समुद्रगुप्त की सैनिक उपलब्धियों का वर्णन करें। समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन क्यों कहा जाता है? PDF DOWNLOAD

अपने पिता चन्द्रगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् 335 ई० में वह राज सिंहासन पर बैठा। वह भारतीय इतिहास के रंगमंच पर महत्वाकांक्षी तथा विशिष्ट गुणों से सम्पन्न एक महान् पराक्रमी सम्राट था। उसने भारत को एक सर्वोच्च शक्ति बनाने में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। यही कारण है कि उसे अपने पराक्रम तथा विजयों के कारण भारतीय नेपोलियन की उपाधि से सुशोभित किया जाता है। 

1. उसकी विजयें : समुद्रगुप्त एक महान् विजेता था। वह एक बड़ा ही महत्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी सम्राट था और उसे एकक्षत्र सम्राट बनने की प्रबल इच्छा थी । इसलिए सिंहासन पर बैठने के पश्चात् उसने अपनी दिग्विजय आरम्भ की। उसकी विजयों को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं- 

(i) उत्तरी भारत की विजय जहाँ उसकी राज्य नीति का विस्तार हुआ था। 

(ii) दक्षिण भारत की विजय : इस विजय में उसकी नीति भिन्न प्रकार की थी। उसने दक्षिण के जिन राज्यों पर विजय प्राप्त की, उनको अपने राज्यों में नहीं मिलाया, बल्कि विजित राज्यों से अधीनता स्वीकार करा कर राज्य उनको वापस लौटा दिये। दक्षिण मैं इस प्रकार की नीति अपनाना उसकी राजनैतिक कार्यकुशलता का स्पष्ट प्रमाण है। दक्षिण के इन राज्यों को साम्राज्य में सम्मिलित न करने का एकमात्र कारण यह था कि इन दिनों उत्तरी भारत से दक्षिण भारत में आने-जाने के साधन सुगम नहीं थे। इसलिए प्रजातंत्रीय व्यवस्था में उत्तरी भारत से दक्षिण भारत का शासन चलाना आसान नहीं था और विद्रोह तथा विप्लव होने के बहुत अवसर थे। इसीलिए समुद्रगुप्त ने दूरदर्शिता से काम लिया । 

(iii) सीमान्त प्रदेश के साथ उसने मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखा जिससे व्यवसाय में वृद्धि होती रही । विदेशियों के साथ उसने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इन बातों से यह सिद्ध होता है कि समुद्रगुप्त ने विजेता के रूप में वह गौरव प्राप्त किया जो इससे पहले अन्य किसी को प्राप्त नहीं हुआ। 

2. उत्तरी भारत की विजय : समुद्रगुप्त ने उत्तरी भारत के नौ राजाओं पर विजय प्राप्त की और उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उन राजाओं के नाम हैं- रूद्रदेव, मातिल, नागदत्त, चन्द्रवर्धन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दी तथा बलवर्धन। 

(a) अटवी राज्यों पर विजय : उत्तरी भारत के राज्यों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने विन्ध्याचल पर्वत के आसपास असभ्य राज्यों की ओर ध्यान दिया । अभिलेखों से यह पता चलता है कि जबलपुर तथा नागपुर में 18 अटवी राज्य थे, जिन्होंने समुद्रगुप्त से बिना युद्ध किए ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। इन राज्यों पर विजय प्राप्त करने से समुद्रगुप्त को दक्षिणी भारत पर विजय प्राप्त करने में काफी सुविधा हो गई। 

(b) दक्षिण पथ की विजय : अभिलेखों से यह पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की थी। परन्तु उसने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया बल्कि दूरदर्शिता से काम लेकर तथा उन राज्यों से अधीनता स्वीकार कराकर उनको ये राज्य लौटा दियें। 

