“समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है।” समीक्षा करें।PDF DOWNLOAD

चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् पुत्र समुद्रगुप्त मगध के राजसिंहासन पर बैठा । उसका राज्यकाल सैनिक गतिविधियों के लिए सुविख्यात है। सम्पूर्ण भारत का राजनैतिक एकीकरण ही उसका मूल उद्देश्य था। वह एकराट् बनना चाहता था। अतः उसेन दिग्विजय की नीति का पालन किया। चक्रवर्ती राजा बनना ही उसका राजनीतिक आदर्श था । समुद्रगुप्त के सैनिक अभियानों का उल्लेख स्वयं उसके अभिलेखों में मिलता है। 

प्रथम आर्यावर्त युद्ध : सर्वप्रथम समुद्रगुप्त ने मगध के पड़ोसी तीन राजाओं अच्युत्, नागसेन, गणपति नाग और कोतकुल को समूल नष्ट किया। इस प्रकार गंगा की घाटी में उसने अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया। अच्युत का राज्य यू०पी० के बरेली जिला में, नाग सेना और गणपति नाग क्रमशः मथुरा और पद्मावती ( ग्वालियर) का नाग राजा था। कोतकुल का राज्य श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश) में होगा । 

दक्षिण अभियान : दक्षिण अभियान में समुद्रगुप्त ने तीन नीतियों का पालन किया ग्रहण, मोक्ष और अनुग्रह । दक्षिण पथ के अभियान में समुद्रगुप्त ने बारह राजाओं को परास्त किया। इसके नाम हैं:- 

(1) कौशल का. महेन्द्र

(2) महाकान्तार का व्याघ्र राज

(3) कौरल का मण्ट राज

(4) पैष्टपुर का महेन्द्रगिरि

(5) कौटूर का स्वामिदत्त

(6) एरण्डयल का दमन 

(7) काँची का विष्णु गोप

(8) अवमुक्त का नील राज

(9) बैंगेय का हस्तिवर्मन

(10) पालक्क का उग्रसेन

(11) देव राष्ट्र का कुवेर तथा 

(12) कौस्थलपुर का धनञ्जय । 

इन राज्यों की भौगोलिक स्थिति पर विचार करना अति आवश्यक है क्योंकि इस आधार पर दक्षिण अभियान का मार्ग भी निश्चित होता है। दक्षिण पथ में कोशल अ दक्षिण कोशल में विलासपुर, रायपुर, सम्बलपुर जिलों में अतिरिक्त सम्भवतः गंजाम क कुछ भाग भी सम्मिलित था। अनुमानतः यमुना घाटी को पार करके समुद्रगुप्त रखा और जबलपुर क्षेत्र में पहुँचा। कोशल को हराकर वह महाकान्तार में पहुँचा। इस प्रदेश को महाभारत के आधार पर वेणवातट और प्राक् कोशल के बीच रखा जा सकता है, जो सम्भवतः मध्य प्रदेश का क्षेत्र ही होगा। मध्यप्रदेश के इन प्रदेशों को विजितक समुद्रगुप्त कोशल की तरफ बढ़ा और फिर पिष्टपुर तथा कौहर में प्रकट हुआ। भण्डारकर ने कोशल को केरल पढ़कर इसकी एकरूपता मध्य प्रदेश में स्थिति सोनपुर नामक जिले से किया। पिष्टपुर की पहचान वर्तमान गोदावरी जिले के पिष्टपुरम् नामक स्थान से की जानी चाहिए । महेन्द्रगिरि और स्वामीदत्त के राज्यों के निकट ही एरण्डयल और देवराष्ट्र नामक प्रदेश थे। फ्लीट ने इन दोनों स्थानों की एकरूपता क्रमशः (खानदेश जिला) और महाराष्ट्र प्रदेश से की है। उनके मतानुसार पूर्वी घाट में विजय पताका फहराने के पश्चात् समुद्रगुप्त पश्चिमी घाट की तरफ गया। इस मत के मानने में बहुत-सी बाधाएँ हैं- (i) यदि फ्लीट के विचार को महत्व दिया जाय तो विजयक्रम में इन स्थानों का उल्लेख दक्षिण के बगी और काँची के बाद ही होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है । यह असम्भव-सा दीख पड़ता है कि पश्चिमी भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद ही वह दक्षिण में गया । ( 2 ) मध्य और पश्चिमी ढक्कन (Deccan) में वाकाटको का राज्य था। वाकाटकों को परास्त किए बिना वह खानदेश और महाराष्ट्र तक पहुँच ही नहीं सकता था। वाकाटकों के साथ संघर्ष का उल्लेख नहीं मिलता है। 

