से होते हैं, क्योंकि अधिकारों द्वारा सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्त्व के विकास का अवसर
· प्राप्त होता है। अधिकार देश के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होते हैं।
4. अधिकार का कर्त्तव्यों से घनिष्ठतः सम्बन्ध है ( Rights Involve Duties) : अधिकार और कर्त्तव्यों का अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्त्व सम्भव नहीं। एक का कर्त्तव्य दूसरों का अधिकार होता है।
5. अधिकार नैतिकता पर आधारित है (Rights are ‘Rights’, not ‘Wrongs’) : कोई भी अधिकार अनैतिक कार्य करने के लिए प्रदान नहीं किया जा सकता। मनुष्य अपने से सम्बन्धित कार्यों में अधिकार का अनैतिक रूप से प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि मानव जीवन एक सामाजिक निधि है।
संक्षेप में, अधिकारों के पीछे समाज की शक्ति छिपी होती है। यदि किसी माँग को समाज स्वीकार नहीं करेगा तो वह अधिकार नहीं हो सकतां । अधिकारों का निर्जन से कोई सम्बन्ध नहीं।
अधिकारों का वर्गीकरण / प्रकार
(Types or Classification of Rights)
अधिकारों का स्वरूप सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन से बदलता रहता है। यही कारण है कि पुराने समय में हम जिन अधिकारों को महत्व देते थे, आज वे महत्वहीन हो गए हैं। लॉक संपत्ति को ऐसा अधिकार मानता था जिसमें राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, लेकिन आज की बदली हुई परिस्थितियों में संपति-संबंधी अधिकार के स्वरूप में परिवर्तन हो गया है और राज्य उसमें हस्तक्षेप कर रहा है। संक्षेप में, हम अधिकारों का वर्गीकरण निम्नलिखित तरीके से कर सकते हैं-
1. प्राकृतिक अधिकार (Natural rights) : प्राकृतिक अधिकारों का अर्थ उन अधिकारों से है जो लोगों को प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त था। हॉब्स ने प्राकृतिक अधिकार के संबंध में कहा है कि यह मनुष्य की शक्ति है जिसे वह अपनी इच्छापूर्ति के लिए मनमाना प्रयोग करता है, अर्थात हॉब्स ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ (might is right) के सिद्धांत को भी प्राकृतिक अधिकार समझता है। जॉन लॉक ने ‘जीवन, स्वतंत्रता और संपति’ (life, liberty and property) के अधिकारों को भी प्राकृतिक अधिकार स्वीकारा है। ये प्राकृतिक अधिकार मानव-स्वभाव में निहित है। मनुष्य न तो इन्हें दूसरों को दे सकता है और न राज्य इसका अपहरण कर सकता है। ग्रीन के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जिनके अभाव में मानव अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता । ”
2. नैतिक अधिकार (Moral right) : नैतिक अधिकार उन अधिकारों को कहते हैं जो समाज की नैतिक धारणा पर आधारित होते हैं, जैसे- शिष्टाचार, सच्चरित्रता तथा छोटे- बड़ों का ख्याल रखना – रीति-रिवाजों और परंपराओं के ये विकसित रूप होते हैं। मनुष्य अपना नैतिक कर्तव्य समझकर इन अधिकारों का पालन करता है । इनके पालन का आधार राज्य की शक्ति नहीं होती। राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होने पर वे अधिकार वैधानिक रूप ग्रहण कर लेते हैं।
3. मौलिक अधिकार (Fundamental rights) : मौलिक अधिकार मानव के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है। मौलिक अधिकारों के बिना सभ्य एवं श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति नहीं हो सकती। मौलिक अधिकारों के पीछे कानून की शक्ति रहती है। यदि सरकार इन अधिकारों को छीनने का प्रयास करती है तो न्यायालय इनकी रक्षा के लिए तैयार हो जाते हैं। यही कारण है कि बहुत-से देशों ने अपने संविधानों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को शामिल कर उन्हें सुरक्षित करने का प्रयास किया है। ये अधिकार हैं- समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार आदि ।
4. वैधानिक अधिकार (Legal rights) : वैधानिक अधिकार वे हैं जिन्हें राज्य मान्यता प्रदान करता है और जिनकी रक्षा राज्य के कानूनों द्वारा होती है। लीकॉक ने वैधानिक अधिकार की परिभाषा देते हुए कहा है, “वैधानिक अधिकार वह विशेषाधिकार हैं जिसका प्रत्येक नागरिक अपने सह- नागरिकों के साथ उपभोग करता है जो राज्य की सर्वोच्च सत्ता द्वारा प्रदान किया जाता है और उसी सत्ता द्वारा उसकी रक्षा भी होती है।” वैधानिक अधिकार का उल्लंघन करनेवाले को राज्य दंड देता है। जैसे—जीवन का अधिकार व्यक्ति का कानूनी अधिकार है, इसलिए यदि कोई किसी की हत्या कर देता है तो वह दंड का भागी बनता है।
वैधानिक अधिकारों का वर्गीकरण
वैधानिक अधिकारों को दो भागों में विभाजित किया जाता है-
