सातवाहन कौन थे ? गौतमी पुत्र शातकर्णी की उपलब्धियों की विवेचना करें।PDF DOWNLOAD

सातवाहन कौन थे और किस जाति के थे ? इतिहासकारों में इस बात पर काफी मतभेद हैं। पुराणों में सातवाहनों को आन्ध्र जाति का कहा गया है। इसीलिए सातवाहन वंश को आन्ध्र वंश भी कहा गया है। आन्ध्र एक जाति का नाम था, जो गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के बीच के भाग में निवास करती थी। आन्ध्र शासक पहले महाराष्ट्र में शासन करते थे। परन्तु कालान्तर में शकों के आक्रमणों के परिणामस्वरूप उन्हें महाराष्ट्र छोड़ना पड़ा और वे गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के बीच में आन्ध्र प्रदेश में आकर बस गए। आन्ध्र प्रदेश में रहने के कारण ही वे आन्ध कहलाये। अतः आन्ध्र नाम प्रादेशिक संज्ञा है, जातीय संज्ञा नहीं। आन्ध्र लोग आर्य थे या अनार्य, यह भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। 

सातवाहनों का उदयकाल : डॉ० स्मिथ, रैप्सन, जायसवाल आदि विद्वान सातवाहनों का उदयकाल ई०पूर्व० तीसरी शताब्दी मानते हैं। परन्तु अधिकांश विद्वानों के अनुसार सातवाहन वंश का उदय ई० पूर्व० प्रथम शताब्दी में हुआ था। इन विद्वानों के अनुसार सातवाहनों के शासन-काल का प्रारम्भ 27 ई० पूर्व में हुआ था। इस मत की पुष्टि नानाघाट अभिलेख तथा हाथीगुम्फा अभिलेख से भी होती है। डॉ० राजबली पाण्डेय का मत है कि सातवाहन मूलतः दक्षिण भारत के थे और 28 ई० पूर्व में सिमुक ने मगध पर आक्रमण करके उत्तरी भारत में अपनी सत्ता स्थापित की थी। 

आन्ध्र या सातवाहन साम्राज्य 

सिमुक : सातवाहन वंश का संस्थापक शासक सिमुक था । सिमुक ने ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी सातवाहनों के स्वतंत्र शासन की नींव डाली और बाद में मगध के कण्व वंशी नरेश सुशर्मा का वध कर मगध की राज्य सत्ता अपने हाथ में ली । शुंगों और कण्वों से सिमुक ने सम्भवतः विदिशा के निकट का प्रवेश हस्तगत किया था । उसका वास्तविक शासन दक्षिणापथ में ही था । 

कृष्ण : सिमुक के बाद उसका भाई कृष्ण शासन का अधिकारी हुआ । नासिक के शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसका अधिकार नासिक तक पहुँच चुका था। 

शातकर्णि : सिमुक का पुत्र शातकर्णि इस कुल का तृतीय नरेश था । यह एक प्रतापी शासक था। नानाघाट अभिलेख से ज्ञात होता है कि शातकर्णि ने दक्षिणी भारत के अधिकांश प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। पूर्वी मालवा का प्रदेश भी उसके अधीन था। उसने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए अवश्मेघ, राजसूय आदि अनेक यज्ञ किये। 

दुर्बल उत्तराधिकारी : शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी ने शासन-कार्य सम्भाला क्योंकि दोनों पुत्र वेदश्री तथा शक्तिश्री अल्पवयस्क थे। अयोग्य और दुर्बल शासकों के कारण सातवाहन वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा और सातवाहन राज्यों पर शकों के आक्रमण शुरू हो गए। 

गौतमीपुत्र शातकर्णि और उसकी उपलब्धियाँ 

प्रारम्भिक जीवन : गौतमीपुत्र शातकर्णि के प्रारम्भिक जीवन के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई है । नासिक में उसका एक उत्कीर्ण लेख मिला है, जिसमें उसकी विजयों का वर्णन मिलता है, लेकिन उसके जीवन के संबंध में कोई सूचना नहीं है। उपलब्ध सामग्री के आधार पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि वह एक महान् और पराक्रमी सम्राट था, जिसने सातवाहनों के खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त कर उसे नवजीवन प्रदान किया। वह सातवाहन वंश का सबसे शक्तिशाली तथा पराक्रमी शासक था। उसने सातवाहन वंश की शक्ति तथा गौरव को चरम सीमा पर पहुँचा दिया। उसने लगभग 24 वर्ष (106 ई० से 130ई0) तक राज किया। 

