संगमयुगीन साहित्य, समाज एवं संस्कृति की विवेचना कीजिए। PDF DOWNLOAD

भारतीय इतिहास का वह काल, जब दक्षिण भारत तीन राजवंशों – चेर, चोल और पाण्ड्य के शासकों द्वारा शासित होता रहा, उसे ‘संगम युग’ के नाम से पुकारा जाता है। संगम साहित्य से प्राचीन दक्षिण भारत की सभ्यता और संस्कृति की जानकारी मिलती है। 

संगम का अर्थ : संगम का अर्थ है – सभा, संघ, अकादमी। संगम तमिल कवियों और विद्वानों का एक संगठन था। इसके अंतर्गत राजकीय संरक्षण प्राप्त अनेक तमिल कवि और विद्वान् काव्य-रचना करते थे। तमिल परम्परा के अनुसार पाण्ड्य शासकों के अन्तर्गत तीन बार संगमों का गठन किया गया था। इस आधार पर संगम काल को तीन युगों में बाँटा जाता है। इस प्रकार पौराणिक समय से तीन संगम माने जाते हैं। संगम काल में तमिल कवियों द्वारा रचित ‘संगम साहित्य’ की रचना हुई। 

संगम साहित्य 

संगम काल में उत्कृष्ट तमिल साहित्य की रचना हुई। निम्नलिखित तीन संगमों में उच्च कोटि के तमिल साहित्य की रचना हुई- 

1. प्रथम संगम : प्रथम संगम की स्थापना ऋशि अगस्त्य की अध्यक्षता में ठैनवा दुई में की गई थी। इसकी सदस्य संख्या 549 थी। इसके कार्यकाल में 4499 कवियों की रचनाओं को प्रकाशन के लिए स्वीकृत किया गया। इस संगम की प्रमुख रचनाओं में अवकतिथम, धारिपदल, मुदुनेर, मुदुकुरुकी, कलीरविरय आदि प्रमुख हैं। परन्तु इनमें से एक भी रचना उपलब्ध नहीं है। 

2. द्वितीय संगम : द्वितीय संगम की स्थापना भी पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में कपाटपुरंम में की गई थी। इसके सदस्यों की संख्या 49 थी तथा इसके कार्यकाल में 3700 कवियों की रचनाएँ प्रकाशन के लिए स्वीकृत की गई। इन रचनाओं में अकत्तियम, तोल्काप्णियम, मापुनम, भूतपुरानम, कलि, कुरुकु, वेन्दालि आदि उल्लेखनीय हैं। इस संगम की रचनाओं में से केवल एक रचना ‘तोल्काप्पियम’ ही उपलब्ध है। यह तमिल भाषा का व्याकरण है। इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन है। 

3. तृतीय संगम : तीसरे संगम की स्थापना मदुरई नगर में की गई। इसे भी पाण्ड्य शासकों का संरक्षण प्राप्त था। इसकी सदस्य संख्या 49 थी तथा इसके कार्यकाल में 449 कवियों की रचनाओं को प्रकाशन के लिए स्वीकार किया गया। इन स्वीकृत रचनाओं में ललिने, नेडुण्थोके, कुरत्थोके, पदिलुपत्तु, वरिं, पत्थुधातु, एतुत्थोकई और पदिनेन – कीलकनक्कु उल्लेखनीय हैं। इनमें पत्थुधातु, एतुत्थोकई तथा पदिनेनकीलकनक्कु नामक रचनाएँ उपलब्ध हैं। 

पत्थुधातु के दस काव्य हैं। एक काव्य को छोड़कर सभी काव्य राजाओं को समर्पित किये गये हैं। नक्किरर कृत एक काव्य एक देवता की प्रशंसा में है। दूसरा काव्य अधिक हृदयस्पर्शी है। रुदन कन्नार के एक काव्य में 500 कविताएँ हैं जिनमें कांचीपुरम् का सुन्दर वर्णन है। दूसरा काव्य एक प्रेम कथा है। इस काव्य में चोल राज्य की राजधानी पुहार का वर्णन है। शेष 6 काव्य 6 कवियों की रचनाएँ हैं। 