(c) सीमान्त प्रदेशों की विजय : अब समुद्रगुप्त का ध्यान सीमांत प्रदेश तथा वहाँ के गणराज्यों की ओर गया। इनमें से कुछ ने युद्ध करने के उपरान्त और कुछ ने बिना युद्ध के ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ये राज्य समुद्रगुप्त को वार्षिक कर देते थे और उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे। अभिलेखों में 5 ऐसे सीमान्त राज्यों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। 

(d) गणराज्यों पर विजय : गुप्त साम्राज्य के पश्चिम तथा दक्षिण पश्चिम में कुछ गणराज्य थे, जिन्होंने बिना युद्ध किये ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 

(e) विदेशों से सम्बन्ध : समुद्रगुप्त की इन विजयों का प्रभाव विदेशी राज्यों पर भी पड़ा और उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। कुशाण तथा सिंहली राजा उसकी सेवा करने के लिए प्रस्तुत रहते थे और उनसे मित्रता के इच्छुक रहते थे। कहते हैं कि लंका का राजा मेघवर्ण ने बिहार में बौद्ध भिक्षुओं के लिए मठ बनवाने के लिए उससे आज्ञा माँगी थी। समुद्रगुप्त ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसके फलस्वरूप मेघवर्ण ने बौद्ध गया में जाकर महाबोधि संघाराम नामक मठ बौद्ध भिक्षुओं के लिए तैयार करवाया। 

3. साम्राज्य का विस्तार : इन राज्यों को जीतने के पश्चात् समुद्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार पूर्व में हुगली से लेकर पश्चिम में यमुना और चम्बल नदी तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में नर्मदा तक हो गया। इस साम्राज्य के उत्तर पूर्व में पाँच आश्रित राज्य थे, जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी और उसे वार्षिक कर देते थे। साम्राज्य के पश्चिम में नौ गणराज्य थे, जो समुद्रगुप्त की आज्ञा से शासन करते थे तथा उसे कर देते थे। साम्राज्य के दक्षिण में 12 राज्य थे जिनको अधीनता स्वीकार करा लेने के पश्चात् स्वतंत्र कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त कुशाण तथा शक राजा उसकी मित्रता के सदैव इच्छुक रहते थे। 

4. अश्वमेध यज्ञ : अपनी इन महान् विजयों के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया और अपने आपको महाराजाधिराज की उपाधि से सुशोभित किया। इस शुभ अवसर पर उसने लोगों में बहुत-सी बहुमूल्य चीजें बाँटी और ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्रायें दी। 

5. समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन क्यों ? : समुद्रगुप्त की इन महान् विजयों को देखते हुए विद्वानों ने उसको भारतीय नेपोलियन की उपाधि दी है। वास्तव में देखा जाए तो समुद्रगुप्त नेपोलियन तथा सिकन्दर आदि से बढ़कर था। नेपोलियन की विजय उनके काल में ही नष्ट हो गई थी, लेकिन इसके विपरीत समुद्रगुप्त की विजये आगे चलकर चिरस्थायी बनी। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वान तो यहाँ तक कहते हैं कि शक्ति एवं वीरता के क्षेत्र में तो समुद्रगुप्त नेपोलियन से भी कहीं बढ़कर था क्योंकि अपनी विजय यात्रा में नेपोलियन की तरह ‘ट्राफल्गर’ तथा ‘वाटरलू’ की पराजय का अनुभव उसे नहीं करना पड़ा और न मास्को जैसी दुर्घटना का कड़वा फल चखना पड़ा। अपनी विजय यात्रा में उसने सदैव विजयलक्ष्मी का आलिंगन किया था, पराजय का नहीं। 

6. समुद्रगुप्त के कार्यों का मूल्यांकन : भारतवर्ष के इतिहास में समुद्रगुप्त एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । वह बड़ा ही वीर, साहसी तथा पराक्रमी सम्राट था। वह बड़ा उदार तथा प्रजापालक शासक था और बड़ा भारी संगीतज्ञ था। उसके इन गुणों की अब हम अलग-अलग व्याख्या करते हैं– 