नासिक के अभिलेखों से पता चलता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने शक, यवन व पल्लव राजाओं को पराजित किया। उसने क्षत्रियों का नाश किया और अपने वंश की कीर्ति को पुनः स्थापित किया। उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य क्षत्रप नहपान को परास्त कर उसे समूल नष्ट करना था। उसे नष्ट कर गौतमीपुत्र ने शकों की क्षहराट शाखा का अन्त कर दिया, उसके साम्राज्य के लिए सदा एक खतरा थी। 

जो गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है— 

(1) शक-विजय : गौतमीपुत्र शातकर्णि ने शकों को परास्त किया, लेकिन इसके लिए उसने राजा बनने के बाद 18 वर्ष तक अपनी शक्ति को संगठित किया। नासिक अभिलेख में उस भूमिदान का उल्लेख है जो शक राज्य के दक्षिण प्रान्त के राज्यपाल तथा शक शासक नहपान के दामाद उषवदात के अधिकार में थी । इसी प्रकार कार्ली अभिलेख में पूना जिले के करजिक ग्राम को दान में दिये जो का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शातकर्णि ने उत्तरी महाराष्ट्र में शकों की शक्ति को समाप्त करके सातवाहनों की सत्ता स्थापित की। इसकी पुष्टि जोगलथम्मी मुद्रा – भाण्ड से भी होती है। इस मुद्रा – भाण्ड में ऐसे सिक्के मिले हैं जिन पर नहपान तथा तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि दोनों के नाम अंकित हैं। इससे प्रकट होता है कि शक नरेश नहपान को पराजित करने के पश्चात् गौतमीपुत्र शातकर्णि ने उसके सिक्कों पर अपना नाम अंकित करवाया था। शातकर्णि की यह प्रारम्भिक सफलता थी । नासिक अभिलेख से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने शकों, यवनों एवं पल्लवों का विनाश कर सातवाहन कुल के गौरव की पुनः स्थापना की। 

नासिक प्रशस्ति के अनुसार, 124 ई० में अपने शासन के 18वें वर्ष में वह शकों के विरूद्ध रणयात्रा को निकला था। इस अभियान के फलस्वरूप सौराष्ट्र, गुजरात, नर्मदा नदी पर स्थित महेश्वर क्षेत्र, उत्तरी कोंकण, पूर्वी मालवा और पश्चिमी मालवा के प्रान्त उसके अधिकार में आ गए। इस अभिलेख के अनुसार निम्नलिखित क्षेत्र उसके अधिकार में थे– 

असिक (गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच का प्रदेश), 2. अश्मक (गोदावरी का तटीय प्रदेश), 3. मूलक (पैठन के आस-पास का प्रदेश), 4. सुराष्ट्र (दक्षिणी काठियावाद, 5. कुकुर (उत्तरी काठियावाड़), 6. अपरान्त (उत्तरी कोकण), 7. अनूप (नर्मदा नदी के तट पर माहिष्मती का प्रदेश), 8. आकर (पूर्वी मालवा ), 9. अवन्ति (पश्चिम मालवा ), 10. विदर्भ (बरार ) | 

(2) अन्य विजयें : नासिक प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने न केवल शकों पर विजय प्राप्त की अपितु उसने अन्य प्रदेशों को जीतकर सातवाहन राज्य में सम्मिलित कर लिया। ये प्रदेश थे- 

(i) ऋषिक (कृष्णा तट पर स्थित ऋषिक के समीप का क्षेत्र) 

(ii) अश्मक (बोधन के समीप महाराष्ट्र का गोदावरी क्षेत्र 

(iii) मूलक (प्रतिष्ठान क्षेत्र – आधुनिक पैथान 

(iv) विदर्भ – बरार आदि । 

(3) साम्राज्य विस्तार : उपर्युक्त विजयों के परिणामस्वरूप उसके समय में सातवाहन राज्य कृष्णा नदी से लेकर उत्तर में सौराष्ट्र एवं मालवा तक और पूर्व में विदर्भ से लेकर दक्षिण कोंकण तक फैल गया था । त्रावणकोर, पूर्वीघाट और पश्चिमी घाट तक उसका राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था । 