‘एतुत्थोकई’ नामक रचना में कविताओं के आठ संग्रह हैं। इन कविताओं का बहुत ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि उनमें तत्कालीन समाज का विस्तार से वर्णन मिलता है। इनमें एक कवयित्री की कविताएँ भी हैं। 

‘पदिनेनकीलकनक्कु’ नामक रचना में 28 संग्रह हैं। उनमें सबसे प्रसिद्ध तिरुवल्लुवर की रचना ‘कुरल’ है। इसमें दस-दस कविताओं के 113 वर्ग हैं। तिरुवल्लुवर ने अपने ग्रंथ में नीति, राजधर्म, नागरिकता, श्रृंगार और जीवन की कला आदि समस्याओं पर प्रकाश डाला है, इसलिए उसकी पुस्तक को ‘संक्षिप्त वेद’ भी कहा जाता है। 

तीसरे संगम में इन संग्रहों के अतिरिक्त तीन बड़े महाकाव्यों की भी रचना हुई। उनमें ‘सबसे प्रसिद्ध रचना ‘शिलप्पादिकारम’ है । यह महाकाव्य कविता, संगीत, नाटकीय तत्वों और सुन्दर वर्णनों से परिपूर्ण हैं। इसके अतिरिक्त ‘जीवक चिन्तामणि’ नामक रचना भी उल्लेखनीय है जिसमें 3000 सुन्दर पदें में जन्म से मोक्ष तक आत्मा की यात्रा का सुन्दर वर्णन है। इसी प्रकार कुलावनगन साटन कृत ‘मणिमेकलई’ नामक रचना भी तमिल साहित्य की महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है। 

संगम साहित्य का महत्व 

प्रो. के. ए. नीलंक शास्त्री के मतानुसार संगम साहित्य में आदर्शवाद के साथ वास्तविकता और उच्चकोटि की गरिमा के साथ परिश्रम और शक्ति का सम्मिश्रण था। इसको सही रूप से तमिल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। इसको ‘सुथरा तमिल साहित्य’ माना जाता है । इसकी शैली, विचारधारा और आदर्शवाद बाद में हुई रचनाओं से भिन्न है। इसमें उन धर्मनिरपेक्ष लोगों का वर्णन है जो जीवन के संघर्ष में लगे हुए थे और धार्मिक कट्टरता के सामने झुकने को तैयार न थे। 

संगम साहित्य के कवियों ने सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे शिक्षा के स्रोत थे और उन्होंने प्रशंसनीय और शिक्षाप्रद कार्य किया। उन्होंने सार्वभौमिक दया और उदारता की भावना का प्रदर्शन किया। 

सामाजिक जीवन 

समाज का वर्गीकरण : संगम काल में वर्ण व्यवस्था जटिल नहीं थीं। तमिल- साहित्य में कहीं भी क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों का उल्लेख नहीं मिलता। तमिल समाज 

निम्नलिखित पाँच वर्गों में विभाजित था- 

(i) ब्राह्मण : समाज में ब्राह्मणों तथा ऋषियों को सर्वाधिक सम्मान प्राप्त था। इनका मुख्य कार्य वेदों का अध्ययन, यज्ञों का अनुष्ठान, पूजा-पाठ और अध्ययन-अध्यापन था। ब्राह्मण लोग पुजारी, विद्वान और दार्शनिक थे। ये राजा के लिए पुरोहित, ज्योतिषी और ‘न्यायाधीश के काम करते थे । राजदरबार में इनका बड़ा मान-सम्मान था । ये लोग शाकाहारी थे और जनेऊ धारण करते थे तथा कमण्डल में पवित्र जल लेकर चलते थे। इनका जीवन बड़ा नैतिकतापूर्ण था। राजा लोग इनका आदर करते थे तथा इन्हें दान-दक्षिणा देते थे। 

(ii) आरासर : राजपरिवार से जुड़े लोग इस वर्ग से संबंधित थे। इस वर्ग के लोग मुकुट और माला धारण करते थे। ये लोग रथ, हाथी और घोड़े पर बै कर निकलते थे। इनका प्रमुख कार्य · जनता की आंतरिक और बाह्य शत्रुओं से रक्षा करना था। 

(iii) वनीगर : यह व्यापारी वर्ग था । ये लोग आन्तरिक एवं बाह्य व्यापार के कार्य में संलग्न थे। ये लोग काफी धन-सम्पन्न थे। 