द्वितीय आर्यावर्त : दक्षिण पथ की विजय के बाद इलाहाबाद अभिलेख में आयावर्त के नौ राजाओं के विनाश का उल्लेख है। ये थे – रूद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन, अच्यूत, नान्दे और बलवर्म्मन । इनमें से अच्युत नागसेन और गणपति नाग को समुद्रगुप्त. ने प्रथम आर्यावर्त युद्ध में हराया था। सम्भवतः समुद्रगुप्त के दक्षिण पथ में व्यस्त रहने का लाभ उठाकर इन तीनों राजाओं ने दूसरी शक्तियों को मिलाकर चन्द्रगुप्त के विरूद्ध सन्धि की हो । रूद्रदेव की एकरूपता वाकाटक राजा प्रथम रूद्रमेन से की जाती है । मतिल का राज्य अनुमानतः पश्चिमी उत्तरप्रदेश में था। नागदत्त, नन्दि और बलवर्म्मन सम्भवतः मध्यभारत में राज्य करनेवाले नागराजा थे। चन्द्रवर्मन पुष्कर का राजा था। इन तमाम राजाओं ने समुद्रगुप्त का संयुक्त रूप से मुकाबला किया होगा, किन्तु सफलता समुद्रगुप्त को ही मिली। इस प्रकार, उत्तर भारत का एक बड़ा भू-भाग उसके अधीन हो गया । 

आटविक राज्यों की विजय : इलाहाबाद अभिलेख के अनुसार आर्यावर्त के राज्यों को अपने अधीन कर समुद्रगुप्त में आटविक नरेशों के विरूद्ध एक सफल अभियान किया। कुछ विद्वानों का विवार है कि दक्षिणी अभियान के पूर्व ही समुद्रगुप्त ने इसपर विजय प्राप्त कर ली थी, क्योंकि दक्षिण में जाने के लिए मध्य भारत के विस्तीर्ण जंगलों से होकर ही जाना पड़ेगा। इस सम्बन्ध में ठीक-ठाक कहना कठिन है। समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण वन जातियों को परास्त कर अपना सेवक बना दिया। फ्लीट के अनुसार आटविक नरेश उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से लेकर मध्य प्रदेश के जलबपुर तक विस्तृत थे। 

करदायी राज्य : आटविक नरेशों के बाद इलाहाबाद अभिलेखों के पाँच प्रत्यन्त तृपतियों और नौ गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। ये पाँच थे- समतट, डर्विक, कामरूप, नेपाल, कर्तृपुर। यह कहना कठिन है कि समुद्रगुप्त का प्रभाव उनपर किस प्रकार का था । वे उसकी राज्य सीमा के भीतर थे अथवा समुद्रगुप्त के राज्य की सीमा उन राज्यों से मिलती थी। जो भी यह सत्य है कि समुद्रगुप्त के प्रचण्ड शासन ने उनको सब प्रकार का कर देने, आज्ञा मानने और अभिवादन करने पर बाध्य करा दिया। इनमें से समतट, कामरूप और नेपाल का समीकरण क्रमशः दक्षिणी-पूर्वी बंगाल, ऊपरी आसाम और वर्तमान नेपाल से किया जा सकता है। भंडारकर के अनुसार वर्तमान काटगाम और तिपरेह का पहाड़ी क्षेत्र ही डबाक था। कुछ विद्वान इसे आसाम का नवगाँव क्षेत्र मानते हैं। कर्तृपुर का समीकरण जलन्धर में स्थित कतंरिपुर नामक स्थान से किया जाता है। 

गणराज्यों : गणराज्यों ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। प्रत्यन्त नृपतियों के समान उन्होंने भी कर देना, आज्ञा मानना और अभिवादन करना स्वीकार कर लिया। इस संघ में निम्नलिखित गणराज्य थे-मालवा, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक (रावी और चेनाव नदियों के बीच), आमीर (दो शाखाएँ क्रमशः पंजाब और मध्य भारत के किसी क्षेत्र में) प्रार्जुन, सनकानीक काक, खर्परिक । 