(a) महान् विजेता : समुद्रगुप्त एक महान् विजेता था। उसने अपने पिता के छोटे से राज्य को विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। अपनी विजय यात्रा में उसने सदैव विजयलक्ष्मी का आलिंगन किया था, पराजय का नहीं। इस प्रकार उसने न केवल सम्पूर्ण भारत में अपनी सत्ता स्थापित की वरन् बाहर के राजाओं ने उसकी प्रभुता को माना और उससे मैत्री की आकांक्षा की। अपनी चारों दिशाओं में विजय के फलस्वरूप उसने देश को राजनैतिक एकता प्रदान की । 

(b) महान् साम्राज्य निर्माता : समुद्रगुप्त केवल महान विजेता ही नहीं था बल्कि महान् साम्राज्य निर्माता भी था। अपनी विजयों के पश्चात् उसने अपने साम्राज्य को दृढ़ बनाया और उच्चकोटि के शासन-प्रबन्ध द्वारा एकता तथा राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरो दिया। उसकी दक्षिण भारत की विजयें इस बात को सिद्ध करती हैं कि उसके आक्रमण राज्यों को नष्ट करने हेतु नहीं थे बल्कि धर्म तथा शांति की स्थापना करने के लिए थे। 

(c) महान् सेनानायक : समुद्रगुप्त एक महान सेनानायक भी था। उसने जितनी भी विजय प्राप्त की थी वे सब अपने व्यक्तिगत कौशल के कारण प्राप्त की थी। वह अत्यन्त निर्भीक तथा साहसी था तथा उसके शरीर पर सैकड़ों घावों के चिन्ह थे जो उसकी वीरता को दर्शाते हैं। 

(d) महान राजनीतिज्ञ : समुद्रगुप्त एक महान राजनीतिज्ञ भी था । उसकी दक्षिण विजय उसकी दूरदर्शिता एवं राजनीतिज्ञता का परिचायक है। वह जानता था कि उत्तरी भारत दक्षिण भारत पर राजतंत्रीय व्यवस्था में शासन करना कोई सरल कार्य नहीं है। इसलिए उसने इन राज्यों को विजित करने के उपरान्त उनके नरेशों को वापस लौटा दिया और उनसे वार्षिक कर लेने लगा। 

(e) महान साहित्यानुरागी : समुद्रगुप्त साहित्य का भी बड़ा प्रेमी था । उसे स्वयं गद्य तथा काव्य लिखने का बड़ा शौक था। उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर एवं तीक्ष्ण थी। उसकी राज्यसभा में उच्चकोटि के विद्वान तथा कवि आश्रय पाते थे। बौद्ध विद्वान बासुबन्धु तथा हरिसेन उसकी राज्य-सभा के प्रमुख विद्वान थे । 

(i) महान कला- प्रेमी : समुद्रगुप्त को कला से भी बड़ा अनुराग था । वह स्वयं एक बड़ा संगीतज्ञ था। उसे वीणा बजाने का बड़ा शौक था । इसका प्रमाण उसकी स्वर्ण मुद्राओं से मिलता है जिनपर वह वीणा बजाता हुआ दिखाया गया है। इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में उसके राजकवि हरिसेन ने लिखा है, “संगीत कला मे उसने नारद तथा तुम्बरू को भी लज्जित कर दिया था। उसकी मुद्राएँ भी उसके समय की कला प्रदर्शित करती हैं। ‘ 

(g) उसका व्यक्तित्व : विभिन्न गुणों से सुशोभित होने के कारण समुद्रगुप्त का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली एवं आकर्षक बन गया था। वह बड़ा ही वीर, चतुर राजनीतिज्ञ, कुशल शासक, महान विद्वान एवं संगीतज्ञ था। उसका हृदय बड़ा उदार था और वह सदैव दीन दुखियों की सहायता करता था|

उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि समुद्रगुप्त भारतीय इतिहास में एक बहुत ही है। महत्वपूर्ण सम्राट हुआ है। 


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