(iv) वल्लाल : ये लोग अभिजात्य वर्ग के भूस्वामी होते थे। इन्हें उच्च राजकीय पदों एवं सेना के उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। राजपरिवारों के साथ इनके वैवाहिक सम्बन्ध होते थे। 

(v) वेल्लार : इस वर्ग में भूमिहीन तथा निम्न श्रेणी के किसान-मजदूर सम्मिलितं थे। ये लोग सम्पन्न किसानों के खेतों पर काम करके जीवन-यापन करते थे। 

कालान्तर में उपर्युक्त जातियाँ विभिन्न उपजातियों में बँट गई जैसे कि कुम्हार (कुमावर), लुहार (कोलार), बढ़ई ( थैचर), धोबी (वनार) आदि। ये व्यावसायिक जातियाँ कालान्तर में वंश परम्परागत बन गई। 

(1) दास-प्रथा : संगम काल में दास प्रथा भी प्रचलित थी। प्रायः युद्ध के समय बन्दों बनाए गए शत्रु- पक्ष के लोगों को दास बना लिया जाता था। दास लोगों की पहचान के लिए उनके शरीर पर एक विशेष चिह्न अंकित किया जाता था। दासों को खरीदने और बेचने के लिए नियमित बाजार थे । दासों के साथ सामान्यतः उदार व्यवहार किया जाता था । 

(2) स्त्रियों की दशा : कुछ विद्वानों के अनुसार संगम काल में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। परन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में निम्न समझा जाता था। उन्हें न तो सम्पत्ति का अधिकार था और न उन्हें पुरुषों के समान अधिकार थे। उन्हें सैनिक, मंत्री, राजदूत अथवा सलाहकार नहीं बनाया जाता था फिर भी वे सामाजिक एवं धार्मिक समारोहों में पुरुषों के साथ नृत्य करती थीं। लड़कियों को शिक्षा दी जाती थी, विशेषकर संगीत एवं नृत्य की । अविशार और नच्चेलियर उस युग की श्रेष्ठ कवयित्रियाँ थीं। 

(3) सती प्रथा : संगम काल में सती प्रथा प्रचलित थी। परन्तु स्त्रियों को जोर- जबरदस्ती सती होने के लिए विवश नहीं किया जाता था। जो स्त्री सती नहीं हो पाती थी, उसे दयनीय जीवन बिताना पड़ता था। पति की मृत्यु के बाद उसे अपने बाल मुण्डवाने पड़ते थे तथा आभूषणों का त्याग करना पड़ता था। उसका भोजन बड़ा सादा होता था। उसे एक समय भोजन करना होता था तथा जमीन पर सोना पड़ता था । 

(4) विवाह : इस युग में सामान्यतः दो प्रकार के विवाह होते थे—एक माता-पिता ‘द्वारा निर्धारित सम्बन्ध वाला विवाह जिसे ‘कारपू’ कहा जाता था। इसमें धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं का पालन किया जाता था। इस प्रकार के विवाह में वरपक्ष को वधु की कीमत चुकानी पड़ती थी। दूसरा माता-पिता की अनुमति के बिना प्रेम-विवाह जिसे ‘कलावू’ कहा जाता था। इसमें धार्मिक परम्पराओं का अनुसरण किये बिना कन्या और वन विवाह कर लेते है। साधारणतया पुरुष एक विवाह करते थे, परन्तु राजा, सामन्त और अनेक स्त्रियों से विवाह करते थे। 

(5) खान-पान : तमिल लोग अच्छा भोजन करते थे । ब्राह्मण शाकाहारी थे, परन्तु अन्य जातियों के लोग शाकाहारी और माँसाहारी दोनों थे। ये लोग चावल का अधिक प्रयोग करते थे। माँसाहार का प्रचलन अधिक था । ये लोग सुरापान भी करते थे। स्त्रियाँ भी मदिरापान करती थीं। 