विदेशी राज्यों से संबंध : उपर्युक्त सफलताओं के फलस्वरूप समुद्रगुप्त की कीर्ति नरम सीमा पर पहुँच गई। समीपवर्ती विदेशी राज्यों को बाध्य होकर समुद्रगुप्त से मित्रता की भीख माँगनी पड़ी। इनमें सिंहल तथा अन्य द्वीपवासियों के अतिरिक्त दैवपुत्र पाहि पाहा -नुपाही, और शक मुरूण्ड सम्मिलित थे। विदेशी राजाओं ने आत्म-निवेदन और कन्यादान के पश्चात् स्वयं अपने राज्य में शासन करने के लिए गरूड़ की आकृति में मुद्रित आज्ञा-पत्र माँगी। सिंहल का समीकरण वर्तमान लंका से किया जाता है। समुद्रगुप्त का समकालीन राजा मेघवर्ण था। उसने दो भिक्षुओं को बोधगया की यात्रा के लिए भेजा जिन्हें रहने की असुविधा हुई। अतः मेघवर्ण ने समुद्रगुप्त की अनुमति से बोधगया में लंका के भिक्षुओं के लिए एक विहार और विश्रामगृह का निर्माण करवाया। देवमुत्र- पाहि पाहा – नुषाही का समीकरण कृपाण राजा से किया जाता है। जिनका शासन सम्भवतः पश्चिमी पंजाब और अफगानिस्तान में था। शक मुरूदण्डों की पहचान पश्चिमी मालवा और काठिवायावाड़ के शक राजाओं से की जाती है। 

अश्वमेघ यज्ञ : एलन के विचार से समुद्रगुप्त ने अपने राज्यकाल के अंतिम दिनों में अश्वमेध यज्ञ किया होगा, क्योंकि इलाहाबाद अभिलेख में इसका कोई उल्लेख नहीं है। उसने इस यज्ञ के उपलक्ष में अश्वमेध प्रकार का सोने का सिक्का तैयार करवाया। समुद्रगुप्त द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ की जानकारी उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से भी होती है। 

समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व : समुद्रगुप्त की सर्वतोन्मुखी प्रतिभा एवं व्यक्तित्व अद्वितीय था। वह एक महान विजेता के साथ-साथ हर तरह के गुणों की खान था । प्रसिद्ध इतिहासकार हरिसेन ने उसको एक महान उद्भट विद्वान, अद्वितीय शास्त्रज्ञ, ख्याति प्राप्त कविराज और एक बड़ा विद्या प्रेमी कहा है। वह विद्वानों और गुणी लोगों का बड़ा आदर करता था। उसकी कविता इतनी उच्चकोटि की होती थी कि वह कविराज की उपाधि से विभूषित किया गया था। गाने की कला में भी वह प्रवीण था। वह तुम्बरु और नारद बजाते हुए दिखाया गया है। वह आखेट का भी बड़ा प्रेमी था। उसका धर्म वैष्णव था । वह दीन दुखियों, अनाथों और आर्तजनों के कल्याण के लिये हमेशा तैयार रहता था। 

समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन के रूप में : महान समर विशारद होने के कारण डाक्टर स्मिथ ने उसे भारतीय नेपोलियन कहकर पुकारा है। समुद्रगुप्त के लिए उनकी यह संज्ञा अक्षरशः सत्य है। क्योंकि वह ठीक नेपोलियन बोनापार्ट की भाँति ही एक महान योद्धा और विजेता था। जिस तरह से नेपोलियन ने सारे यूरोप को भयभीत कर दिया था ठीक उसी तरह से समुद्रगुप्त ने भी शीघ्र ही चारों दिशाओं में अनेक राज्यों को जीत लिया था । वास्तव में अगर कसौटी पर कसा जाय तो समुद्रगुप्त नेपोलियन बोनापार्ट और सिकन्दर महान से भी कई कदम आगे था। नेपोलियन की सारी विजय उसके जीवन में ही नष्ट हो गई थी क्योंकि उसकी विजय तलवार की नोक पर आधारित थीं और तलवार को म्यान में जाते ही उसकी सभी विजय समाप्त हो गई थी। परन्तु समुद्रगुप्त की विजय स्थाई थी जो उसके मरने के बाद भी बहुत दिनों तक कायम थी। उसका साम्राज्य उसकी मृत्यु के बाद भी दो शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा। 

अन्त में हम यह भी कह सकते हैं कि नेपोलियन का अन्तिम जीवन बड़ा ही दुःखद था परन्तु समुद्रगुप्त लगभग 40 वर्षों तक अपनी सफलता का मधुर फल चखता रहा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समुद्रगुप्त नेपोलियन से अधिक महान था। अतः हम यह सकते हैं कि नेपोलियन यूरोप का समुद्रगुप्त नहीं हो सकता है, परन्तु समुद्रगुप्त को भारती नेपोलियन की उपाधि से विभूषित करना तर्कसंगत है। 


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