गौतमीपुत्र शातकर्णि का चरित्र और मूल्यांकन 

1. महान और उदार शासक : शातकर्णि एक महान् विजेता ही नहीं, बल्कि एक महान् व्यक्ति भी था। नासिक के अभिलेख में उसके गुणों की विस्तृत चर्चा की गई है। वह एक बलिष्ठ, सुन्दर और आकर्ष व्यक्तित्व वाला अत्यन्त मृदु स्वभाव का व्यक्ति था। वह छोटे- बड़े सबकी सहायता करने को उद्यत रहता था। वह अपनी माता का आज्ञाकारी पुत्र था। वह विद्वानों का आदर करता था और उनका आश्रयदाता था। वह करुणामय था, लेकिन अपने राज्य के शत्रुओं को समूल नष्ट करने में संकोच नहीं करता था । 

2. वीर योद्धा तथा महान् विजेता : गौतमीपुत्र शातकर्णि एक वीर योद्धा और महान् विजेता था। उसने अपने समय के अनेक राजवंशों को परास्त किया और अपने युद्ध-कौशल का परिचय दिया। ‘नासिक अभिलेख’ में उसे ‘क्षत्रियों के घमण्ड और मान को चूर करने ‘वाला’, ‘शक, यवन और पल्लव का नाश करने वाला’, ‘युद्ध’ में अनेक शत्रुओं को जीतने वाला’ कहा गया है। इन उपाधियों से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि एक पराक्रमी शासक था। 

3. प्रजावत्सल शासक : शातकर्णि अपनी प्रजा के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख के समान समझता था। उसने जनता पर अधिक कर नहीं लगाये थे । राजद्रोह के अपराधियों के अतिरिक्त वह अन्य अपराधियों से दया का व्यवहार करता था। उसने ब्राह्मण धर्म का पुनरूत्थान किया। उसके शासन काल में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च हो गया और शातकर्णि ने उनके शत्रुओं का नाश करना अपना पहला कर्तव्य समझा। वैदिक धर्म के अनुष्ठानों को उसने स्वीकार कर प्रधानता दी। बौद्ध धर्म और विदेशियों के सम्पर्क के कारण चारों वर्णों में पारस्परिक विवाह होने लगे थे, उन्हें शातकर्णि ने वर्जित कर दिया। समाज में स्त्रियों का उच्च स्थान था, जो इस बात से सिद्ध होता है कि स्वयं शातकर्णि ने अपनी माता गौतमी का पुत्र कहलाने में गौरव का अनभुव किया। 

निष्कर्ष : इस प्रकार हम देखते हैं कि गौतमीपुत्र शातकर्णि एक महान् सम्राट था। ब्राह्मण धर्म का अनन्य उपासक और रक्षक होकर उसने अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं, बल्कि उदारता की नीति अपनाई । उसने बौद्धों को चैत्यगृह और बिहारों का निर्माण करने के लिए सहायता दी। इतने विशाल साम्राज्य को नियंत्रित रखना उसकी महान उपलब्धि । उसके शासन काल की आर्थिक दशा के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है, फिर भी शातकर्णि के उदार स्वभाव और कुशल प्रशासन के आधार पर कहा जा सकता कि व्यापार और उद्योग-धन्धे उन्नत अवस्था में रहे होंगे। उसका विद्वानों को आश्रय देना और उसके काल की साहित्य की रचनायें और उसके शासन काल में हुई कलात्मक उन्नति उसके महान् शासक होने के कारण हैं। डॉ० विमल चन्द्र पाण्डेय ने ठीक ही कहा है, “गौतमीपुत्र शातकर्णी सातवाहन वंश का सबसे बड़ा और सबसे पराक्रमी राजा था। उसने अपने वंश की प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया । ” डॉ० पी० एल० भार्गव के अनुसार, “गौतमीपुत्र शातकर्णि एक रूपवान पुरूष था। वह सबको निर्भयता प्रदान करने वाला, माता की सेवा करने वाला, प्रजा का हित चाहने वाला, द्विजों और निम्न वर्ग के लोगों का समान रूप से रक्षक और वर्णसंकर को रोकने वाला था । ” श्री नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार, “गौतमीपुत्र शातकर्णि बड़ी सुन्दर आकृति का व्यक्ति था । उसकी भुजायें लम्बी और चेहरा मनोहर था। वह सदाचारी तथा धर्मपरायण व्यक्तियों का संरक्षक था और स्वयं उच्च चरित्र तथा शिष्टाचार का स्वामी था । 


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