(6) वेशभूषा और शृंगार : संगम काल में सूती और रेशमी वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था । सामान्यतः दो वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था – एक, कमर के नीचे का अंग ढकने लिए तथा दूसरा, कन्धे से नाभि तक। स्त्रियाँ साड़ी जैसे लम्बे वस्त्र का प्रयोग करती थीं। धनी लोग सिर पर पगड़ी अथवा साफा बाँधते थे। लोग जूते भी पहनते थे । स्त्रियों को केश- विन्यास का बहुत शौक था तथा वे अपनी वेणी में फूलों और मोर पंखों का प्रयोग करती थीं, स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषण पहनते थे । आभूषण सोने, मोती, हीरे, मणि और कौड़ी के बने होते थे। 

(7) मनोरंजन के साधन : तमिल लोगों के मनोरंजन के अनेक साधन थे। शासक लोग एवं धन-सम्पन्न लोग संगीत सम्मेलन, कवि-सम्मेलन एवं नृत्यों का आयोजन किया करते थे। ऐसे अवसरों पर कवियों, संगीतकारों एवं नर्तकियों को पारितोषिक दिया जाता था । प्रायः प्रत्येक राजा के दरबार में गायक और नर्तकियाँ रहती थीं। इसके अतिरिक्त शिकार, पासों का खेल, गोलियों का खेल, मल्लयुद्ध, सैर-सपाटा आदि भी मनोरंजन के अन्य साधन थे । 

(8) मृतक संस्कार : संगम काल में तमिल समाज में मृतक संस्कार सम्बन्धी दो विधियाँ प्रचलित थीं— (i) दाह संस्कार तथा (ii) दफनाना । सुविधानुसार किसी भी विधं द्वारा अन्तिम संस्कार कर दिया जाता था। दफनाते समय कुछ धार्मिक क्रियाएँ भी की जाती थीं। मृतक व्यक्ति को दफनाते समय उसकी विधवा दूब पर चावल का लड्डू रखकर उसको अर्पित करती थी। सम्पन्न लोग मृतक परिजनों के सम्मान में ईंटों की समाधियाँ बनवाते थे। 

कला 

संगम काल में कला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। करीकला नामक शासक के शासन काल में कला के सभी क्षेत्रों में पर्याप्त उन्नति हुई। इस युग में चित्रकला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। मकानों की दीवारों पर देवी-देवताओं तथा पशु-पक्षियों के सुन्दर चित्र चित्रित किये जाते थे। रंगमंच और परदों पर भी चित्रकारी होती थी । इस युग के लोगों को मूर्तिकला का भी ज्ञान था। इस युग में नृत्य तथा संगीत कला की भी पर्याप्त उन्नति हुई । प्रत्येक राजा के दरबार में गायक और नर्तकियाँ मौजूद रहती थीं । स्त्री और पुरुष दोनों ही नृत्य में भाग लेते थे। 

धार्मिक जीवन 

1. वैदिक धर्म का प्रभाव : संगम युग के धर्म पर वैदिक ब्राह्मण धर्म का काफी प्रभाव दिखलाई देता है। उत्तर भारत की अनेक पौराणिक कहानियाँ, आख्यान आदि संगम युग के धार्मिक जीवन के अंग बन चुके थे। प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार तमिल देश में वैदिक धर्म और आर्य सभ्यता का प्रचार-प्रसार था । 

2. देवी – देवता : संगम काल के तमिल अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे । ‘मुरुगन’ उनका एक प्रमुख देवता था। मुरुगन देवता की तमिल समाज में बहुत मान्यता थी । ‘गुरुगन’ के अनेक मंदिर बने हुए थे। इसके अतिरिक्त इन्द्र, शिव आदि की पूजा भी प्रचलित थी । कालान्तर में ब्रह्मा, विष्णु, बलराम, कृष्ण आदि की भी पूजा की जाने लगी। सरस्वती की पूजा भी प्रचलित थी। तमिल लोग यज्ञादि भी करते थे । यज्ञों के समय पशुओं की बलि देने की परम्परा थी । 

संगम साहित्य में अनेक मंदिरों का उल्लेख है। इन्द्र का उत्सव पुहार और कई स्थानों पर मनाया जाता था। स्त्रियाँ और पुरुष तुलसी की पूजा भी करते थे और सायंकाल में नियमित रूप से मंदिरों में पूजा-अर्चना के लिए जाते थे। ये लोग कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांतों में भी विश्वास करते थे। 


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