(A) नागरिक अधिकार (Civil rights): इन अधिकारों से व्यक्ति अपने जीवन, संपत्ति, वैयक्तिक विशेषता की रक्षा करता है और अपनी आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। वर्तमान काल में निम्नलिखित नागरिक अधिकार पाए जाते हैं-
(i) जीवन का अधिकार (Right of life) : यह सबसे महत्वपूर्ण नागरिक अधिकार है । इस अधिकार का तात्पर्य जीवन-रक्षा से है। राज्य जीवन के इस अधिकार को साकार करने के लिए सेना, पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था करता है।
(ii) वैयक्तिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to personal liberty ) : वैयक्तिक स्वतंत्रता से तात्पर्य आवागमन की स्वतंत्रता तथा अपनी आंतरिक शक्तियों के उपभोग के अधिकार से है। व्यक्तियों को अपने इच्छानुसार अपने देश या विदेश में आने-जाने का अधिकार रहना चाहिए।
(iii) विचार – स्वतंत्रता का अधिकार (Right of freedom of speech) : विचार की अभिव्यक्ति मानवीय व्यक्तित्व के विकास के लिए परमावश्यक है । मानव अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाना चाहता है जिससे उसे परम संतोष मिलता है। यदि विचारों की स्वतंत्रता का अधिकार मनुष्य को नहीं मिले तो वह पशुतुल्य हो जाता है।
अपवाद – (अ) राजद्रोह के लिए नागरिकों को उभारना तथा (ब) किसी को गाली देना तथा अपमान करना आदि विचार स्वतंत्रता के अधिकार पर अमर्यादाएँ हैं।
(iv) संगठन बनाने का अधिकार (Right of assembly) : मानव अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के संगठनों का निर्माण करता है, लेकिन ऐसे समुदायों को संगठन के निर्माण का अधिकार नहीं दिया जा सकता जिनका उद्देश्य समाज विरोधी हो । जैसे-चोरों और डकैतों को अपना संगठन बनाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
(v) धर्म का अधिकार (Right of religion) : इस अधिकार का तात्पर्य अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को स्वीकार करने, पूजा करने और धार्मिक प्रचार की स्वतंत्रता से है। लेकिन यदि धार्मिक कार्य का प्रचार समाज-विरोधी हो, तो राज्य उस पर नियंत्रण भी लगा सकता है।
(vi) शिक्षा का अधिकार (Right to education) : बेनी प्रसाद ने ठीक ही कहा है, “उत्तम शिक्षा जीवन का मूलाधार है।” इसलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि वह प्रारंभिक और उच्च शिक्षा की समुचित व्यवस्था करे।
(vii) संपत्ति का अधिकार (Right to property ) : संपत्ति मानव के स्वभाव में निहित है। इसके बिना मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता। लेकिन, संपत्ति के इस मौलिक अधिकार पर सामाजिक हित की दृष्टि से आज नियंत्रण स्थापित किया जाने लगा है। साम्यवादियों ने वैयक्तिक संपत्ति के अधिकार को समाप्त करने का नारा बुलंद किया है।
(viii) पारिवारिक जीवन का अधिकार (Right to family life) : इस अधिकार के अंतर्गत विवाह का अधिकार, तलाक का अधिकार, पति – पत्नी के संबंध को निश्चित करने का अधिकार, बच्चों पर नियंत्रण का अधिकार, उत्तराधिकार आदि शामिल हैं। पारिवारिक जीवन-संबंधी अधिकारों में राज्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
(ix) समानता का अधिकार (Right of equality): राज्य के प्रत्येक नागरिक को मतदान का अधिकार रहना चाहिए। जाति, धर्म, लिंग आदि में बिना भेद किए सभी नागरिकों को योग्यता के आधार पर नौकरी मिलनी चाहिए। धनी, गरीब, विद्वान और मूर्ख सबके लिए समान दंड की व्यवस्था होनी चाहिए, अर्थात् कानून का शासन स्थापित होना चाहिए ।
(x) संविदा का अधिकार (Right to contract) : इस अधिकार से तात्पर्य है कि समाज और राज्य के लोगों को आपस में कानूनी समझौते का अधिकार होना चाहिए। गिलक्राइस्ट ने कहा है, ‘संविदा व्यापार और प्रगति के लिए आवश्यक है।’ अतएव, राज्य के नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए ।
(xi) न्याय प्राप्ति का अधिकार (Right to justice): आज के प्रजातंत्रात्मक राज्य में प्रजातंत्र के विकास के साथ सभी नागरिकों को न्याय प्राप्ति के अधिकार प्राप्त हो गए हैं। इसके लिए सभी व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकते हैं।
(B) राजनीतिक अधिकार (Political rights): राजनीतिक अधिकार के द्वारा ही नागरिक राज्य की शासन-प्रणाली में भाग लेता है। राजनीतिक अधिकार उन व्यक्तियों को प्राप्त होते हैं जिन्हें राज्य अपनी प्रभुसत्ता में भागीदार बनाना चाहता है। राजनीतिक अधिकार के अंतर्गत हम निम्नलिखित अधिकारों को शामिल कर सकते हैं-
(i) मतदान का अधिकार (ii) निर्वाचित होने का अधिकार (iii) सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार (iv) प्रार्थनापत्र देने का अधिकार (v) आलोचना करने का अधिकार (vi) प्रतिरोध का अधिकार (vii) अधिकार लागू करने का अधिकार ।